किला कालिंजर
विश्व फोटोग्राफी दिवस पर मैंने चित्रकूट होते ही कालिंजर के साहसिक रोमांचकारी और अनुभव युक्त यात्रा मोटरसाइकिल से थी यानी बुलेट से पूरी की । आइए मैं यात्रा की कुछ महत्वपूर्ण हिस्सों की जानकारी आपसे साझा करता हूं।
लगभग 1200 फूट फूट ऊंची पहाड़ी पर साढ़े 6 किलोमीटर के दायरे में फैला कालिंजर का किला भारत के चर्चित अजेय किलो में से एक है। मध्यकालीन भारत के इतिहास को बदलने में इसकी महत्वपूर्ण भूमिका रही उसकी ख्याति से आकर्षित होकर 1545 में शेरशाह सूरी ने इस पर आक्रमण किया था 1 साल तक घेराबंदी के बाद वह किले को जीत न सका। अंत में किले पर आक्रमण कर दिया बहुत गले दागे। जिससे कि मजबूत प्राचीरें क्षतिग्रस्त हो गईं और सेना किले में दाखिल हुई। शेरशाह सूरी को विजय मिली लेकिन यह विजय उसे अपनी जान देकर मिली क्योंकि एक गोला मजबूत प्राचीर से टकराकर उसके पास गिरा और फट जाए जिससे वह पूरी तरह झुलस गया बाद में मौत हो गई।
निर्माण शैली और व्यवस्था : इतनी ऊंची पहाड़ी पर बने किले में सात बड़े-बड़े तालाब को देखकर आश्चर्य होता है। प्रचंड गर्मी में भी इसमें पानी भरा रहता है। पहाड़ी पर बनाई गई ऊंची प्राचीरें हैरान करती हैं। इसके अनेक महल अंनगढ़ पत्थरों से बनाए गए हैं।अर्थात पत्थरों को तराशा नहीं गया। मैंने मगध यानी बिहार के राजगृह में भी इसी प्रकार के निर्माण देखा है। सीढ़ियां ऊंची ऊंची और सकरी ।ओरछा के महलों की तरह। महल के अंदर बड़े-बड़े आंगन। इनके शिल्प चंदेल शैली को समझने के लिए पर्याप्त हैं।
निर्माण: विंध्य पर्वत श्रृंखला पर बन बना यह किला दसवीं शताब्दी का बताया जाता है। जिसे चंदेलों ने बनाया था। कुछ इसे सातवीं शताब्दी का बताते हैं तो कुछ चौथी पांचवी का।
रहस्यमयी और तिलिस्म : इसके वास्तुशिल्प या इमारत के बारे में विस्तृत चर्चा नहीं करूंगा मैं उन बिंदुओं पर चर्चा करूंगा जिनमें से कुछ को मैंने देखा है। जिन पर चर्चा बहुत कम की गई है और जिनकी वजह से यह किला रहस्यमयी और तिलस्मी है। वहां जाने के लिए मुझे बहुत श्रम करना पड़ा। या यूं कहें कि मुझ जैसे लोगों का वहां तक जाना बहुत आसान नहीं था। कहीं ढाल तो कहीं चढ़ाई। चट्टानों के बीच कोई निश्चित रास्ता नहीं ।एक तरफ 100 फुट गहरी खाई तो दूसरी तरफ विषैले जंतुओं से युक्त बरसात की घनी झाड़ियां। ऑक्सीजन की कमी यानी उमस ज्यादा।
इस किले के नीचे एक तरफ नीचे नीलकंठ महादेव गुफा में विराजमान हैं। अद्भुत नीले रंग का शिवलिंग। कहते हैं समुद्र मंथन से निकले विष को पीने के बाद शिवजी को यही उनके ऊपर लगातार जल गिरने से आराम मिला था और वे यहीं रह गए।
शिवजी के काल को जीतने के कारण इसका नाम कालिंजर पड़ा। विषपान से नीले हुए कंठ के कारण शिवजी नीलकंठ हुए। यहां दर्शन करने के लिए दूर-दूर से लोग आते हैं। गुफा में नीलकंठ महादेव के पास ही कार्तिकेय जी और पर्वती जी की मूर्ति है । निश्चित रूप से यह किसी तपस्वी का स्थल लगता है।
पहाड़ी पर किले के नीचे इस हिस्से में अनेक देवी देवताओं की चट्टानों पर पर उकेरी गई मूर्तियां चकित करती हैं। गुफाओं में क्रमबद्ध बनी इन मूर्तियों का आकलन करने और गुफाओं का रहस्य जानने की चेष्टा नहीं के बराबर हुई है। यह किले का एक महत्वपूर्ण हिस्सा है जिसे देखना एक सुखद आश्चर्य है। (लेखक अनिरूद्ध पाण्डेय अमर उजाला वाराणसी के वरिष्ठ छायाकार हैं)
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