सत्यं किम प्रमाणं, प्रत्यक्षं किम प्रमाणं'
सत्य को किसी प्रमाण की आवश्यकता नहीं है, न ही जो स्पष्ट है।
विश्वेश्वर आदि लिंग अविमुक्तेश्वर और ज्ञानवापी की महिमा
सर्वप्रथम विश्वेश्वर आदिलिंग अविमुक्तेश्वर का वर्णन
अविमुक्तं च स्वानं तथा मध्यमकं पदम् ।
एतत्रिकण्टकं देवि मृत्युकालेऽमृतप्रदम् ॥
(लि० पु०, कृ० क० त०, पृ० १२३)
अविमुक्तेश्वर का मूर्धन्य स्थान तो उस समय सवस्वीकृत था ही। कलौ स्थानानि पूजयेत्। और विश्वेश्वर तो काशी के देवता ही माने जाते हैं ।
इस पर्यालोचन के समय हमको एक बात और भी ध्यान में रखनी है कि सकाम उपासना में जिस कामना से आराधना होती है, उसके अनुसार ही देवस्थानों का चयन किया जाता है और इस प्रकार उनका आनुपातिक महत्त्व तथा प्राधान्य बदलता रहता है।
इसके अतिरिक्त पारमार्थिक तथा लौकिक महत्ता भी सदैव एक साथ नहीं रहतीं। नगर के निकटवर्ती देवालयों का लौकिक महत्त्व सदैव दूरवर्ती स्थानों की अपेक्षा अधिक होता है।
जैसा कि मुगलों के आधिपत्य के पूर्व वाराणसी-क्षेत्र के स्वामी अविमुक्तेश्वर थे। उनका सर्वाधिक माहात्म्य था। पृथ्वी के सभी तीर्थ तथा पुण्यायतन उनके दर्शनों को प्रत्येक पर्व पर उपस्थित होते हैं।
उस समय उन सभी का माहात्म्य अविमक्तेश्वर में लीन हो जाता है।
अविमुक्तेश्वर के दर्शन करने वाले का पुनर्जन्म नहीं होता। यह आदिलिंग माना गया है, जिसको देखकर ही बाद में अन्य शिवलिंगों का स्वरूप-निर्धारण हुआ। अविमुक्तेश्वर के दर्शन से जन्म-जन्मान्तर के पापों का तत्क्षण नाश हो जाता है। भगवान् विश्वनाथ भी नित्य उनका पूजन करते हैं।
इनके दर्शन से तो पुनर्जन्म से मुक्ति मिलती ही है, इनके स्मरण करने का भी वही फल है।
यहाँ तक कि दूर देश में भी यदि कोई मनुष्य अविमुक्तेश्वर का ध्यान तथा जप नियमित रूप से त्रिकाल करता रहे, तो वहाँ मरने पर भी काशी में मृत होने का फल,अर्थात् मुक्ति मिलती है। यदि मनुष्य इनका दर्शन करके कार्यवश दूसरे नगर को जाय, तो कार्यसिद्धि के पश्चात् पुनः काशी में शीघ लौटकर आ जाता है।
ब्रह्मवैवर्तपुराण ने तो यहाँ-तक कहा है कि अविमुक्तेश्वर की आराधना से ही ब्रह्मानारायणादि देवताओं को शक्ति
तथा अधिकार मिले हैं:
नैमिषं पुष्करअविमुक्त सदालिङ्ग योऽत्र द्रक्ष्यति मानवः।
तस्य पुनरावृत्तिः कल्पकोटिशतैरपि ॥
(लिं० पु०, कृ० क० त०, पृ० १०६)
द्वादश ज्योतिर्लिंगों में प्रमुख काशी विश्वनाथ मंदिर अनादिकाल से काशी में है... यह स्थान शिव और पार्वती का आदि स्थान है इसीलिए आदिलिंग के रूप में अविमुक्तेश्वर को ही प्रथम लिंग माना गया है.. इसका उल्लेख महाभारत और उपनिषद में भी किया गया है।
ईसा पूर्व 11वीं सदी में राजा हरीशचन्द्र ने जिस विश्वनाथ मंदिर का जीर्णोद्धार करवाया था उसका सम्राट विक्रमादित्य ने जीर्णोद्धार करवाया था।
उसे ही 1194 में मुहम्मद गौरी ने लूटने के बाद तुड़वा दिया था। इतिहासकारों के अनुसार इस भव्य मंदिर को सन् 1194 में मुहम्मद गौरी द्वारा तोड़ा गया था। इसे फिर से बनाया गया, लेकिन एक बार फिर इसे सन् 1447 में जौनपुर के सुल्तान महमूद शाह द्वारा तोड़ दिया गया। पुन: सन् 1585 ई. में राजा टोडरमल की सहायता से पं. नारायण भट्ट द्वारा इस स्थान पर फिर से एक भव्य मंदिर का निर्माण किया गया। इस भव्य मंदिर को सन् 1632 में शाहजहां ने आदेश पारित कर इसे तोड़ने के लिए सेना भेज दी। सेना हिन्दुओं के प्रबल प्रतिरोध के कारण विश्वनाथ मंदिर के केंद्रीय मंदिर को तो तोड़ नहीं सकी, लेकिन काशी के 63 अन्य मंदिर तोड़ दिए गए।
डॉ. एएस भट्ट ने अपनी किताब 'दान हारावली' में इसका जिक्र किया है कि टोडरमल ने मंदिर का पुनर्निर्माण 1585 में करवाया था। 18 अप्रैल 1669 को औरंगजेब ने एक फरमान जारी कर काशी विश्वनाथ मंदिर ध्वस्त करने का आदेश दिया। यह फरमान एशियाटिक लाइब्रेरी, कोलकाता में आज भी सुरक्षित है।
उस समय के लेखक साकी मुस्तइद खां द्वारा लिखित 'मासीदे आलमगिरी' में इस ध्वंस का वर्णन है। औरंगजेब के आदेश पर यहां का मंदिर तोड़कर एक ज्ञानवापी मस्जिद बनाई गई... 2 सितंबर 1669 को औरंगजेब को मंदिर तोड़ने का कार्य पूरा होने की सूचना दी गई थी... औरंगजेब ने प्रतिदिन हजारों ब्राह्मणों को मुसलमान बनाने का आदेश भी पारित किया था।
आज उत्तर प्रदेश के 90 प्रतिशत मुसलमानों के पूर्वज हिन्दू है.. सन् 1752 से लेकर सन् 1780 के बीच मराठा सरदार दत्ताजी सिंधिया व मल्हारराव होलकर ने मंदिर मुक्ति के प्रयास किए... 7 अगस्त 1770 ई. में महादजी सिंधिया ने दिल्ली के बादशाह शाह आलम से मंदिर तोड़ने की क्षतिपूर्ति वसूल करने का आदेश जारी करा लिया, परंतु तब तक काशी पर ईस्ट इंडिया कंपनी का राज हो गया था इसलिए मंदिर का नवीनीकरण रुक गया... 1777-80 में इंदौर की महारानी अहिल्याबाई द्वारा इस मंदिर का जीर्णोद्धार करवाया गया था... अहिल्याबाई होलकर ने इसी परिसर में विश्वनाथ मंदिर बनवाया जिस पर पंजाब के महाराजा रणजीत सिंह ने सोने का छत्र बनवाया,.. ग्वालियर की महारानी बैजाबाई ने ज्ञानवापी का मंडप बनवाया और महाराजा नेपाल ने वहां विशाल नंदी प्रतिमा स्थापित करवाई।
सन् 1809 में काशी के हिन्दुओं ने जबरन बनाई गई मस्जिद पर कब्जा कर लिया था, क्योंकि यह संपूर्ण क्षेत्र ज्ञानवापी मंडप का क्षेत्र है जिसे आजकल ज्ञानवापी मस्जिद कहा जाता है.... 30 दिसंबर 1810 को बनारस के तत्कालीन जिला दंडाधिकारी मि. वाटसन ने 'वाइस प्रेसीडेंट इन काउंसिल' को एक पत्र लिखकर ज्ञानवापी परिसर हिन्दुओं को हमेशा के लिए सौंपने को कहा था, लेकिन यह कभी संभव नहीं हो पाया... इतिहास की किताबों में 11 से 15वीं सदी के कालखंड में मंदिरों का जिक्र और उसके विध्वंस की बातें भी सामने आती हैं... मोहम्मद तुगलक (1325) के समकालीन लेखक जिनप्रभ सूरी ने किताब 'विविध कल्प तीर्थ' में लिखा है कि बाबा विश्वनाथ को देव क्षेत्र कहा जाता था। लेखक फ्यूरर ने भी लिखा है कि फिरोजशाह तुगलक के समय कुछ मंदिर मस्जिद में तब्दील हुए थे... 1460 में वाचस्पति ने अपनी पुस्तक 'तीर्थ चिंतामणि' में वर्णन किया है कि अविमुक्तेश्वर और विशेश्वर एक ही लिंग है।
इसका फल यह हुआ कि जब आगे चलकर वाराणसी में पुनः मन्दिर बने, तब विश्वेश्वर के मन्दिर को अन्यत्र बनवाना पड़ा और वह इस प्रकार अवि-मुक्तेश्वर के प्रांगण में बना।
