तस्वीर में जैसा दिख रहा हूं, मैं इससे भी कहीं ज्यादा खुश था कि जम्मू-कश्मीर में काम करने का मौका मिला है। यहां आया तो हवा साफ, बिजली सबसे सस्ती, खाने में राजमा चावल के अलावा कुछ मिलता नहीं, अब ऐसे में सबसे बड़ा संकट था कि कितने दिन राजमा चावल खाएं। फिर इसी के साथ अकेले व्यक्ति की गृहस्थी जुड़ना शुरू हुई। गैस सिलिंडर से लेकर चूल्हा, कूकर एवं अन्य जरूरी सामान खरीदा गया। कुछ बर्तन तो मां ने भिजवा दिए थे, जिसमें कढ़ाई, चकला-बेलन, मेरी पसंदीदा थाली और मेरा चम्मच, आदि...। राशन महीने भर का बिग बाजार से आ जाता था। फिर क्या खुद बनाना और खुद खाना यही चलता रहा। शुरुआत से ही मैं Chandra Prakash सर के साथ रहा। सर को तो चाय भी बनानी नहीं आती थी। मगर सच बताएं सर की लगन क्या गजब है। उन्होंने वीडियो कॉल पर मैम से सब कुछ बनाना सीखा। महीने भर में सर और हम पूरी तरह से बावर्ची बन चुके थे। फिर क्या राजमा चावल से पीछा छूटा, अब हम दाल, चावल, रोटी, सब्ज़ी, मैग्गी, मैक्रोनी, मशरूम, पनीर आदि व्यंजन खाया करते हैं। (नवभारत टाइम्स नईदिल्ली के वरिष्ठ पत्रकार प्रांजल दीक्षित की कलम से)
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