इन दिनों मेरी उम्र 50 प्लस है। वर्ष 2015 की बात थी..हम लोग ( मैं मेरे पापा, चाचा, छोटा भाई) रेलवे में ठेकेदारी के काम में लगे थे। 15 साल की पत्रकारिता की नौकरी के बाद ठेकेदारी लाइन में पापा के दबाव से मेरी नई एंट्री हुई थी। हमारी फर्म सीताराम इंजीनियर्स द्वारा रेलवे में मुगलसराय डिवीजन के विभिन्न स्थानों पर लोहे के पुलों की मरम्मत का काम किया जाता था। साइट पर मुझे अधिकांश जगहों पर रहना भी पड़ता था, क्योंकि मुझे टेक्निकल काम का बहुत ज्ञान नहीं था। डेहरी ऑन सोन, सासाराम, भभुआ रोड, गया और विक्रमगंज लाइन के स्टेशनों पर मैने ट्रेन द्वारा ही यात्राएं की।
अधिकांश मामलों में मुझे ट्रेन में एसी कोच में ही यात्रा करना पसंद था। पापा ने रेलवे में 32 साल नौकरी भी की थी तो मुझे रेल यात्राओं का अनुभव अच्छा था। 300 किमी तक का सफर मैं जनरल की टिकट खरीद और 100-200 रुपए TTE को देकर एसी कोच में आराम से कर लेता था। जहां भी साइट होती वहां मैं अपनी एक छोटी सी नैनो कार पहुंचा देता था ताकि लोकल मैं कोई परेशानी न हो।
उन दिनों मार्च का महीना था और सासाराम से विक्रमगंज वाली लाइन पर एक छोटे से स्टेशन गड़हनी में तीन पुलों के बेयरिंग बदलने का काम हमारी फर्म को मिला था। स्किल्ड लेबर, मिस्त्री और रेलवे के कई टेक्नीशियन इस काम में लगे हुए थे। काम के लिए कई प्रकार की मशीनें, औजार मैं कोलकाता से लाया था। इसके लिए भी कई दिन मैने कोलकाता का भ्रमण कर वहां की दुकानों, सेकेंड हैंड मशीनों की दुकानों आदि की बखूबी जानकारी और फोन नंबर ले लिए थे।
फिर एक दिन हुआ यूँ की, बियरिंग प्लेट ब्रिज के पिलर पर लगाने के लिए बेड ब्लॉक मैं ड्रिल मशीन से होल किए जा रहे थे। कई स्थानों पर कंक्रीट में पड़ी रॉड की वजह से पत्थर में होल करने वाली ड्रिल बीट जवाब दे गई। अब इसके लिए स्टील काटने वाली बीट की जरूरत आन पड़ी।
यह एक ऐसी समस्या थी जिसपर पहले न तो रेल अधिकारियों का ध्यान गया था और न ही हम लोगों का कि ऐसी भी विकट स्थिति आ सकती है। इससे अब नुकसान यह था कि सभी काम करने वाले हाथ पर हाथ रख खाली बैठ गए और सभी की मजदूरी चढ़ती रही। कोलकाता के एक न्यूमेटिकल टूल्स प्रोवाइडर कैलाश जी से बात की गई तो कैलाश जी ने कहा कि वो हावड़ा नई दिल्ली राजधानी एक्सप्रेस से नई दिल्ली के लिए रिश्तेदारी में जा रहे हैं और दो जर्मनी मेड ड्रिल बीट अपने साथ बैग में रख लेंगे। जिसे हम मुगलसराय स्टेशन पर उनसे कलेक्ट कर लें। यह सुझाव सभी को पसंद आया कि इससे समय और पैसों दोनों की भी बचत हो जाएगी। कैलाश जी को ऑनलाइन पैसा भेज दिया गया ताकि वो हमारी बीट ला सकें।
कैलाश जी ने कोलकाता से शाम को ट्रेन पकड़ ली और अब ड्रिल बीट कलैक्ट करने का काम मेरे जिम्मे था। ट्रेन रात्रि में 1.20 बजे मुगलसराय पहुंचती थी। मैं तैयार था कि बीट लेकर भोर की ट्रेन पकड़ कर आरा चला जाऊंगा, जहां से सड़क मार्ग से गड़हनी पहुंच जाऊंगा। उन दिनों मैं कभी कभार शराब पी लिया करता था और राजधानी एक्सप्रेस के आने इंतजार में दो पैग लगाकर घर में बिस्तर पर लेटा हुआ था और एक बजने का इंतजार कर रहा था कि स्टेशन की ओर कूच करूंगा। लेकिन 12.30 बजे के लगभग अचानक लेटे लेटे मुझे नींद लग गई। 1.15 बजे नींद खुली तो मैं स्टेशन की ओर भागा और जब तक प्लेटफार्म पर पहुंचा तब तक राजधानी एक्सप्रेस अपने ठहराव के 10 मिनट पूरे कर रफ्तार पकड़ चुकी थी।
