हवाई जहाज दिल्ली की जमीन छोड़ रहा है। पंख आसमान को छूने की ओर बढ़ने लगे हैं। साथ ही मेरे सपने भी। खुशी और गम के बीच भीषण युद्ध चल रहा है। हवाई अड्डा से आसमानी होते जहाज को मेरी पत्नी और माँ वैसे ही निहार रहीं हैं, जैसे विदाई होती बेटी की पालकी को लोग निहारते हैं। इसी जहाज में मेरा बेटा अथर्व है। विदेश जा रहा है। उसकी प्रतिभा विदेशी सरकार के बेहद कठिन मानदंडों पर खरी उतरी है। आजमाने के लिए रचा गया परीक्षा- चक्रव्यूह को उसने भेद दिया। नतीजा यह कि विदेशी सरकार छात्रवृत्ति के साथ उसके पठन- पाठन, आवास, भोजन सहित अन्य खर्च की जिम्मेदारी लेते हुए अपनी धरती पर बुला ली है। अब दो वर्ष तक हमारी आँखें विदेशी धरती से भारत आते हर जहाज को निहारती रहेंगीं, पता नहीं किस जहाज से बेटा वापस आ जाए।
मेरे सपने तो अरसे से दिल के तहखाने में कैद थे। किसी से जिक्र करने से भी डरता था। वजह भी थीं। एक तो यह कि उन स्याह भाग्यवानों में था जो श्रम तो अट्ठन्नी का करते हैं लेकिन मुट्ठी में चवन्नी ही आती है। दूसरा बेटे अथर्व का अल्हड़पन- जिस पर मेरी कुछ ही बातों का असर होता था, अधिकांश बेशकीमती सबक तो हवा में ही उड़ जाते थे। ऐसे में उसे लेकर जो सपने देखता था, उसका जिक्र किसी से करने का कभी साहस ही नहीं जुटा पाया। जब विदेशी सरकार ने उसे छात्रवृति के लिए चयनित किया उसके बाद भी हर राह पर काँटे बिखरे मिले। कागजी कार्रवाई में भी पसीने से तरबतर होता रहा। कई बार तो ऐसा लगा कि सारा खेल ही बिगड़ने वाला है। हालाकि , सपने अब मुट्ठी में बंद हैं। बेटा विदेश जा रहा है, विदेशी सरकार के खर्च पर , यह खुशी भी तब कुछ बौनी मालूम हुई जब मैंने अथर्व के अस्तित्व से अल्हड़पन को गायब पाया। शायद जेएनयू की आबोहवा ने अल्हड़पन का अपहरण कर उसे एक जिम्मेदार व आदर्श नागरिक बना कर मुझे सौंप दी है। इस संस्थान की दीवारों को भी देखता हूं तो आंखे भर जातीं हैं। अल्हड़पन को आदर्श बनाना क्या किसी जादू से कम है? इन दिवारों , यहां के शिक्षाविदों ने मेरा सीना चौड़ा कर दिया है। और यह संभव हुआ आपकी दुआओं, शुभकामनाओं, आशीर्वाद से , वरना मेरी किस्मत ऐसी कहां? दबा रहूंगा, आपके इस अहसान के नीचे, यह अहसान आप बार बार कीजिएगा। इस पूरी यात्रा में अपने परिवार के साथ-साथ
विशाल श्रीवास्तव जी, चन्दर महादेव जी (प्रोफेसर अमेटी), श्री मनोज कुमार मनुज जी (उप निबंधक जे. एन. यू .), भाई कपिल डबराल (जे. एन. यू.), श्री दिलीप ओझा जी (दैनिक जागरण), के.के. वर्मा भैया, श्री ए. एस. चटर्जी, छोटे भाई प्रवीण कुमार (हिन्दुस्तान टाइम्स), श्री नवेन्दू जी।
मित्रगण अतुल सिन्हा, सुबोध त्रिपाठी, एवं जे. के. श्रीवास्तव का जिस तरह से सहयोग मिला उसे भुलाया नहीं जा सकता। आप सभी का हृदय के अंत:करण से आभार । साथ ही उत्तर प्रदेश सरकार का भी आभारी हूं, जिसने दिल्ली स्थित यूपी भवन में आश्रय दिया । ( लेखक हर्ष द्विवेदी लखनऊ में टाइम्स ऑफ इंडिया से जुड़े हैं )
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