द्वादश ज्योतिर्लिंगों में से तीन का महाराष्ट्र में विद्यमान होना हमारी यात्रा का उल्लेखनीय प्रेरक कारक कहा जा सकता है । इस संपूर्ण यात्रा की रूपरेखा नासिक में रहने वाली मेरी साली वंदना ने तैयार की थी और उसका सहज अनुमोदन उसकी बहन जी अर्थात मेरी पत्नी ने कर दिया। जहां तक मेरी बात है मुझे यात्रा के लिए कभी भी प्रोत्साहित करने की आवश्यकता नहीं रहती । मैं तो हमेशा चलने के लिए तैयार बैठा रहता हूं ।
जिस दिन हमें वाराणसी से यात्रा शुरू करनी थी, उस दिन नगर में रथयात्रा मेले का आयोजन था । जिसके कारण मार्ग परिवर्तन की जानकारी मुझे थी। इसी को दृष्टिगत रखते हुए एक ऑटो वाले से सुबह ही बात हो गई तो उसने समय पर स्टेशन पहुंचाने के लिए आश्वस्त कर दिया।
लेकिन जब स्टेशन जाने का वक्त आया तब उसने साफ-साफ मना कर दिया । समय लेकर स्टेशन पहुंचने की मेरी सहज आदत ने आज यह फायदा पहुंचाया कि जब हम दूसरे ऑटो से स्टेशन पहुंचे, तब तक ट्रेन आई नहीं थी। गोरखपुर - लोकमान्य तिलक टर्मिनल एक्सप्रेस से रात 10:00 बजे आरंभ हुई यात्रा को 22 घंटे बाद अगले दिन 7:00 बजे शाम को नासिक के रूप में मंजिल मिली।
यात्रा का रूट मेरे लिए कुछ नया नहीं था । इसलिए मैं रास्ते भर घूमने के स्थलों के बारे में ही कल्पनाएं करता रहा ।
नासिक में हमारा होटल पहले से बुक था। लिहाजा हम ऑटो से निश्चिंत होकर वहां पहुंच गए। परंतु यह क्या, होटल वाले ने बताया कि आपका रूम बुक नहीं है ।कारण पूछने पर उसने स्पष्ट किया कि ओयो वालों से कुछ पैसे का मामला है । साथ ही उसने कमरा खाली न होने तथा पैसा रिफंड कर देने की जानकारी भी दी।
नासिक में यह पहला अनुभव प्रीतिकर नहीं कहा जा सकता ।
खैर दूसरे होटलों की तलाश में हम सड़क पर आ गए। पूछताछ करने पर पता चला कि यहां पास में ही कालिका मंदिर ट्रस्ट में अतिथि निवास है । वहां रुका जा सकता है। जब हम वहां पहुंचे तो पहली नजर में ही कमरा पसंद आ गया।
वहां पर सामान रखने के बाद तुरंत खाने के लिए गेस्ट हाउस के भोजनालय में पहुंच गए। रात के 9:30 बज रहे थे । अपने सामने ही एक महिला को खाना बनाते देख कर सुखद अनुभव हुआ और जब खाना खाने लगे तो घर जैसा ही स्वाद महसूस हुआ । कमरे में लौटे तो सोचा कि दिन में सफर के कारण नहाना नहीं हो पाया है , इसलिए स्नान कर लेना चाहिए। लेकिन मौसम ठंडा देखकर और पानी का स्पर्श करके नहाने का विचार त्यागना समीचीन लगा।
बिस्तर पर कंबल की उपस्थिति से भी यह अनुमान लगाया कि जब रात में कंबल की जरूरत पड़ सकती है, तो इतनी रात में शरीर को तकलीफ देना क्या जरूरी है । वैसे भी छह- सात घंटे बाद नहाना ही है ।
इसके बाद एक बार जो सोया तो सुबह मंदिर परिसर के पेड़ों पर चहचहाती चिरपरिचित आवाजों ने मुझे जगा दिया। खिड़की से बाहर देखने पर नासिक की हरियाली ने जैसे मेरा मन खुश कर दिया। (काशी के कलमकार आशुतोष पाण्डेय की कलम से)
क्रमशः.......
दुनियाभर के घुमक्कड़ पत्रकारों का एक मंच है,आप विश्व की तमाम घटनाओं को कवरेज करने वाले खबरनवीसों के अनुभव को पढ़ सकेंगे
https://www.roamingjournalist.com/