जब इस सबके प्रायः पांच सौ वर्षों के बाद जब औरंगजेब काजोश समाप्त हो चुका था, जयपुरनरेश मिर्जा राजा जयसिंह ने विश्वेश्वर के आदिम स्थान की स्मृति जीवित रखने के उद्देश्य से रजिया की मस्जिद के सन्निकट यह शिवालय बनवाया, जिसका नाम इसी कारण आदिविश्वेश्वर रखा गया।
इस बीच विश्वेश्वर का मन्दिर अपने नये स्थान में भी चार बार पुनः टूट चुका था। आदिविश्वेश्वर का मन्दिर
विश्वेश्वर का मन्दिर नहीं है, वह विश्वेश्वर के आदिम स्थान का स्मारक-मात्र है । कृत्यकल्पतरु में विश्वेश्वर का जैसा वर्णन है, वैसा ही वर्णन एक जगह काशीखण्ड में भी मिलता है, यद्यपि इस ग्रन्थ में अन्यत्र विश्वेश्वर को काशी का आधिपत्य मिल चुका है।
17वें अध्याय के 179वें श्लोक में विश्वेश्वर के कृत्यकल्पतरुवाले स्वरूप का वर्णन इस प्रकार किया गया है कि:
यत्समाप्याप्यते पुण्यं निष्ठापाशुपतव्रतम् ।
तदाप्यतेऽत्र विश्वेश सकृदीक्षणतः क्षणात् ॥ (का० ख०, ६७।१७६)
जो कृत्यकल्पतरु के वर्णन का शब्दान्तर-मात्र है। इसके पश्चात् विश्वेश्वर के मन्दिर का वही स्थान काशीखण्ड में भी बतलाया गया है कि उसके ईशान कोण में अवधूततीर्थ था:
तदीशानेऽवधूतेशो योगज्ञानप्रवर्तकः।
तीर्थं चैवावधूतेशं सर्वकल्मषनाशकृत् ॥ (का० ख०, ६७१८०)
यही बात कृत्यकल्पतरु में इस प्रकार कही गई है कि :
पूर्वोत्तरदिशाभागे तस्य देवस्य सुन्दरि।
अवधूतम्महत्तीर्थं सर्वपापनुदुत्तमम् ॥ (लि० पु०, कृ० क० त०, पृ० ६३)
काशीखण्ड में ही इस प्रकार के विरोधास्पद वर्णन का कारण यह है कि उस ग्रन्थ के ९७वें अध्याय में मुसलमानों के आधिपत्य के पूर्व का वर्णन है और काशीखण्ड के शेष
अध्यायों में चौदहवीं शताब्दी के मध्य की परिस्थिति का वर्णन है, जब विश्वेश्वर काशीपति हो चुके थे।
काशीखण्ड में एक जगह और विश्वेश्वर नामक शिवलिंग का उल्लेख है, परन्तु कृत्य-काशीखण्ड के १७वें अध्याय के विषय में जो मत ऊपर दिया गया है। उसका तर्क-सहित प्रमाण 'तीर्थों के स्थानान्तरण' नामक अध्याय में मिलेगा।
लिंगपुराण के तथा काशीखण्ड के ९७वें अध्याय के आधार पर विश्वेश्वर के माहात्म्य का वर्णन कर चुकने के बाद अब हमको काशीखण्ड के विश्वेश्वर के माहात्म्य की ओर दृष्टिपात करना है ; क्योंकि तेरहवीं शताब्दी के बाद से उनका वही माहात्म्य माना जाता रहा है और आज भी माना जाता है।
काशीखण्ड में कहा गया है कि विश्वेश्वर-लिंग स्वयम्भू-लिंग था :
अस्मिन्ममानन्दवने यदेतल्लिङ्ग सुधाधाम सुधामधाम ।
आसप्तपातालतलात्स्वयम्भूसमुत्थितं भक्तकृपावशेन ॥
(का० खं०, ६६।४४)
स्वयम्भुवोऽस्य लिङ्गस्य मम विश्वेशित : सुराः ।
राजसूयसहस्रस्य फलं स्यात्स्पर्शमात्रतः॥ (का० ख०, ६६।२६)
इसके दर्शन-पूजन से मुक्ति-प्राप्ति का फल होता है, तत्त्वज्ञान भी मिलता है।
वस्तुतः,सभी कुछ प्राप्त होता है:
तस्य दर्शनमात्रेण तत्त्वज्ञानविधायकम् ।
पापं क्षयमवाप्नोति सर्वथा नात्र संशयः ॥ (प०पु०,त्रि० से०, पृ०१८३)
स्नात्वा मुमुक्षुमणिकर्णिकायां मृडानि गङ्गाहृदये त्वदास्ये।
विश्वेश्वरं पश्यति योऽपि कोऽपि शिवत्वमायाति पुनर्न जन्म॥
(सन० सं०, त्रि० से०, पृ० १८४)
सर्वलिङ्गार्चनात्पुण्य यावज्जन्म यदर्यते ।
सकृद्विश्वेशमभ्यर्च्य श्रद्धया तदवाप्यते ॥
सर्वलिङ्गार्चनात्पुण्य यावज्जन्म यदर्यते ।
सकृद्विश्वेशमभ्यर्च्य श्रद्धया तदवाप्यते ॥
यज्जन्मनां सहस्रण निर्मलं पुण्यमचितम् ।
तत्पुण्यपरिवर्तन भवेद्विश्वेशदर्शनम् ॥
गवां कोटिप्रदानेन सम्यग्दत्तेन यत्फलम्।
तत्फलं सम्यगायत विश्वेश्वरविलोकनात् ॥(का०ख०, त्रि०से०, पृ०१८५)
अर्हसर्वेषु लिङ्गषु तिष्ठाम्येव न संशयः ।
परं त्वियं परामूतिर्मम लिङ्गस्वरूपिणी ॥ (का० ख०, ६६।
यस्तु विश्वेश्वर दृष्ट्वा ह्यन्यत्रापि विपद्यते ।
तस्य जन्मान्तरे मोक्षो भवत्येव न संशयः ॥ (का० ख०, ६९।४२)
काशीविश्वेश्वरं लिङ्गं ज्योतिलिङ्ग तदुच्यते ।
तदृष्ट्वा परमं ज्योतिराप्नोति मनुजोत्तमः ॥
(ना० पु०, त्रि० से०, पृ० १८७)
लिङ्ग महानन्दकरं विश्वेशाख्यं सनातनम् ।
नमस्कृत्य विमुच्येत पुरुषः प्राकृतगुणैः ॥
(ब० वै० पु०, त्रि० से०, पृ० १८३)
काश्यां श्रीदेवदेवस्य विश्वनाथस्य पूजनम् ।
सर्वपापरह पुंसामनन्ताभ्युदयावहम् ॥
संसारदावनिर्दग्ध जीवभूरूहजीवनम्
दुःखार्णवौघपतितप्राणिनिर्वाणकारणम
(शिवपु०, त्रि० से०, पृ० १८८)
उपर्युल्लिखित माहात्म्य को देखने से स्पष्ट है कि पहले जो माहात्म्य अविमुक्तेश्वर का था, वह प्रायः सभी सरकारी कुछ काशीखण्ड, ब्रह्मवैवर्तपुराण, नारदपुराण, पद्मपुराणादि में विश्वेश्वर का बतलाया गया है। एक बात और है, यद्यपि काशीखण्ड, पद्मपुराण तथा ब्रह्मवैवर्तपुराण में अविमुक्तेश्वर तथा विश्वेश्वर को एक नहीं माना गया है, तथापि काशीखण्ड में जिस वाराणसी का वर्णन है, उसके सौ वर्ष बाद ही जनमानस इन दोनों को एक ही मानने लग गया था।
अतएव, दोनों का माहात्म्य भी एकरूप हो जाने में कोई आश्चर्य नहीं होना चाहिए ।
देवदेव और विश्वेश्वरदेव अविमुक्तेश्वर के ही नाम थे, उनकी इस उक्ति का आधार मत्स्यपुराण है, जहाँ देवदेव पद तो बहुत बार आया है और विश्वेश्वर एक जगह (१८२।१७) ।
अब रही विश्वेश्वर देव की बात, सो जिस श्लोक में यह पद आने का उल्लेख 'काशी का इतिहास' में हुआ, वह इस प्रकार है :
प्राप्य विश्वेश्वरं देवं न स भूयोऽभिजायते।
अनन्यमानसो भूत्वा योऽविमुक्तं न मुञ्चति ॥
परन्तु, इसके अतिरिक्त एक अन्य श्लोक में भी 'विश्वेश' पद आया है :
तीर्थानां पञ्चकं सारं विश्वेशोनन्दकानने ।
दशाश्वमेधं लोलार्कः केशवो बिन्दुमाधवः॥
पञ्चमी तु महाश्रेष्ठा प्रोच्यते मणिकर्णिका । (म० पु०, १८५७६५-६६)
जब वाराणसी में विश्वेश्वर नाम का एक शिवलिंग वर्तमान है, ऐसी स्थिति में इन श्लोकों के आधार पर यही कहा जा सकता है कि या तो देवदेव के समान ही 'विश्वेश्वर' शब्द केवल शिववाची है, अन्यथा यह कि विश्वेश्वर नामक शिवलिंग के लिए ही इसका प्रयोग हुआ है। अविमुक्तेश्वर का नाम ही विश्वेश्वर था, यह तो इन सन्दर्भो से किसी प्रकार सिद्ध नहीं होता।
इसके अतिरिक्त ‘काशी का इतिहास' ने स्वयं ही
अविमुक्तेश्वर (पृ० १७३) तथा देवदेव (पृ० १८३) के मन्दिरों को अलग-अलग बतलाया है।
पूर्वोतरे दिग्विभागे तस्मिन् क्षेत्रे तु सुन्दरि ।
उत्पन्नं मम लिङ्गतु भित्वा भूमि यशस्विनि ॥
तेषामनुग्रहार्थाय लोकानां भक्तिभावतः।
वाराणस्यां महादेवि तत्र स्थान स्थितो ह्यहम् ॥
