स्कूल में मिलने वाला मिड डे मील हमेशा दलिया ही होता था। अक्सर मैं सोचा करता था कि हमें दलिया ही क्यों देते हैं? ढेर भर के आइटम्स छोड़ छाड़ के सिर्फ दलिया ही क्यों परोस देते हैं? खैर, वक्त बीतता गया और दलिया हमारे रोज के खानपान से दूर होता गया थोड़ी पढ़ाई लिखाई किये और फिर जंगलों की तरफ रुख किया। आदिवासियों के साथ रहने लगा और देखते ही देखते मेरे खानपान में दलिया एक बार फिर लौट आया और जब दलिया से जुड़ी जानकारियां गाँव देहात के जानकारों से मिलने लगी तो समझ आया कि दलिया तो जन्नत है। शुक्रिया है उन पॉलिसी मेकर्स का जिन्होंने मिड डे मील में दलिया इनकॉरपोरेट करवाया होगा
दलिया बेहद पौष्टिक आहार है। 100 ग्राम दलिया खा लेंगे तो दिन भर के लिए आवश्यक फाइबर्स का 75% हिस्सा आपको मिल जाएगा। मैग्नेशियम भी खूब होता है इसमें जो हार्ट के लिए जरूरी है। इसमें आयरन और विटामिन B6 भी अच्छा खासा मिल जाता है। हड्डियों को मजबूत बनाने के लिए भी दलिया हमारे शरीर में ताबड़तोड़ मेहनत करता है। इतने सारे गुण है इस दलिये में तो फिर हमारी रसोई से क्यों नदारद है ये? मुझे याद आ रही है एक घटना, उस वक्त मेरी उम्र करीबन 16 साल रही होगी। क्रिकेट खेलने का चस्का लग चुका था। मेरे दोस्त के पिताजी बड़े सरकारी ओहदे पर थे, सरकारी बंगला मिला हुआ था उन्हेँ, घर में एकाध दो नौकर चाकर भी थे। अक्सर उनके घर पर मैं और मेरे कुछ दोस्त क्रिकेट खेला करते थे। एक दिन उनके कुक ने दलिया परोसकर हमें खाने के लिए बुलाया। मैं दलिया पाते ही खुश हो गया, स्कूल वाला मिड डे मील याद आ रहा था। दोस्त के पिताजी ने हमें दलिया खाते हुए देख नौकर को अच्छी खासी फटकार लगा दी, 'ये भी कोई चीज है जो बच्चों को दे रहे हो? कोई ढंग की चीज बना लेते'...मैं बड़ा एन्जॉय कर रहा था दलिया को लेकिन प्लेट हाथों से ले ली गयी और हमें नूडल्स खाने के लिए दिया गया। बस ऐसे ही सत्यानाश हुआ होगा हमारे पारंपरिक भोज दलिया का। नूडल्स ने निगल लिया दलिया..
आदिवासी तबकों में अलग-अलग प्रकार के दलिया बनते हैं। कहीं दरदरे गेंहू का दलिया, कहीं चावल या किनकी का दलिया और कहीं कुटकी का दलिया। दक्षिण गुजरात में आदिवासी नागली (रागी) का दलिया भी बनाते हैं। औषधीय गुणों की खान होता है दलिया लेकिन भागती दौड़ती ज़िंदगी में हम शहरी लोग इस कदर भागे कि देहाती खानपान को तुच्छ समझने लगे। हम गबदू और आलसखोर हो गए और जल्दबाज़ी के चक्कर में फास्टफूड की तरफ रीझने लगे। हमारा फ़ूड तो बेशक फास्ट हुआ लेकिन बॉडी का सिस्टम स्लो हो गया। हम बीमार होने लगे, शारीरिक और मानसिक रूप से। यहाँ मानसिक बीमार इसलिए कह रहा हूँ क्योंकि कुछ खानपान को हमने निम्नस्तर का या गरीबों का खानपान मान लिया, बस वहीं गलती हो गई।
सन 1990 के बाद से हिंदुस्तान में लाइफ स्टाइल डिसऑर्डर्स की भरमार होने लगी। डायबिटीज, आर्थराइटिस, कैंसर, हार्ट डिसीसेस, मोटापा और तरह तरह के टीमटाम वाले रोग हर परिवार में पैर पसारने लगे, क्यों? बताइये क्यों? आज भी ग्रामीण तबकों में ये सब समस्याएं काफी कम हैं या ना के बराबर हैं, क्यों? बताइये क्यों? क्योंकि ये लोग आज भी पारंपरिक खानपान को अपनाए हुए हैं। इनका गरीब होना या भीड़भाड़ और भागते दौड़ते वाले समाज से दूरी होना, इनके लिए 'ब्लेसिंग इन डिस्गाइज़' है। अगर हमारे गांव देहात लाइफ स्टाइल डिसऑर्डर्स से काफी हद तक दूर हैं, उनके जीवन में तनाव कम है और उनके नसीब में पिज़्ज़ा, बर्गर, चाउमीन और अट्टरम सट्टरम चीजें नहीं हैं, तो ये उनके विकसित होने का प्रमाण है, फिर हम लोग लाख कहते रहें कि वो देहाती हैं, आदिवासी हैं या गरीब हैं लेकिन सच्चाई ये है कि वे हमसे लाख गुना बेहतर हैं.. गाँव देहातों में आज भी दलिया और दलिया जैसे कई पौष्टिक व्यंजन अक्सर बनते हैं, इन्हें बड़े शौक से खाया जाता है। बाज़ारवाद ने दलिया को ओट मील बना दिया और आपकी पॉकेट ढीली करवा दी। आप घर में ही दलिया तैयार करें या पता कीजिये आसपास में आटा चक्की कहाँ है, और दलिया बनवा लाइये। अब ये ना पूछना कि आटा चक्की क्या होती है? दलिया बनता कैसे है? इतना भी तेज ना भागो कि लौटने की गुंजाइश खत्म हो जाए...अपने घर परिवार के बुजुर्गों से पूछिये, सब समझा देंगे, गूगल के दादा परदादी सब आपके घर में ही हैं, उनसे बात कीजिये, सीखिये, इसी बहाने उनका मान भी बढ़ेगा और उन्हें अच्छा लगेगा। भागती दौड़ती लाइफ में हम दलिया तो भूल ही चुके हैं, बुजुर्गों से संवाद भी तो नदारद है पता नहीं किधर भागे जा रही है दुनिया, वापसी करो उस पगडंडी की तरफ जो आपको फार्मेसी और अस्पताल नहीं, अच्छी सेहत की ओर पहुंचाए। भटको, सारे चक्कर एक तरफ फेंक मारो...#दलिया खाना शुरू करें, कम से कम दस दिन में एक बार ही सही
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