ड्रिल बीट लेकर आ रहे कैलाश जी ने भी ट्रेन मुगलसराय पहुंचने वाली है इसकी सूचना फोन पर देना उचित नहीं समझा था। अन्यथा इस नई मुसीबत से बचा जा सकता था।
अब ड्रिल बीट लेने के लिए राजधानी एक्सप्रेस के बाद कि कोई दूसरी ट्रेन पकड़ कर दिल्ली जाने के अलावा मेरे पास कोई विकल्प नहीं था। मैं बुझे मन से घर आया और बैग में एक जोड़ी कपड़े डाले और दिल्ली की ट्रेन पकड़ ली।
दोपहर तक मैं दिल्ली पहुंच चुका था और कैलाश जी से बात हो गई थी कि वो बीट चावड़ी बाजार स्थित अपने साले की दुकान पर पहुंचवा देंगे। मैने आनंद विहार स्टेशन से टैक्सी की और चावड़ी बाजार पहुंच गया। बीट ली बिल लिया और अपने साथ बैग में रख लिया।
अब समस्या थी वापस जाने की क्योंकि ट्रेन में बिना रिजर्वेशन के जाना बड़ा ही दुरूह कार्य था। मुगलसराय की टिकिट करवाने के लिए ट्रेवल एजेंट के पास बैठा था, 3-2 टियर AC मे वेटिंग चल रही थी और मुझे कन्फर्म टिकिट चाहिए थी। तो ट्रेवल एजेंट ऐसे ही बोल पड़ा कि सर, एयर टिकिट ले लो...एसी 2 से कुछ ज्यादा किराया लगेगा तो फ्लाइट क्यों नही ले सकते ?? ये सुन कर ही मैं रोमांचित हो गया, इससे पहले हवाई जहाज सिर्फ आसमान में उड़ते हुए ही देखे थे...कभी नजदीक से भी नही देखा..! अगले ने रेट बनारस तक की बताई 3200 रुपये...।
रेट सुन के बाँछें खिल गयी, तुरंत अपने साढू महेश जो दिल्ली में ही रेलवे में जेई है को फोन मिलाया तो वह भी साथ में चलने को राजी हो गया। मैंने अपनी जेब में कम पैसे देख मेरठ में रह रहे बड़े भैया से दो टिकट की बुकिंग करवाई। इस तरह से हमारी पहली फ्लाइट बुकिंग "इंडिगो" में हो गई। मैं और महेश दोनों साढू भाई कुछ घंटे बाद ऑटो पकड़ कर दिल्ली के इंदिरा गांधी इंटरनेशनल एयरपोर्ट पहुँचे। मैंने इससे पहले कभी भी इतनी साफ सुथरी जगह नही देखी थी। हमारी फ्लाइट आने में अभी टाइम था सो सोचा कि तब तक कॉफी पी लेते हैं।
खैर, कॉफी की तलब थी, उधर एक बड़ी सी दुकान दिखी जहाँ से लोग कॉफी खरीद रहे थे ! अपन ने भी 2 कॉफी बोल दी... बाद में दो कॉफी के 300 rs देते हुए आत्मा बहुत दुखी। तब तक खाने की भूख मर ही चुकी थी। क्योंकि बाहर के रेट में मिलने वाले पोहे इधर अंदर गोल्ड के भाव मे बिक रहे थे। औऱ बरमूडा पहने लोग खरीद भी रहे थे, तब समझ आया कि हम जैसे पूरी पैंट पहनने वालों से बरमूडा और हवाई चप्पल वाले ज्यादा अमीर होते हैं।
एक लगभग 6 फुट लम्बा भारतीय युवक अंग्रेजी मेम के साथ हॉनकोंग की फ्लाइट के बावत पूछताछ कर रहा था। काउंटर से हटने के बाद उस युगल जोड़े को फर्श पर पोछा लगा रहे एक सफाईकर्मी ने फर्राटेदार अंग्रेजी में ढेर सारा ज्ञान दे डाला, जिसे देख मैं हतप्रभ रह गया। कॉफी के कड़वे घूँट पीने के बाद इंडिगो के काउंटर पर पहुँचे तो उधर साड़ी पहनी एक सुंदर सी महिला कर्मचारी ने हमारे बैग आदि सब रखवा लिए औऱ बोर्डिंग पास पकड़ा दिया। चेकिंग प्वाइंट पर बैग में रखी लोहे की बीट स्कैनर में बंदूक जैसी दिखाई पड़ी तो सिक्योरिटी वालों ने उसे बाहर निकलवाया। मैंने उसका बिल दिखाया लेकिन मेरे छोटे से बैग को साथ ले जाने की अनुमति नहीं मिली। साथ ही बैग में रखी शेविंग किट से ब्लेड, कैंची आदि डस्टबिन में डलवा दिया। बैग चेन में सील लगा कर लगेज वाले कार्गो में भेज दिया गया। अब बिना बैग के हम छुट्टे साँड़ माफिक हो गए। बचे हुए पौन घण्टे में हमने एयरपोर्ट का चप्पा चप्पा छान मार लिया। सारी दुकानों पर घूम आए, हालांकि किसी ने हमे भाव नही दिया क्योंकि वो सब अनुभवी लोग थे, समझ रहे थे कि ये बस ठाला गिरी कर रहे हैं।