तं दृष्ट्वा मनुजो देवि पशुपार्शविमुच्यते।
कूपस्तत्रैव संलग्नो महादेवस्थ
तत्रोपस्पर्शनाद्देवि लभेद्वागीश्वरों गतिम् ।
तत्र वाराणसी देवी स्थिता विग्रहरूपिणी॥
मानवानां हितार्थाय स्थिता कूपस्यपश्चिमे ।
वाराणसी तु यो दृष्ट्वा भक्त्या चैव नमस्यति ॥
तस्य तुष्टा च सा देवी वसति च प्रयच्छति।
महादेवस्य पूर्वेण गोप्रेक्षमिति विश्रुतम् ॥
(कृ० क० त०, पृ०, ४१-४२)
इस शिवलिंग का नाम 'महादेव' था, यह अन्तिम पंक्ति से निश्चित हो जाता है. यद्यपि छठी पंक्ति में 'महादेवस्य संलग्नो कूपस्तत्रैव चैव हि' से भी यही बात सिद्ध होती है। यदि 'महा-
देवस्य कूपः' कहें, तो भी बात वही निकलती है। आगे चलकर फिर कहा गया है :
पश्चिमे तु दिशाभागे महादेवस्य भामिनि ।
स्कन्दन स्थापितं लिङ्ग मम भक्त्या सुरेश्वरि ॥ (कृ० क० त०, पृ० ४६)
इस प्रकार, जिस शिवलिंग का नाम 'काशी का इतिहास' ने अविमुक्तेश्वर स्थापित किया है,
उसका नाम केवल 'महादेव' था, जिनकी पूजा-अर्चना इसी नाम से सोलहवीं शताब्दी तक होती थी और आज भी होती है। त्रिस्थलीसेतु में लिखा है : त्रिलोचनसमीपस्थः
महावेवे पवित्रारोपणं महाफलम् (त्रि० से०, पृ० २५१) ।
२. अन्यदायतनं वक्ष्य वाराणस्यां सुरेश्वरि ।
यत्रव देवदेवस्य रुचिरं स्थानमीप्सितम् ॥
नीयमानं पुरा देवि तल्लिङ्ग शशिमौलिनः ।
राक्षसैरन्तरिक्षस्थवजमानं सुसत्वरम् ॥
तावत् कुक्कुटशब्दस्तु तस्मिन् देशे समुत्थितः ।
शब्दं श्रुत्वा तु तं देवि राक्षासास्त्रस्तचेतसः॥
लिङ्गमुत्सृज्य भीतास्ते प्रभातसमये
गतैस्तु राक्षसवि लिङ्ग तत्रैव संस्थितम् ॥
स्थाने तु रुचिरे शुभ्र देवदेवः स्वयं प्रभुः।
अविमुक्तस्तत्र मध्ये अविमुक्त ततः स्मृतम्॥
अविमुक्तं सदालिङ्ग योऽत्र द्रक्ष्यति
पुनरावृत्तिः कल्पकोटिशतैरपि॥
(कृ० क० त०, पृ० १०८-१०६)
यहाँ पर 'देवदेव' शब्द भगवान् शंकरवाची है। शिवलिंग का नाम तो 'अविमुक्त' स्पष्ट लिखा है। इसके बाद ज्ञानवापी तथा निकटवर्ती शिवलिंगों का विवरण देने के बाद कहा गया है कि :
अविमुक्तस्य चाग्ने तु लिङ्ग पश्चान्मुखं स्थितम् ।
प्रीतिकेश्वरनामानं प्रीति यच्छति शाश्वतीम् ॥
अविमुक्तोत्तरेणैव लिङ्ग पश्चान्मुखं स्थितम् ।
(कृ० क० त०, पृ०११२)
इस प्रकार, स्वयं 'काशी का इतिहास' अविमुक्तेश्वर के दो स्थान बतलाता है, यद्यपि उसमें एक जगह नाम देवदेव ग्रहण किया गया है, परन्त वर्णन अविमुक्तेश्वर का ही है, जैसा
ऊपर दिखलाया जा चुका है और वह स्वयं भी पहले कह चुका है कि देवदेव अवि-मुक्तेश्वर का ही नाम है। अब प्रश्न उठता है कि अविमुक्तेश्वर का शिवायतन कहाँ था।
इस सम्बन्ध में काशी के इतिहासकार को जो भी भ्रम हो क्योंकि, उन्होंने इस विषय में तीन बातें कही हैं : १. वह गंगातट पर अथवा उसके पास था (पृ० ९६);
२. वह वाराणसी-क्षेत्र के उत्तर-पूर्व में था, जहाँपर पुराण महादेवलिंग का स्थान बतलाते हैं,
(पृ० १७३) तथा
३. देवदेव नाम से वह ज्ञानवापी के उत्तर में था], परन्तु बात इतनी स्पष्ट है कि इस भ्रम का कारण समझ में ही नहीं आता। कृत्यकल्पतरु में यह लिखा है कि अविमुक्तेश्वर के दक्षिण वापी है, जिसका जल पीने से मनुष्य के हृदय में तीन लिंग
उत्पन्न होते हैं और उसका पुनर्जन्म नहीं होता। यहाँ इस वापी का नाम नहीं दिया हुआ है, परन्तु उसके चारों ओर स्थित जिन शिवलिंगों का वर्णन है, उनसे स्पष्ट है कि यह वापी ज्ञानवापी ही है। उसके पश्चिम में दण्डपाणि, पूर्व में तारकेश्वर, उत्तर में नन्दीश्वर तथा दक्षिण में महाकालेश्वर उसके जल की रक्षा करते हैं। इन देवताओं के स्थान
ज्ञानवापी के चारों ओर आज भी पूजे जाते हैं। इतना ही नहीं, काशीखण्ड में भी इस वापी का यही स्थान और उसके चारों ओर यही देवता कहे गये हैं।
उसका जल पीनेवालों के हृदय में तीन लिंगों की उत्पत्ति का वर्णन भी वहाँ मिलता है :
देवस्य दक्षिणे भागे वापी तिष्ठति शोभना ।
तस्यास्तथोदकं पीत्वा पुनर्जन्म न विद्यते ॥
पीतमात्रेण तेनेव उदकेन यशस्विनि।
त्रीणि लिङ्गानि वर्धन्ते हृदय पुरुषस्य तु ॥
दण्डपाणिस्तु तत्रस्थो रक्षते तज्जलं सदा ।
पश्चिमं तीरमासाद्य देवदेवस्य शासनात् ॥
पूर्वेण तारको देवो जलं रक्षति सर्वदा ।
नन्दीशश्चोत्तरेणैव महाकालस्तु दक्षिणे ॥
रक्षते तज्जलं नित्यं मद्भक्तानां तु मोहनम् ।
(लि० पु०, कृ० फ० त०, पृ० १०६-११०)
अविमुक्तस्य चाग्ने तु लिङ्ग पश्चान्मुखं स्थितम् ।
तु प्रीतिकेश्वरनामानं प्रीति यच्छति शाश्वतीम् ॥
(लि० पु०, कृ० क० त०, पृ० १११)
देवस्य दक्षिणे भागे तत्र वापी शुभोदका।
तदम्बु प्राशनंनं णामपुनर्भवहतवे॥
तज्जलात्पश्चिमे भागे दण्डपाणिः सदावति ।
तत्प्राच्यवाच्यत्तरस्यां तारः कालः शिलादजः ॥
लिङ्ग त्रयं हृदब्जे यच्छ्रद्धया पीतमर्पयेत् ।
यैस्तत्र तज्जलं पीतं कृतार्थास्ते नरोत्तमाः॥
(का० ख०, ९७४२२०-२२२)
यहाँ तारः से तारकेश्वर, काल: से महाकालेश्वर तथा शिलादजः से, जो नन्दी का नाम है,
नन्दीश्वर का तात्पर्य है।
इस प्रकार, अविमुक्तेश्वर के शिवायतन का वही स्थान सिद्ध होता है, जहाँ औरंगजेब की आलमगीर मस्जिद है। जिसे लोग ज्ञानवापीवाली मस्जिद के नाम से जानते हैं।
यहाँ यह शंका उठ सकती है कि उक्त मस्जिद तो
विश्वेश्वर का मन्दिर तोड़कर बनी थी, फिर वह स्थान अविमुक्तेश्वर का कैसे हो सकता है।
इस शंका का निवारण विश्वेश्वर के शिवायतन के वर्णन में नीचे दिया जाता है।
आजकल अविमुक्तेश्वर के दो शिवलिंग हैं, एक तो विश्वनाथजी के वर्तमान मन्दिर में आग्नेय कोण के छोटे मन्दिर में और दूसरा ज्ञानवापी की मस्जिद की सीढ़ियों के सामने धर्मशाले में खिड़की के भीतर का बड़ा शिवलिंग ।
इसके अतिरिक्त अविमुक्तेश्वर के प्राचीन स्थान
की स्मृति तथा साक्ष्य के रूप में ज्ञानवापी के उत्तर फाटक से घुसते ही सामने पृथ्वी पर फूल चढ़ाने की हिन्दु ओं को न्यायालय से आज्ञा मिली हुई है।
विश्वेश्वर का लिंग आयतन परम गुह्य है, जिसकी सभी देवता वन्दना करते है और जिसके दर्शन से पाशुपतव्रत का फल प्राप्त होता है :
अन्यच्च देवदेवस्य स्थानं गुह्यं यशस्विनि ।
लिङ्ग विश्वेश्वर नाम सर्वदेवस्तु वन्दितम् ॥
तेन दृष्टेन लभ्यत व्रतात्पाशुपतात्फलम्।
(लि० पु०, कृ० क० त०, पृ० ६३)
लिंगपुराण के अनुसार विश्वेश्वर के शिवलिंग
का कोई बड़ा माहात्म्य नहीं था। यही निष्कर्ष डॉ० आयंगर ने तथा डॉ० मोतीचन्द्र ने भी निकाला है।।
महाराज गोविन्दचन्द्र द्वारा विश्वेश्वर का दर्शन तथा ग्राम-
