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तब स्कूल में गर्मी की छुट्टियां हुई थीं. मैं कक्षा-6 में पढ़ता था. परीक्षा दे चुके थे. बनारस तो आना-जाना था लेकिन इसकी भव्यता का मुझे कोई बोध नहीं था.
संयुक्त परिवार था तो जाहिर है कि कुछ खटपट होगी ही. ऐसा ही कुछ हुआ था जिससे मेरी दादी दुखी थीं. यह वह जमाना था जब पारिवारिक झगड़े बच्चों के लिए मनोरंजन का साधन था. शाम को अक्सर किसी न किसी के घर झगड़ा होता था. बच्चे इक्ट्ठा होकर देखते थे. बाद में परिवार का कोई बुजुर्ग डांटता तो भाग जाते. जिन घरों में झगड़े होते थे वे बाद में बिखर गए.
यह वह दौर था जब संयुक्त परिवार का खोखलापन सतह पर आ गया था. गरीबी थी लेकिन हम लोग मस्त थे. खूब घूमते थे. खेलते और पढ़ते थे. तो ऐसा हुआ कि दादी की इच्छा कोलकाता जाने की हुई. उनके बड़े बेटे यानी मेरे पिता कोलकाता में रहते थे. शायद वहां हाईकोर्ट में प्रेक्टिस करते थे. सुबह सफेद पैंट-शर्ट और काली कोट पहनकर निकलते थे.
तो प्रोग्राम बना और दादी को लेकर मैं रेलवे स्टेशन पहुंचा और ट्रेन से बनारस आ गया. शाम को लगभग 4 बज रहे थे. पता चला कि देहरादून एक्सप्रेस आ रही है जो दूसरे दिन सुबह कोलकाता पहुंचेगी. मैंने दो टिकट लिया और पहली बार पोस्ट आफिस से एक टेलीग्राम पिता जी को कर दिया कि दून एक्सप्रेस से कल आ रहा हूं.
मुझे कोई डर नहीं था. मैं खुश था. ट्रेन अपनी गति में चल रही थी. ट्रेन में कोई भीड़ नहीं थी. दादी चुपचाप बैठी थीं. शायद कुछ सोच रही थीं. ट्रेन दूसरे दिन सुबह जब फाफामऊ रेलवे स्टेशन पर पहुंची तो बोगी में बैठे सहयात्री चिल्लाने लगे कि यह ट्रेन भी कोलकाता जाएगी और दून एक्सप्रेस से पहले पहुंच जाएगी. सब लोग उस ट्रेन में बैठने लगे तो मैं भी दादी के साथ उसमें बैठ गया. तब यह बात दिमाग में नहीं आई कि पिता जी दून-एक्सप्रेस से मेरे आने का स्टेशन पर इंतजार कर रहे होंगे.
कोलकाता का हाबड़ा स्टेशन..! ट्रेन धीमी गति से प्लेटफार्म पर रेंग रही थी. बोगी में हलचल शुरू हो गई. सब लोग अपना सामान समेटने लगे. मैंने भी अपना झोला लिया. मेरे पास कोई बहुत सामान नहीं था. दादी एक डिब्बा में आम और मिर्च का अचार बहुत संभाल कर रखी थीं.
हाबड़ा रेलवे स्टेशन पर रिक्शा वाले पूछ रहे थे- दादा कोथा जाबे? मैं तब बंगाल भाषा नहीं जानता था. जानता तो अब भी नहीं हूं लेकिन कुछ-कुछ समझ लेता हूं. एक हाथ से खींचने वाले रिक्शा चालक से मैंने पूछा कि खिदीरपुर जाइएगा. उसने कहा- हां, लेकिन बीस रुपया लेंगे. मैं रिक्शे की तलाश में काफी परेशान हो गया था. उसने खुद कहा कि जब पहुंचा देंगे तभी पैसा दीजिएगा.
पहली बार मैंने देखा कि कोलकाता में हाथ से लोग रिक्शा खींच रहे थे. बनारस में मैंने देखा था कि लोग साइकिल की तरह चलाते हैं. मुझे अच्छा नहीं लगा कि मैं रिक्शा पर बैठा हूं और एक आदमी उसे हाथ से खींच रहा है.
फिर रास्ते में कोलकाता की चौड़ी सड़कों और आते-जाते तेज वाहनों में खो गया. मेरे लिए सब कुछ एक आश्चर्य था. दो मंजिला बसों को देख मैं आश्चर्यचकित हो गया. अद्भुत..!
मेरा रिक्शा सड़क पर दौड़ता रहा. खिदीरपुर आ गया. अब पिता के घर की तलाश शुरू हुई. कोई जानकारी नहीं मिल रही थी. भाषा की भी समस्या थी. तभी एक पोस्टमैन दिखा. मुझे लगा कि यह जरूर बता देगा. उससे मैंने पूछा तो बताया कि अभी-अभी उनका एक टेलीग्राम देकर आ रहा हूं. कहा- इस गली में चले जाइए दो मकान बाद उनका घर है.
मैंने अंदाजा लगाया कि वह मेरा ही टेलीग्राम था जिसे देने वह गया था. टेलीग्राम पाकर पिता जी घबड़ा गए थे कि ट्रेन तो सुबह ही आ गई होगी, अब तक वह कहां है? वह हाबड़ा स्टेशन जाने की तैयारी करने लगे तभी सीढ़ियों से दादी को लेकर मैं पहुंच गया. पिता जी सोच रहे थे कि कैसे यह यहां तक पहुंच गया?
अंतिम बार 1980 में कोलकाता गया था. एक बार फिर जाने की इच्छा है. उन गलियों और सड़कों को देखना चाहता हूं कि कितना बदलाव हुआ है. चिड़ियाघर देखना चाहता हूं और भी बहुत कुछ..! 50 साल पहले के कोलकाता से गुफ्तगू करने की इच्छा है. इस शहर का अपना जादू है. जल्दी छोड़ता नहीं. मेरे गांव से बहुत से लोग कोलकाता गए और वहीं के होकर रह गए. सलाम कोलकाता..! जल्दी ही मिलेंगे.
(काशी के वरिष्ठ कलमकार सुरेशप्रताप सिंह की कलम से )
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