खैर, आखिर में हमारी इंडिगो फ्लाइट की बारी आई और हम सब को एक कतार में खड़ा करके बस में बैठने के लिए अंदर भेजा गया। एसी बस कुछ ही देर में प्लेन तक पहुंच गई और सभी पैसेंजर सीढ़ी चढ़ते हुए अंदर जाने लगे। अंदर घुसते ही सुंदर अप्सराओं ने हमारा स्वागत किया और मुस्कुराते हुए गुड इवनिंग बोला, कस्सम से अपने पइसे उधर ही वसूल हो गए। फ्लाइट के अंदर सफेद सफेद माहौल था औऱ कोई किसी से बात नही कर रहा था, कोई बोल भी रहे थे तो मुँह में मुँह डाल कर बोल रहे थे। लग रहा था जैसे अस्पताल में आ गया हूँ। थोड़ी देर में वो सारी अप्सराएं कुछ कुछ समझाने लगी, कि ऑक्सीजन ऐसे निकलेगी, पानी में गिर गए तो हवा ऐसे भरनी है। सुनते सुनते मेरे हाथ पाँव फूल गए और हाथ एकदम ठंडे पड़ गए। बाद में पड़ोसी ने बताया फ्लाइट पानी में नही एयरपोर्ट पर ही उतरेगी, तो जो बता रही है वो रूटीन प्रोसेस है जिसे हर फ्लाइट में बताया जाता है। कुछ ही देर में प्लेन रनवे पर दौड़ने लगा उसकी रफ्तार बढ़ती जा रही थी।
खैर, जैसे ही प्लेन उड़ा, पेट में झुरझुरी सी होने लगी। मेरी शुरू से ही ईश्वर में आस्था बहुत कम रही है, लेकिन उस समय मैं भगवान को जपने लगा, हालांकि बाद में सब ठीक हो गया। काफी ऊंचाई पर जाने के बाद जो नज़ारे दिखे, उन्हें तो मैं जीवन भर नही भूल सकता। 35 हजार फुट की ऊंचाई पर पहुंचने के बाद बादलों के बीच प्लेन के आने पर खिड़की से नीचे क्या है कुछ समझ नहीं आ रहा था। एसी में शरीर ठंडा गया तो 30 मिनट बाद मुझे वॉशरुम जाना पड़ा क्योंकि एयरपोर्ट पर घूमते हुए एक लीटर पानी जो पी गया था। टॉयलेट में फ्लश चलाने पर बड़े जोर की आवाज़ हुई वैक्यूम सक्शन के कारण। मुझे non window सीट मिली थी लेकिन पास की विंडो सीट पर कोई यात्री नहीं था तो मैंने विंडो का पूरा आनंद लिया।
तब तक व्योम बालाएं सेल्स गर्ल में तब्दील हो गई थी। नाश्ता और जूस आ गया, पहले लगा कि फ्री में दे रही हैं, बाद में उस ने रेट बताई जिसे सुन कर और पेमेंट कर हमारा पेट और मन दोनो भर गया। रास्ते मे एक दो बार मौसम भी खराब हुआ बादल छाए रहे और छिटपुट बारिश भी हुई, जिसकी जानकारी व्योम बालाओं ने दी।
फाइनली, अपना बनारस आ गया।
प्लेन से उतर कर लाल बहादुर शास्त्री अंतर्राष्ट्रीय एयरपोर्ट के एक बड़े से हॉल में पहुंच गए, जहां कुछ देर बाद लिफ्ट बेल्ट से होते हुए मेरा बैग पहुंच गया। मैने अपना लगेज उठाया और रिजर्व ऑटो से वाराणसी कैंट पहुंचा और ठेले पर एक चाय पी। फिर वहां से मैं अपनी औकात में आ गया और मुगलसराय की शेयरिंग ऑटो पकड़ ली। थोड़ी देर पहले जिस इंसान ने इतना vip ट्रीटमेंट देखा हो उसे, एकदम से यूँ शेयरिंग ऑटो में बैठकर जाना कितना इन्सल्टिंग लगा होगा ये आप सोच सकते हो। उस समय हमें मुंशी प्रेमचंद की वो अमीर और गरीब दोस्त वाली कहानी "नशा" याद आ गई। कहानी के किरदार "ईश्वरी ने अंग्रेजी मे कहा- What an idiot you are, Bir! (बीर, तुम कितने मूर्ख हो !) और मेरा नशा अब कुछ-कुछ उतरता हुआ मालूम होता था।"
खैर, इसी का नाम तो जिंदगी है, है ना ??
(काशी के कलमकार अनूप कर्णवाल की कलम से)
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