दान यह सिद्ध करता है कि उस समय विश्वेश्वर का शिवायतन वाराणसी के प्रमुख शिवायतनों में था।
इससे भी यह सिद्ध होता है कि उस समय लौकिक दृष्टि से वही वाराणसी का प्रधान मन्दिर था। कर्णाटक के हयशल राजा नृसिंह तृतीय ने सन् १२७९ ई० में एक दानपत्र लिखा था,
जिसमें उन्होंने एक गाँव की आय (६४५ निष्क) कर्णाटक, तिलंगाणा, तुलू, तिरहुत, गौड इत्यादि के निवासियों को काशीयात्रा के समय तुरुष्क-दण्ड देने तथा श्रीविश्वेश्वर की सेवा के लिए दिया था।
इससे स्पष्ट है कि काशी के प्रधान शिवलिंग के रूप में उस समय विश्वेश्वर ही दूर-दूर के प्रदेशों में प्रसिद्ध थे। जैसा हम आगे चलकर देखेंगे, गुजरात में भी विश्वेश्वर की ही ख्याति थी, जिसके आधार पर सेठ वस्तुपाल ने एक लाख रुपया उनकी सेवा के लिए भेजा था। ऐसा जान पड़ता है कि उन दिनों धार्मिक प्राधान्य अविमुक्तेश्वर का होते हुए भी सांसारिक दृष्टि से विश्वेश्वर की भी उतनी ही महिमा थी और सम्भावना यही है कि 'कुट टनीमतम्' नामक ग्रन्थ में जिस शिवायतन का वर्णन है, वह विश्वेश्वर का ही था। इस ग्रन्थ की रचना कश्मीर के राजा जयापीड के मन्त्री दामोदरगुप्त ने सन् ७७९ से ८१३ ई० के बीच किया था। इसमें उज्जयिनी का राजकुमार समरभट वाराणसी आने पर भगवान् शंकर के जिस मन्दिर में गया, उसके चारों ओर जो भीड़- भाड़ थी, उसमें वेश्याओं, विटों, चेटिकाओं आदि का प्राधान्य था।
भगवान् का दर्शन करने के उपरान्त मन्दिर के बाहर आने पर वह राजकुमार भी उसी समाज में बैठ गया और उसके सामने नर्तक, वेणुवादक, गायक तथा वेश्याएँ बैठ गई और नगर के प्रमुख सेठ, वणिक् इत्यादि पान, सुवास आदि लेकर आये।
इस वर्णन को विश्वेश्वर के शिवायतन से सम्बद्ध करने का यह कारण है कि वाराणसी के किसी भी शिवमन्दिर में वेश्याओं को मण्डली नहीं जाती, परन्तु आदिविश्वेश्वर के मन्दिर में आज भी वर्ष में एक दिन नगर की सभी वेश्याएँ रात-भर नाचती-गाती हैं।
आदिविश्वेश्वर का मन्दिर विश्वेश्वर के आदिम स्थान का स्मारक होकर पुराने मन्दिर के स्थान से थोड़ा हटकर बना हुआ है और इन नगर-नायिकाओं के वहाँ जाकर गाने की
परम्परा उस पुरानी परिस्थिति की ओर संकेत करती है, जिसका वर्णन 'कुट्टनीमतम्' में किया गया है।
विश्वेश्वर के शिवलिंग के सम्बन्ध में एक विशेषता यह भी कही गई है कि उसमें स्पर्शास्पर्श-दोष नहीं होता था। जिस प्रकार का जनसमाज उस मन्दिर के चारों ओर था,
उस परिस्थिति में स्पर्शास्पर्श-दोष का निर्वाह सम्भव नहीं था।
वहां तो हर प्रकार के लोग थे, जो मन्दिर में दर्शन-पूजन भी करते थे और बाहर आकर सांसारिक विषय-
वासना में लिप्त हो जाते थे। सभी जाति के लोग उस समाज में थे और इस कारण वहाँ सभी जाति के लोग विश्वेश्वर के लिंग का दर्शन-पूजन तथा स्पर्श करते थे ।
इस कठिनाई का निराकरण सनत्कुमारसंहिता में मिलता है :
ब्राह्म मुहूर्ते मणिकणिकायां स्नात्वा समाराधयति स्वमेव ।
अस्पृश्यसंस्पर्शविशोधनाय कलौ नराणां कृपया हिताय ॥
(त्रि० से०, पृ० १८३)
विश्वेश्वर का मन्दिर कहाँ था, इस प्रश्न का उत्तर लिंगपुराण तथा काशीखण्ड के ९७वे अध्याय में मिलता है। वहां लिखा है कि विश्वेश्वर के ईशान कोण में अवधूत महातीर्थ था, जिसके पूर्व में पशुपतीश्वर का शिवायतन था। इस प्रकार, पशुपतीश्वर के पश्चिम में अवधूततीर्थ और उसके नैऋत्य कोण में विशैलेश्वर। यह स्थिति थी।
इस प्राचीनतम् नगरी के प्रति हिन्दुओं में आस्था कूट-कूट कर भरी है। काशी सारे दुःखों को समाप्त करने वाली मोक्षदायिनी नगरी है। नैषधचरित के रचनाकार श्री हर्ष ने इस प्रकार लिखा है-
वाराणसी निविशते न वसुन्धरायां तत्र स्थितिर्मखभुआं भवने निवासः।
तत्तीर्यमुक्तवपुषामत एव मुक्तिः स्वर्गात् परं पदमुपदेतु मुदेतुकीदृक।।
अर्थात्, काशी समग्र भारत प्रतिरूप के रूप में मौजूद है। यह समस्त दुःखों को समाप्त करने वाली मोक्षनगरी है। यह इस भूमण्डल से बाहर है। यह पृथ्वी पर नहीं है। काशी अलग-अलग कालों में समय के साथ और विकसित होती गयी।
काशी का विध्वंस सिर्फ औरंगजेब द्वारा उसके काल में नही हुआ बल्कि एक बृहद इतिहास रहा है काशी विध्वंस का।
काशी में सबसे पहला आक्रमण 1027 में गजनी सेना ने किया उसके पहले मंगोलिया और बौद्ध से 1500 वर्षों तक लड़े।
12वीं सदी काशी पर गहड़वालों का शासन। गहड़वाल नरेश गोविन्दचंद्र के राजपंडित दामोदर द्वारा तत्कालीन लोकभाषा (कोसली) में उक्तिव्यक्ति प्रकरण की रचना। गोविंदचंद्र की रानी कुमारदेवी ने सारनाथ में विहार बनवाया। गहडवाल युग में काशी के प्रधान देवता अविमुक्तेश्वर शिव की विश्वेश्वर में तब्दीली।
सन् 1193 काशीराज जयचंद की मृत्यु।
सन् 1194 कुतुबुद्दीन का काशी पर आक्रमण हुआ, जिसने विष्णु-मंदिर को तोड़कर ढाई कंगूरे की मस्जिद बनवा दी।
सन् 1194 व 1197 काशी पर शहाबुद्दीन और कुतुबुद्दीन ऐबक के हमले। काशी की भारीलूट। गहडवालों का अंत।
वाराणसी के सभी मन्दिर सन् 1194 ई० में कुतुबुद्दीन ऐबक ने तुड़वा दिये और उसके बाद प्रायः पचास वर्षों तक वे सभी टूटे पड़े रहे। इसके बाद विश्वेश्वर-मन्दिर के स्थान पर रजिया सुलताना (राज्यकाल सन् 1236-1240 ई०) ने मस्जिद बनवा दी।
सन् 1248 दूसरी बार मुहम्मद गोरी का आक्रमण हुआ।
सन् 1526 बाबर ने इब्राहीम लोदी को पराजित करने के बाद काशी पर भी आक्रमण किया।
सन् 1531 बनारस व सारनाथ में हुमायूं का डेरा।
सन् 1538 बनारस पर शेरशाह की चढ़ाई।
तत्कालीन विश्वनाथ मंदिर और कई मंदिरो को तोड़ा। और काशी में लूट पाट खून खराबा किया ।
सन् 1565 काशी पर बादशाह अकबर का कब्जा।
सन् 1583-91 प्रथम अंग्रेज यात्री रॉल्फ फिच की वाराणसी-यात्रा।
सन् 1584 काशी में ज्ञानवापी स्थित प्राचीन विश्वेश्वर मन्दिर का निर्माण दिल्ली सम्राट अकबर के दरबारी राजा टोडरमल के द्वारा हुआ।
सन् 1585 राजा टोडरमल और नारायण भट्ट की मदद से विश्वनाथ मंदिर का पुननिर्माण।
सन् 1600 राजा मान सिंह द्वारा काशी में मानमंदिर और घाट का निर्माण।
सन् 1623 सोमवंशी राजा वासुदेव के मंत्री नरेणु रावत के पुत्र श्री नारायण दास के दान से काशी में मणिकर्णिका घाट स्थित चक्रपुष्करणी तीर्थ का निर्माण हुआ।
सन् 1642 विंदुमाधव मन्दिर ( प्रथम ) का निर्माण जयपुर के राजा जयसिंह द्वारा हुआ।
सन् 1656 दारा शिकोह की बनारस यात्रा।
सन् 1666 औरंगजेब की आगरा-कैद से भागकर छत्रपति शिवाजी कुछ दिन काशी में ठहरे।
