"जो डर गया, वो मर गया।" फिल्म शोले का ये डायलॉग मेरे दादा उमादत्त दीक्षित का मुंबई में जीने का फलसफा था। इस डायलॉग को वे अक्सर बातचीत में कहा करते थे। उनकी दबंगई पर मुझे गर्व था। ये उनका दबंग स्वभाव ही था जिसने उन्हें 60 के दशक में उत्तर प्रदेश के बाराबंकी जिले से आकर मुंबई में चुनौतियों से संघर्ष करने का हौसला दिया। अपनी इसी दबंगई के कारण उन्होंने जवेरी बाजार में यशवंत नाम के गुंडे को ऐसा पीटा कि उस दिन के बाद से वो कभी नजर नहीं आया। हमेशा अपने साथ रामपुरी चाकू रखने वाले यशवंत ने इलाके के व्यापारियों को जबरन वसूली के लिए आतंकित कर रखा था। एक दिन उसने बाबा की ओर से शुरू की गई वड़ा पाव की दुकान पर दादागिरी करने की कोशिश की। दादा ने कड़ाही में खौलते तेल से सनी छन्नी उसके पिछवाड़े पर दे मारी। वो पानी से निकली मछली की तरह तड़पने लगा, उसके साथी डर के भाग खड़े हुए और फिर कभी यशवंत उस इलाके में दिखाई नही दिया।
बाबा बेहद गर्म मिजाज के थे। जरा भी कुछ गलत होते देखते तो आपा खो देते। मुझे बचपन का एक किस्सा याद है जब मै उनके साथ क्रॉस मैदान में रामलीला देखने गया। दर्शक मंच के सामने खुले मैदान में बैठे हुए थे। इस बीच लीला में ब्रेक हुआ क्योंकि आयोजकों को बतौर मुख्य अतिथि बुलाए गए किसी नेता का सम्मान करना था। इस बीच तेज बारिश शुरु हो गई लेकिन राम के प्रति भक्ति भाव से आए दर्शक वहीं डटे रहे। कुछ ने भीगने से बचने के लिए कुर्सियां सिर पर रख लीं। दर्शकों को हो रही इस असुविधा के बावजूद मंच पर मौजूद नेताजी का भाषण लंबा ही होता जा रहा था। बाबा ने अपना आपा खो दिया और जोर से चिल्लाए - "साले शर्म नही आती। हम यहां रामलीला देखने आए हैं कि भीगते हुए तेरा भाषण सुनने। जूता निकालूँ अभी..." बाबा का ये रूप देखकर आयोजक और नेताजी डर गए। कुछ और भी दर्शक बाबा के साथ बोलने लगे। तुरंत सम्मान समारोह खत्म हुआ और रामलीला फिर शुरू हो गई। उनका कहना था कि मुंबई में जो डरता है उसे सभी दबाते हैं और जो पलटवार करता है उससे सभी डरते हैं। वे अक्सर बंबइया हिंदी लहजे में कहते "सीना तान के रहने का"
मेरे बचपन की कई यादें उनसे जुड़ी हैं जैसे 4-5 साल की उम्र में मुझे रेलगाड़ियों को देखना पसंद था।अक्सर रविवार के दिन वे मस्जिद बंदर स्टेशन जाकर प्लेटफॉर्म टिकट निकालते और मुझे गोद में उठाकर आती-जाती ट्रेनों को दिखाते। सीटी बजाते हुए वहां से गुजरने वाली ट्रेनों को देखकर जब मैं खुश होता तो वे भी मेरी तरह बच्चा बनकर मजा लेते। उन दिनों काजू कतली मेरी पसंदीदा मिठाई थी। हफ्ते में एक या दो बार, रात को काम से घर लौटते वक्त, वे जवेरी बाजार के मशहूर आसूमल मिठाईवाले से पावभर काजू कतली लेते आते।
बाबा अब से करीब तीस साल पहले मुंबई छोड़कर वापस गांव चले गए क्योंकि उनके पिता यानी मेरे परदादा का निधन हो गया था और परिवार की खेतपाती देखने की जिम्मेदारी उन पर आ गई थी। उसके बाद वे सिर्फ एक बार मुंबई आए वो भी भारत के तीर्थस्थलों की यात्रा के दौरान। बाबा एक लट्ठबाज भी थे और तेल लगाया हुआ लट्ठ हमेशा उनके साथ रहता। किसी की उनसे पंगा लेने की हिम्मत नही होती। गांव वाले सम्मान से उन्हें दाऊ पुकारते थे।
स्कूल की गर्मियों की छुट्टियों में जब मैं गांव जाता तो वे मुझे अपने साथ गाय चराने ले जाते और बाकी गांव वालों से बड़े गर्व के साथ मेरा परिचय करवाते। कई बार ऐसा होता कि बाबा बातों में मशगूल होते और अचानक उनकी नजर पड़ती कि गाय किसी के उरद के खेत चरने लग गई है तो वे सिर्फ गुस्से में इतना कहते "ऐ गईया..."और गाय तुरंत खेत से दूर हट जाती।
बीते दो तीन दिनों से उनकी तबियत बेहद गंभीर चल रही थी। मां का फोन आया कि तुरंत बंबई से आ जाओ, शायद बाबा बच न पाएं। मैं उन्हें देखने गांव पहुंचा और फिर कुछ मिनटों बाद ही वे निराकार हो गए। शायद अंतिम पलों में मुझे अपने पास रखना चाहते थे। वे 90 साल के थे। बाबा तो आज चले गए लेकिन स्मृतियों में उनका जिंदादिल और बिंदास जज़्बा हमेशा बना रहेगा। ॐ शांति।
( यूपी के बाराबंकी जिले से निकलकर मायानगरी पहुंचे प्रसिद्ध पत्रकार जितेंद्र दीक्षित की कलम से)
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