सन् 1669 औरंगजेब के आदेश से विश्वनाथ मंदिर गिरा कर उसके स्थान पर ज्ञानवापी की मस्ज़िद उठा दी गई। बिंदुमाधव का मन्दिर भी गिराकर वहां मस्जिद बनाई गई।
सन् 1669 औरंगजेब के शासन काल में उसकी आज्ञा से ज्ञानवापी का विश्वेश्वर मन्दिर तोड़ा गया।
सन् 1669 छत्रपति शिवाजी आगरे के किले से औरंगजेब को चकमा देकर कैद से निकल कर सीधे काशी आये। यहाँ आकर पंचगंगा घाट पर स्नान किया।
सन् 1673 काशी में औरंगजेब द्वारा बेनी माधव का मन्दिर तोड़ा गया।
सन् 1699 आमेर के महाराज सवाई जयसिंह के द्वारा काशी में पंचगंगा घाट पर राम मन्दिर बनवाया था।
सन् 1714 गंगापुर ग्राम में कार्त्तिक कृष्ण पक्ष में काशीराज महाराज बलवन्त सिंह का जन्म हुआ।
सन् 1725 काशी राज्य की स्थापना।
सन् 1734 नारायण दीक्षित पाटणकर का वाराणसी आगमन; उन्होंने यहां कई घाट बनवाए।
सन् 1737 महाराजा जयसिंह नें मानमन्दिर वेधशाला का निर्माण कराया।
सन् 1740 बलवन्त सिंह के पिता श्री मनसाराम का देहावसान हो गया।
सन् 1741-42 गंगापुर में तत्कालीन काशीराज द्वारा दुर्ग का निर्माण कराया गया।
सन् 1737 सवाई जयसिंह द्वारा मानमंदिर- वेधशाला की स्थापना।
सन् 1747 महाराज बलवन्त सिंह ने चन्देल वंशी राजा को पराजित कर विजयगढ़ पर अधिकार किया।
सन् 1752 काशीराज बलवंत सिंह द्वारा रामनगर किले का निर्माण।
सन् 1754 महाराज बलवन्त सिंह ने पलिता दुर्ग पर विजय पाया।
सन् 1755 बंगाल, नागौर राज्य की रानी भवानी के द्वारा पंचक्रोशी स्थित कर्दमेश्वर महादेव के सरोवर का निर्माण हुआ।
सन् 1756 रानी भवानी ने भीमचण्डी के सरोवर का निर्माण करवाया।
सन् 1770 21 अगस्त का महाराज बलवन्त सिंह का स्वर्गवास हुआ।
सन् 1770 से 1781 तक काशी पर महाराज चेतसिंह का शासन था।
सन् 1777 महारानी अहिल्याबाई ने विश्वनाथ मंदिर का नवनिर्माण कराया।
सन् 1781 16 अगस्त को काशी में शिवाला घाट पर अंग्रेजी सेना से राजा चेतसिंह के सिपाहियों का संघर्ष हुआ। यह विद्रोह राजभक्त नागरिकों द्वारा मारे गये। 19 अगस्त, 1781 को काशी की देश भक्त जनता की क्रांति से भयभीत होकर वारेन हेस्टिंग्स जनाने वेश में नौका द्वारा चुनार भाग गया। दिसम्बर, सन् 1781 से 1794 तक काशी राज्य पर महाराज महीप नारायण का राज्य था।
सन् 1785 काशी में महारानी अहिल्या बाई द्वारा विश्वनाथ मन्दिर का निर्माण हुआ। सन् 1787-1795 जोनाथन डंकन बनारस के रेजिडेंट।
सन ~ 1787 काशी में प्रथम बार भूमि का बन्दोबस्त मिस्टर डंकन साहब के द्वारा हुआ जो डंकन बन्दोबस्त के नाम से जाना जाता है।
सन् 1814 बनारस में लार्ड हेस्टिंग्स का आगमन और दरबार।
सन् 1822 जेम्स प्रिंसेप ने बनारस का सर्वेक्षण किया।सन् 1825 बाजीराव पेशवा द्वितीय ने कालभैरव मन्दिर का निर्माण कराया।
सन् 1828 ज्ञानवापी के खंडित सरोवर की रक्षा हेतु ग्वालियर की रानी बैजबाई ने एक कूप बनवाया।
सन् 1828-29 जेम्स प्रिंसेप द्वारा बनारस की जनगणना; कुल आबादी-1,80,000
सन् 1839 पंजाब के महाराजा रणजीत सिंह के द्वारा काशी विश्वनाथ मन्दिर के कलश पर स्वर्ण-पत्र-चढ़ाया
अब बात करते हैं औरंगजेब के काशी विध्वंस की।
मुगल सम्राट औरंगजेब ने 9 अप्रैल 1669, को बनारस के "काशी विश्वनाथ मंदिर" तोड़ने का आदेश जारी किया था...जिसका पालन कर अगस्त 1669, को काशी विश्वनाथ मंदिर को तोड़कर ज्ञानवापी मस्जिद का निर्माण किया गया था...उस आदेश की कॉपी आज भी एशियाटिक लाइब्रेरी, कोलकाता में सुरक्षित रखी हुयी है
अपने बाप को कैद करने और प्यास से तड़पाने वाले आतातयी तथा धर्माध मुग़ल शासक औरंगजेब ने हिन्दुओं के श्रध्दा और आस्था के केंद्र बनारस सहित प्रमुख तीर्थ स्थलों के मंदिरों को अपने शासन काल में तोड़ने और हिन्दुओं को मानसिक रूप से पराजित करने के हरसंभव प्रयास किये.....औरंगजेब के गद्दी पर आते ही लोभ और बल प्रयोग द्वारा धर्मान्तरण ने भीषण रूप धारण किया था अप्रैल 1669 में चार हिन्दू कानूनगो बरखास्त किये गये...जिन्हे मुसलमान हो जाने पर वापिस ले लिया गया .
औरंगजेब की घोषित नीति थी 'कानूनगो बशर्ते इस्लाम' अर्थात् मुसलमान बनने पर कानूनगोई.
अविमुक्तेश्वर का स्थान विश्वेश्वर ने किस प्रकार लिया
यह कहा जा चुका है कि मुगलों के आधिपत्य के पूर्व वाराणसी का प्रधान शिवायतन अविमुक्तेश्वर का था। यह भी हम कह चुके हैं कि शास्त्रीय दृष्टि से मध्यम कोटि का शिवायतन होते हुए भी तत्कालीन जनजीवन में लौकिक उल्लास तथा सांसारिक सुख-सामग्री से सुसज्जित होने के कारण विश्वेश्वर के मन्दिर को सर्वोच्च स्थान प्राप्त था और वहाँ सदैव ही मेला लगा रहता था। धर्मप्राण लोग तो अविमुक्तेश्वर की आराधना
करते थे, परन्तु सांसारिक वृत्तिवाले लोगों का विश्वेश्वर-मन्दिर की ओर विशेष झुकाव था।
इसी कारण विश्वेश्वर का वैभव भी कदाचित् अधिक था और देश-विदेश में विश्वेश्वर अथवा विश्वनाथ की ही ख्याति अधिक थी, जिसका प्रमाण कश्मीर में लिखी हुई 'कुट्टनीमतम' से मिलता है और फिर गुजरात के सेठ वस्तुपाल द्वारा विश्वेश्वर की पूजा के लिए एक लाख रुपये भेजने से भी इसकी परिपुष्टि होती है। कर्णाटक के राजा द्वारा एक ग्राम की आय के दान का उल्लेख भी ऊपर किया ही जा चुका है। यह परिस्थिति सैकड़ों वर्षों से चल रही थी।
सन् ११९४ ई० में टूटे हुए मन्दिरों का जब फिर से निर्माण हुआ, तब विश्वेश्वर-मन्दिर के स्थान पर मस्जिद बन जाने के कारण उनका नया मन्दिर अविमुक्तेश्वर के प्रांगण में बना। धार्मिक प्राधान्य अभी अविमुक्तेश्वर का ही रहा, परन्तु सांसारिक महत्त्व के कारण सम्भवतः विश्वेश्वर का मन्दिर अधिक प्रशस्त और बड़ा बना, यद्यपि स्थानसंकोच तथा धर्मप्राण लोगों के डर से इस मन्दिर में पुरानी वैभवशाली -व्यवस्था नहीं हुई।
मुगल शासकों का भी डर था ही कि यदि मन्दिर में पुरानी परम्परा से रागरंग तथा महोत्सव हों, तो पुनः कोई संकट न आ जाय।
इस प्रकार, आसपास बने हुए ये दोनों मन्दिर प्रायः सत्तर वर्षों तक साथ-साथ दर्शनार्थियों को सन्तोष देते रहे।
इसके बाद वाराणसी के मन्दिर फिर तोड़े गये और ये दोनों मन्दिर भी एक साथ ही धराशायी हुए।
यह स्थिति भी कुछ वर्षों तक बनी रही और जब पुनः मन्दिरों के बनने का समय आया, तब लोकप्रसिद्ध विश्वेश्वर का मन्दिर तो पूर्ववत् विशाल बना, परन्तु अविमुक्तेश्वर का मन्दिर उत्तर की ओर हटकर छोटा हो गया।
इस प्रकार, अविमुक्तेश्वर के प्राचीन मन्दिर के
स्थान पर विश्वेश्वर का नवीन मन्दिर बन गया और विश्वेश्वर का ही धार्मिक प्राधान्य भी स्थापित हो गया, यद्यपि अविमुक्तेश्वर का सम्मान कम नहीं हुआ। वे विश्वनाथजी के गुरु कहे जाने लगे, जिनकी गद्दी पर विश्वनाथजो आसीन हो चुके थे।
पुराणकारों ने कहा :
अविमुक्ते महाक्षेत्र विश्वेशसमधिष्ठिते।
यैर्न दृष्टं विमूढास्तेऽविमुक्तलिङ्गमुत्तमम् ॥ (का० खं०, ३९६३)
अर्चन्ति विश्वे विश्वेशं विश्वेशोऽर्चति विश्वकृत् ।
अविमुक्तेश्वरं लिङ्ग भुक्तिमुक्तिप्रदायकम् ॥ (का० ख०, ३६७७)
और, धर्मप्राण लोगों ने भी इस परिस्थिति को स्वीकार कर लिया। काशीखण्ड में इसी पुनर्निर्मित वाराणसी का वर्णन है, जो चौदहवीं शताब्दी के मध्यकाल में स्थापित हुई।
फिरोज तुगलक के राज्यकाल (सन् १३५१-१३८८ ई०) में बनारस में मन्दिरों के साज-सामान
से बहुत-सी मस्जिदें बनीं, परन्तु पुराने टूटे हुए मन्दिरों की सामग्री के अतिरिक्त मन्दिर, फिर टूटे या नहीं, यह नहीं कहा जा सकता। इसके बाद जौनपुर के शरकी बादशाहों ने ईसवी-सन् १४३६ से १४५८ के बीच फिर वाराणसी के मन्दिर तोड़े और उनके और उनके साज-सामान से जौनपुर की प्रधान मस्जिदें बनाई गई, जिनमें से वहाँ के लालदरवाजे की मस्जिद में
एक लेख लिखा हुआ पत्थर अब भी दीख पड़ता है। इस बारम्बार की तोड़फोड़ तथा धार्मिक त्रास के परिणामस्वरूप वाराणसी का जनमानस अविमुक्तेश्वर के स्वतन्त्र अस्तित्व के स्थान पर विश्वनाथ को अविमुक्तेश्वर स्वीकार कर चुका था जिनका का ही नाम विश्वेश्वर है।
सन् १४६० ई० में मिथिला के धुरन्धर विद्वान् वाचस्पतिमिश्र ने अपने 'तीर्थचिन्तामणि' नामक ग्रन्थ में लिखा कि अविमुक्तेश्वर ही विश्वनाथ नाम से प्रसिद्ध है :
अविमुक्तश्मशानोभयसंज्ञके क्षेत्रे शिवस्थापितं अविमुक्तेश्वरं लिङ्गं विश्वनाथनाम्ना
लोकप्रसिद्धम्। (तीर्थचिन्तामणि, पृ० ३६०)
इस प्रकार, प्रायः १५० वर्षों तक यही विश्वास चलता रहा। यद्यपि इसी बीच सन् १४९४ ई० में सिकन्दर लोदी ने एक बार फिर बनारस के सभी मन्दिरों को ध्वस्त
किया, जिससे ये दोनों निकटवर्ती मन्दिर भी धराशायी हुए और अविमुक्तेश्वर का पृथक् प्रतीक भी लुप्त हो गया।
सन् १५८० ई० के आसपास लिखी गई 'त्रिस्थलीसेतु' नामक पुस्तक भट्टनारायण ने भी (जिनके आग्रह से राजा टोडरमल ने सन् १५८५ ई० के आसपास विश्वनाथ-मन्दिर का निर्माण करवाया ) यही कहा कि अविमुक्तेश्वर ही विश्वेश्वर है :अविमुक्तो विश्वेश्वरः। (त्रि० से०, पृ० २६६)
कगुरु कह जान लग, जिनका गद्दा
अविमुक्ते महाक्षेत्रे विश्वेशसमधिष्ठिते।
यन दृष्टं विमूढास्तेऽविमुक्तलिङ्गमुत्तमम् ॥ (का० खं०, ३९६३)
अर्चन्ति विश्वे विश्वेश विश्वेशोऽर्चति विश्वकृत् ।
अविमुक्तेश्वरं लिङ्ग भुक्तिमुक्तिप्रदायकम् ॥ (का० ख०, ३६७७)
यद्यपि उसी पुस्तक में अन्यत्र उन्होंने अविमुक्तेश्वर का माहात्म्य विश्वेश्वर से पृथक् भी दिया है। परन्तु, सन् १६२० ई० में महाराज वीरसिंह के आश्रय से लिखे गये वीर-मित्रोदय नामक ग्रन्थ के तीर्थप्रकाशखण्ड में मित्र मिश्र ने इस मत का खण्डन किया और
अपने मत की पुष्टि में दो प्रमाण दिये (वी० मि०, पृ० १८७) ।
एक तो यह कि पद्मपुराण,
काशीखण्ड तथा ब्रह्मवैवर्तपुराण सभी में इन दोनों शिवलिंगों के माहात्म्य तथा यात्रा का पृथक्-पृथक् वर्णन है और दूसरा यही कि काशीखण्ड में विश्वेश्वर द्वारा अविमुक्तेश्वर के पूजन का उल्लेख मिलता है
अर्चन्ति विश्वे विश्वेशं इत्यादि -का० खण्ड, ३९।७७ ।
तभी से इन दोनों शिवलिंगों का पार्थक्य फिर से स्वीकृत हुआ और उनकी पूजा-अर्चना अलग-अलग होने लगी।
कालान्तर में औरंगजेब की आज्ञा से काशी के प्रमुख मन्दिर पुनः तोड़े गये। इस सम्बन्ध में औरंगजेब ने सन् १६६९ की १८वीं अप्रैल को अपने सूबेदार के
नाम फरमान जारी किया कि वे अपनी इच्छा से काफिरों के तमाम मन्दिर और पाठ-शालाएँ गिरा दें और २ सितम्बर, १६६९ ई० में बादशाह को अपने सूबेदार से सूचना मिली कि उनके आज्ञानुसार उनके अमलों ने विश्वनाथ का मन्दिर गिरा दिया।
इसके बाद उस मन्दिर के स्थान पर ज्ञानवापीवाली मस्जिद बनी, जिसमें मन्दिर के पश्चिमी भाग का
कुछ अंश हिन्दुओं को नीचा दिखाने के लिए पूर्ववत् बना रहने दिया गया, जैसा आज भी देखा जा सकता है।
उस समय समीपस्थ अविमुक्तेश्वर का मन्दिर भी गिराया गया। कुछ ही वर्षों बाद विश्वेश्वर की स्थापना उनके वर्तमान स्थान पर हुई और अविमुक्तेश्वर की
उनके गिरे हुए मन्दिर से कुछ ही दूर पर, जहाँ धर्मशाले की खिड़की से उनके दर्शन अब भी होते हैं। आगे चलकर जब सन् १७८० ई० में इन्दौर की महारानी अहल्याबाई ने
विश्वेश्वर का मन्दिर बनवाया, तब उसके आग्नेय कोण के एक छोटे मन्दिर में अविमुक्तेश्वर की स्थापना भी करवाई। इस प्रकार, वर्तमान काल में अविमुक्तेश्वर नाम के दो शिवलिंग हैं, जिनकी पूजा-अर्चा होती है।
विश्वेश्वर-मन्दिर का स्वरूप
अविमुक्तेश्वर के पहले मन्दिर का क्या स्वरूप था, इस विषय में कोई सामग्री प्राप्त नहीं है; चौदहवीं शताब्दी के विश्वनाथ-मन्दिर का वर्णन काशीखण्ड
में बड़े विस्तार के साथ मिलता है और कई बार टूटने के बाद भी उसका वह स्वरूप टोडरमल के बनवाये हुए मन्दिर में बना रहा। इस आधार पर यह अनुमान होता है कि सम्भवतः अविमुक्तेश्वर के पहले मन्दिर की भी वही रूपरेखा रही होगी।।
काशीखण्ड के अनुसार विश्वनाथ मंदिर में पाँच
मण्डप थे, जिनमें से मुख्य मण्डप ही गर्भगृह था, जहाँ विश्वेश्वर का शिवलिंग विराजमान था।
उसके चारों दिशाओं में चार मण्डप थे—दक्षिण की ओर मुक्तिमण्डप, पश्चिम में शृंगार-मण्डप, उत्तर में ऐश्वर्यमण्डप तथा पूर्व में ज्ञानमण्डप। शृंगारमण्डप का नाम रंगमण्डप भी था।
मन्दिर का मुख्य द्वार पश्चिम दिशा में था ।
गर्भगृह में प्रणाम करने का शास्त्रीय निषेध होने के कारण प्रणाम मुक्तिमण्डप में ही किया जाता था और विश्वेश्वर को पन्द्रह बार प्रणाम करने का विधान था। मुक्तिमण्डप
में बैठकर स्तुति, प्रार्थना, प्रणाम इत्यादि करने का बड़ा फल माना जाता था।
मुक्ति-मण्डप में विष्णु भगवान् की मूर्ति थी, जिसको मुक्तिमण्डप का स्वामित्व प्राप्त था :
मुक्तिमण्डपिकायास्तु स्वामी विष्णुर्न चापरः (ब्र०वै० पु०, का० र०, पृ० १२६) ।
निःश्रेयस्याश्रियो धाम तद्याम्यां मण्डपोऽस्ति में ।
तत्राहं सततं तिष्ठे तत्सदो मण्डप
निमेषार्धप्रमाणं च कालं तिष्ठति निश्चलः ।
तत्र यस्तेन वै योगः समभ्यस्तः समाःशतम् ॥
तत्रच सञ्जपन्नेकां सञ्जपन्नेकां लभेत्सर्वश्रुतेः फलम् ।
प्राणायामं तु यः कुर्यादप्येकं मुक्तिमण्डपे।
तेनाष्टाङ्गः समभ्यस्तो योगोऽन्यत्रायुतं समाः ॥
वायुभक्षणतोऽन्यत्र यत्पुण्यं शरदां शतम् ।
तत्पुण्यं घटिकान मौनं दक्षिणमण्डपे॥
मितं कृष्णालकेनापि यो दद्यान्मुक्तिमण्डपे।
स्वर्ण सौवर्णयानेन स तु सञ्चरते दिवि ॥
दत्वा महादानं तत्र कृत्वा महद्वतम् ।
तत्राधीत्याखिलं वेदं च्यवते न नरो दिवः॥
(का० ख०, ७६।५४-६६),
शृंगारमण्डप में शृंगारगौरी प्रतिष्ठित थीं। वहाँ भगवान् विश्वनाथ के निमित्त जो कुछ भी अर्पण किया जाता था, उसके प्रभाव से लक्ष्मी-प्राप्ति होती। द्वार पर द्वारविनायक थे और वायव्य कोण के छोटे मन्दिर में कालभैरव का पूजन होता था :
तत्प्रासावपुरोभागे मम शृङ्गारमण्डपः।
श्रीपीठ तद्धि विज्ञयं निःश्रीकश्रीसमर्पणम् ॥
मदथं तत्र यो दद्यावुकूलानि शुचीन्यहो ।
माल्यानि सुविचित्राणि यक्षकर्दमवन्ति च ॥
नानानेपथ्यवस्तूनि पूजोपकरणान्यपि।
सश्रियालङकृतस्तिष्ठेद्यत्र कुत्रापि सत्तमः ॥ (का० ख०, ७९७०-७२)
ऐश्वर्यमण्डप में अर्चन, पूजन, ध्यान, प्रार्थना इत्यादि करने से ऐश्वर्य मिलता था:
मोक्षलक्ष्मीविलासाख्य प्रासादस्योत्तरे
ऐश्वर्यमण्डपं रम्यं तत्रैश्वर्यं वदाम्यहम् ॥ (का० ख०, ७६७३)
ज्ञान-मण्डप में बैठ कर जो भगवान् का ध्यान-स्तवन करता था, उसको ज्ञान की प्राप्ति होती थी:
मत्प्रासादैन्द्र दिग्भागे ज्ञानमण्डपमस्ति
यत्।
ज्ञानं दिशामि सततं तत्र मां ध्यायतां सताम् ॥ (का०ख०,७९७४)
विश्वेश्वर-मन्दिर के कलश अथवा पताका के दर्शन का भी बड़ा फल माना जाता है :
मोक्षलक्ष्मीविलासाख्यप्रासादस्य विलोकनात् ।
शरीरादूरतो याति ब्रह्महत्यापि नान्यथा ॥
मोक्षलक्ष्मीविलासस्य कलशो यनिरीक्षितः ।
निधानकलशास्तांस्तु न मुञ्चन्ति पदे पदे ॥
दूरतोऽपि पताकापि मम प्रासादमूर्धगा।
नेत्रातिथीकृता यैस्तु नित्यन्तेऽतिथयो मम ॥ (का०ख०, ७६।४७-४६)
विश्वनाथ-मन्दिर का यह स्वरूप स्थापत्य के प्रमाण से भी ठीक निकलता है। सिकन्दर लोदी द्वारा ध्वंस होने के बाद जब उसका पुनर्निर्माण राजा टोडरमल ने करवाया, उस समय भी उसका यही स्वरूप था और उस पुनर्निर्माण में भी वही रूपरेखा बनी रही,
यद्यपि मन्दिर की कुरसी प्रायः सात फीट ऊँची कर दी गई। वर्तमान मस्जिद के पूर्व की ओर जो चबूतरा या मैदान है, उसके नीचे पत्थर के खम्भों पर टिकी हुई छत अब भी
बनी है। यह भाग उस पुराने मन्दिर का पूर्वीय मण्डप, अर्थात् ज्ञानमण्डप है।
डॉ० अलतेकर तथा 'काशी का इतिहास' के लेखक ने इसको पुराना रंगमण्डप कहा है, जो ठीक नहीं है ।
काशीखण्ड में रंगमण्डप शृंगारमण्डप को ही बतलाया गया है। वहाँ कहा गया है कि मुक्ति-
मण्डप से उठकर भगवान् सदाशिव पार्वती, ब्रह्मा, विष्णु तथा अन्य देवताओं के साथ रंगमण्डप को गये। इसके बाद अगस्त्य मुनि से पूछा कि मुक्तिमण्डप से जाने पर देवदेव ने
क्या किया? इसके उत्तर में स्कन्द ने कहा कि मुक्तिमण्डप से ब्रह्मा और विष्णु के साथ शृंगार-मण्डप में पहुँचने पर भगवान् ने क्या किया, यह हम बतलाते हैं।
इससे स्पष्ट है कि शृंगारमण्डप का ही नाम रंगमण्डप भी था :
उत्थाय देवदेवेशः सह देव्या सुमङ्गलः।
ब्रह्मणा हरिणा सार्द्ध ततोऽगाद्रङ्गमण्डपम् ॥ (का० ख०, ६८६४-६५)
अगस्त्य उवाच:
सेनानीः कथय त्वम्म ततो निर्वाणमण्डपात् ।
निर्गत्य देवो देवेन्द्रः सहितः किं चकार ह ॥
स्कन्द उवाच:
मुक्तिमण्डपतः शम्भुर्ब्रह्मविष्णुपुरोगमः ।
शृङ्गारमण्डपं प्राप्य यश्चकार वदामि तत् ॥ (का०ख०, ६६।२-३)
सम्भवतः, पन्द्रहवीं शताब्दी का विश्वनाथ-मन्दिर राजा टोडरमल के मन्दिर से कुछ बड़ा था और उसका धरातल ज्ञानवापी-मण्डप के समान स्तर पर था। उसका जो अंश बच रहा है, वह दो भागों में है। एक बाहरी भाग, जो १८ फीट चौड़ा है और दूसरा १५ फीट चौड़ा भीतरी भाग, जो मिट्टी से पाट दिया गया है,
वह सम्भवतः ज्ञानमण्डप का भाग था और जो १८ फीट का भाग बच रहा है, वह प्रदक्षिणापथ था। जो कुछ भी हो, टोडरमल के बनवाये हुए मन्दिर के विषय में प्रिंसेप ने बड़े परिश्रम से कुछ निष्कर्ष निकाले, जिनको उन्होंने अपनी पुस्तक 'View of Benares' में प्रकाशित किया था। इसके अनुसार, “विश्वनाथ-मन्दिर १२४ फीट भुजा के वर्गाकार
क्षेत्र पर बना था। इसमें पाँच मण्डप थे, जिनमें बीच का मण्डप गर्भगृह था।
वह ३२ फीट लम्बा-चौड़ा था। इसके चारों ओर १६ फीट लम्बे और १० फीट चौड़े बरोठे थे,
जिनके मिल जाने से गर्भगृह का क्षेत्रफल प्रायः दूना हो जाता था। इन बरोठों के बाहर चारों दिशाओं में चार छोटे मण्डप थे, जिनका मध्य भाग १६ फीट लम्बा-चौड़ा था; परन्तु अपने चारों ओर के बरोठों के मिल जाने से उनका क्षेत्रफल भी प्रायः दूना हो जाता था।
इस प्रकार, कोने-से-कोना मिलाते हुए पाँचों मण्डप थे।”
इन पाँचों मण्डपों अति-रिक्त मन्दिर के बाहर एक अन्य मण्डप की कल्पना का कोई पौराणिक आधार नहीं है।
इन पाँच मण्डपों की कोणाकार परिस्थिति के कारण उनके चारों ओर चार कोने बच रहते थे, जिनमें चार छोटे मन्दिर बने हुए थे, जो भीतर-भीतर १२ फीट लम्बे-चौड़े थे।
मन्दिर की दीवारों की ऊँचाई ३० फीट के लगभग थी। इस आधार पर डॉ० अलतेकर का अनुमान है कि मुख्य शिखर १२८ फीट ऊँचा रहा होगा तथा मण्डपों के शिखर ६४ फीट, तथा कोने के मन्दिरों के शिखर ४८ फीट ऊँचे रहे होंगे।
इस प्रकार नौ शिखरोंवाला यह मन्दिर अत्यन्त सुन्दर तथा नेत्रग्राही था, इसमें सन्देह नहीं। इस समय
मन्दिर का गर्भगृह, मुक्तिमण्डप तथा ऐश्वर्यमण्डप मस्जिद के मुख्य भवनों के रूप में वर्तमान है।
अन्य अंश तोड़कर या तो गिरा दिये गये या उनका रूपान्तर हो गया।
दूसरी जनश्रुति यह है कि जब राजा टोडरमल के द्वारा विश्वनाथ-मन्दिर बन चुका और उसमें शिवलिंग की स्थापना तथा प्रतिष्ठा हो चुकी, उस समय तत्सम्बन्धी पूजन के अन्तिम चरण में दैववशात् भट्टनारायण, जिनके आग्रह से मन्दिर बना था और जो स्थापनोत्सव के मुख्य आचार्य थे, कहीं इधर-उधर चले गये और उनकी अनुपस्थिति में उनके सहायक आचार्यवृन्द ने सामान्य परिपाटी के अनुसार 'शतं जीवेम शरदः' का शान्तिपाठ आरम्भ कर दिया। इस मन्त्र की ध्वनि जब भट्टनारायण के कानों में दूर से पड़ी, तो वे अपना सिर पीटते हुए दौड़कर आये और कहा कि यह क्या अनर्थ हो गया?
इस मन्दिर के लिए केवल सौ वर्षों के ही आयुष्य की कामना हुई। सम्भवतः, यह फिर सौ वर्षों में टूटेगा।
सन् १६६९ ई० में औरंगजेब द्वारा मन्दिर तोड़े जाने पर उनकी यह आशंका सत्य हुई।
इसके बाद प्रायः तुरन्त ही औरंगजेब ने विश्वनाथ-मन्दिर के स्थान पर मस्जिद बनाने की आज्ञा जारी की और उस मस्जिद में विश्वनाथ-मन्दिर के गर्भगृह को ही मस्जिद का मुख्य कक्ष बनाने की योजना हुई। परिणामतः, पश्चिम के दोनों छोटे मन्दिर तथा शृंगारमण्डप तोड़ दिये गये और गर्भगृह का मुख्य द्वार जो पश्चिम की ओर था, चुन दिया गया ।
ऐश्वर्यमण्डप तथा मुक्तिमण्डप के पश्चिमी द्वार बन्द कर दिये गये और मन्दिर का वह भाग मस्जिद की पश्चिमी दीवार बन गया, जिसको हिन्दुओं को आतंकित करने तथा चिढ़ाने के उद्देश्य से बाहर की ओर उसी टूटी-फूटी स्थिति में छोड़ दिया गया,
यहाँ तक कि मन्दिर के तोड़ने के समय का मलवा भी वहीं पास में पड़ा रहने दिया गया।
मन्दिर की ये दीवारें आज भी वैसी ही हैं और इनको देखकर हिन्दू- समाज का मन आज भी दुःखी होता है। मस्जिद के पूर्व की दालान ज्ञानमण्डप तथा उसके उत्तर-दक्षिण के छोटे मन्दिरों को तोड़कर बनाई गई और उसके सामने का मैदान पन्द्रहवीं शताब्दी के मन्दिर के ज्ञानमण्डप तथा प्रदक्षिणा-पथ को पाट कर बना।
इस पटे हुए भाग का दक्षिण का आधा अंश भी हिन्दुओं के अधिकार में है।
जिस प्रकार सौराष्ट्र में सोमनाथ का मन्दिर बार-बार ध्वस्त होने पर भी फिर-फिर उठ खड़ा होता था, ठीक वैसे ही औरंगजेब की आज्ञा से तोड़े जाने के दस वर्षों के भीतर
ही विश्वनाथ की पुनः स्थापना हो गई, परन्तु जैसा पहले रजिया की मस्जिद के कारण हुआ था, वैसे ही एक बार फिर उनको अपने पुराने स्थान को छोड़कर नये स्थान पर जाना पड़ा।
यह स्थान भी अविमुक्तेश्वर के पुराने प्रांगण का ही दक्षिणी भाग था, जहाँ टूटे हुए मन्दिरों के ध्वंसावशेष पड़े थे। कुछ छोटे-मोटे शिवलिंग भी यत्र-तत्र उन मलवों में दब जाने से बच रहे थे। यहीं पर एक कोने में विश्वेश्वर की स्थापना हुई।
इस बात का प्रमाण इस बात से मिलता है कि सन् १६७२ ई० में रीवा-नरेश महाराज भावसिंह काशी आये थे और उसके चार वर्षों के बाद सन् १६७६ ई० में उदयपुर के महाराणा जगतसिंह तथा बीकानेर-नरेश के पुत्र सुजावनसिंह वाराणसी-यात्रा पर आये थे और उन्होंने
विश्वेश्वर के नये शिवायतन के सन्निकट शिवलिंगों की स्थापना की थी, जो आज भी विश्वनाथ-मन्दिर के गर्भगृह के द्वार के दोनों ओर वर्तमान हैं। उनकी इस यात्रा का उल्लेख उनके तीर्थपुरोहितों की बहियों में मिलता है। इस प्रकार, प्रायः सौ वर्षों तक विश्वनाथ का शिवलिंग अत्यन्त संकुचित रूप में ही पूजा जाता रहा।
सन् १७८० ई० में इन्दौर की महारानी अहल्याबाई ने वर्तमान मन्दिर का निर्माण करवाया। उनके तत्सम्बन्धी
लेख में मन्दिर बनवाने की ही बात कही गई है, विश्वेश्वर की स्थापना करने का उल्लेख नहीं है। इससे भी ऊपर के मत की पुष्टि होती है। वहाँ लिखा है कि मन्दिर का निर्माण भाद्रपद कृ० ८, संवत् १८३४ (शके १६९९) को पूरा हुआ।
यत्कारित द्विजसुरात्तसपर्ययानया श्रीभारतप्रमुखसंश्रवणाचित्तया।
विश्वेश्वरस्य रमणीयतरं सुमन्दिरं श्री पञ्चमण्डपयुतं सदृशं च वेश्म ॥
इस मन्दिर में भी पाँच मण्डप बनाने का प्रयत्न किया गया है; परन्तु विश्वनाथ के एक कोने में होने के कारण पूर्व दिशा में मण्डप नहीं बन पाया।
यह भी इस बात का प्रमाण है
कि विश्वनाथ की स्थापना मन्दिर निर्माण के समय नहीं हुई। कालान्तर में महाराज रणजीत सिंह ने विश्वनाथ-मन्दिर के शिखरों पर सोने का पत्तर चढ़वाया, जो आज भी वर्तमान है।
सन् १७८५ ई० में ईस्ट इण्डिया कम्पनी के आधिपत्य में भारत के प्रथम गवर्नर जेनरल वारेन हेस्टिंग्ज की आज्ञा से बनारस के तत्कालीन अधिकारी नवाब अली इब्राहीम
खाँ ने विश्वनाथ-मन्दिर के सिंहद्वार के सामने नौबतखाना बनवाया, जिसपर यह लेख है :
यह नौबतखाना विश्वेश्वर का नवाब अजीजुल्मुल्क अली इब्राहीमखाँ ने संवत् १८४२ में नवाब इमादुद्दौला गवर्नर जनरल अमीरुल्मुल्क वारेन हेस्टिंग्ज जलादतजंग के
फर्मान से बनवाया।
वाराणसी पर मुस्लिम शासक कुतुब-उद-दीन ऐबक का शासन था, जिन्होंने वर्ष 1194 में हजारों मंदिरों और धार्मिक स्मारकों को नष्ट कर दिया था। हजारों साल बाद, अफगान आक्रमण के बाद, 13 वीं शताब्दी में कुछ नए मंदिरों की स्थापना की गई थी। कुछ अन्य पुराने मंदिरों को भी वर्ष 1496 में शासकों द्वारा नष्ट कर दिया गया था।
ऐसी कठिनाइयों का सामना करने के बाद भी, वाराणसी ने धर्म और शिक्षा के सांस्कृतिक केंद्र के रूप में अपना सम्मान बनाए रखा है।
वाराणसी का नेतृत्व कबीर दास, रविदास जैसे सबसे लोकप्रिय व्यक्तित्वों ने किया है जो 15 वीं शताब्दी की भक्ति के श्रेष्ठ संत और कवि थे। गुरु नानक देव (सिख धर्म के संस्थापक) ने वर्ष 1507 में धार्मिक उत्सव शिवरात्रि में वाराणसी का दौरा किया था। 16 वीं शताब्दी के आसपास मुगल सम्राट अकबर के समय में वाराणसी के सांस्कृतिक महत्व में काफी सुधार हुआ था। भगवान शिव और विष्णु के कुछ नए मंदिरों का निर्माण अकबर ने करवाया था। देवी अन्नपूर्णा के मंदिरों में से एक पूना के राजा द्वारा बनाया गया था।
11 अगस्त, 1936 को दीन मुहम्मद, मुहम्मद हुसैन और मुहम्मद जकारिया ने स्टेट इन काउन्सिल में प्रतिवाद संख्या-62 दाखिल किया और दावा किया कि सम्पूर्ण परिसर वक्फ की सम्पत्ति है।
Civil Suit 62 of 1936 में किया की जो सेटलमेंट प्लाट -9130 को (वास्तविक काशी विश्वनाथ का पूरा एरिया Revenue Record में 9130 के नाम से जाना जाता है. ) वक्फ प्रॉपर्टी declare किया जाये और उन्हें नमाज पढ़ने का पूरा अधिकार दे दिया जाये। दूसरा पक्ष इस केस में ब्रिटिश सरकार थी , ब्रिटिश सरकार ने लिखित रूप में कोर्ट में हलफनामा दायर किया और
Paragraph -2 में यह लिखा की यह परिसर वक्फ प्रॉपर्टी नहीं है। (यहाँ आप को जान लेना चाहिए की किसी Valid मस्जिद होने के लिए कोई भी स्थान वक्फ संपत्ति होना चाहिए )
Paragraph -11 में लिखा है की यहाँ की मूर्तिया मुगलकाल के पहले से यहाँ है।
Paragraph -12 इस सम्पत्ति का मालिक औरंगजेब नहीं था। और इस्लामिक law के मुताबिक यह अल्लाह को Dedicate नहीं किया जा सकता। दावेदारों की ओर से सात, ब्रिटिश सरकार की ओर से 15 गवाह पेश हुए थे। सब जज बनारस ने 15 अगस्त 1937 को मस्जिद के अलावा ज्ञानवापी परिसर में नमाज पढऩे का अधिकार नामंजूर कर दिया था। दीन मोहम्मद इससे खुश नहीं हुए और फिर उन्होंने हाई कोर्ट में Suit दायर किया जिसका Appeal No -466 of 1937 जिसका फैसला आया 1942 SCC OnLine Allahabad/ Page No. 56 के Paragraph-5 में ये HOLD किया है की यहाँ मंदिर तोड़ी गई है। और Paragraph-16 में HOLD किया है की यह वक्फ सम्पति नहीं है.और नमाज पढ़ लेने से किसी स्थान पर आप का उस पर हक़ नहीं हो जाता।
लम्बी गवाहियों एवं ऐतिहासिक प्रमाणों व शास्त्रों के आधार पर यह दावा गलत पाया गया और 24 अगस्त 1937 को वाद खारिज कर दिया गया। इसके खिलाफ इलाहाबाद उच्च न्यायालय में अपील संख्या 466 दायर की गई लेकिन 1942 में उच्च न्यायालय ने इस अपील को भी खारिज कर दिया। हिंदू पक्ष की तरफ से यह केस व्यास श्रृषि के वशंज पंडित केदारनाथ व्यास और उनके पूर्वज पंडित सोमनाथ व्यास ने लड़ा परिणामतः ज्ञानवापी मुक्तिमंडप, यानी मस्जिद के तहखाना और वहां स्थित मंदिर ब्रिटिश सरकार द्वारा व्यासपीठ की संपत्ति घोषित की गयी जिसकी वजह से हम आज भी ज्ञानवापी का एएसआई सर्वे हो रहा है। (काशी के कलमकार अजय शर्मा की कलम से)
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