बाबा नागार्जुन को याद करते हुये
वह शायद 1974 का साल रहा होगा . एक दिन कथाकार आलोचक स्वर्गीय ह्रिषिकेश के कार्यालय पहुचा तो एक औघड़ व्यक्तित्व के दर्शन हुये . वह बाबा नागार्जुन थे .उस दौर मे मैं कहानियां लिखता था जो पत्र पत्रिकाओं में छपती भी रहती थीं लेकिन बाबा के सामने तो परिचय का मुंहताज था ही . ह्रिषिकेश जी ने मेरे बारे मे बताया तो बाबा ने स्नेहसिक्त नेत्रों से देखा .उस दृष्टिपात ने मेरी सारी असहजता हर ली. लगा ही नहीं कि किसी विभूति के सामने हूँ . न महान लेखकों वाली मुद्रा ,न स्नाबरी .
बाबा कुछ दिन पहले ही सोवियत रूस की यात्रा से लौटे थे . उस यात्रा के अनेक दिलचस्प किस्से उस दिन उनके मुंह से सुनने को मिले . ...उस यात्रा में बाबा के साथ स्व शिवमंगल सिंह सुमन भी थे . बाबा ने बताया कि एक दिन सुमन जी को निकलने में देर हुयी तो वह उनके कमरे तक गये .कमरा अन्दर से बन्द था . दस्तक का जवाब न मिला तो बाबा ने उत्सुकतावश की होल से आँख लगाकर देखा . सुमन जी छोटी सी मूर्ती के सामने बैठे पूजा कर रहे थे !
हम लोगों ने कहा ,"बाबा आपने सुमन जी की खिंचाई नहीं की ?"
बाबा ने ठहाका लगाया ,"मैने कहा सुमन इस संशोधनवादी जल (उनका आशय वोडका से था )के दो घूंट हलक से नीचे उतारो तभी तुम्हारी शुद्धि होगी ."
बाबा ने बताया कि सुमन जी को वहां तान्या नाम की एक दुभाषिया मिली थी. वह सुमन जी को इतना भा गयी कि उसके अलावा कोई और दुभाषिया मिलता तो रुष्ट हो जाते .बाबा ने उन्हें समझाया कि सुमन तुम एक विश्वविद्यालय के रेक्टर हो ,अपनी प्रतिष्ठा को तो ध्यान में रखो . ( बाद में जब मोहन राकेश रूस गये तो उन्हें भी दुभाषिया के रूप में तान्या ही मिली थी .राकेश जी ने अपनी किताब 'बकलम खुद ' में तान्या प्रकरण का ज़िक्र किया है )
बाबा ने हम लोगों को आगाह किया कि कभी रूस जाना तो बीमार न पड़ना . कुछ तकलीफ हो जाये तो भूलकर भी उसका किसी से ज़िक्र ना करना .
हम लोगों ने पूछा क्यों तो बाबा ने बताया कि तुम्हे जुकाम भी होगा तो रूसी अस्पताल में भरती कर लेंगे और पुरे शरीर की जांच करेंगे .फिर सब कुछ दुरुस्त कर लेंगे तभी बाहर आने देंगे .बाबा बोले ,"यशपाल मोतियाबिन्द का आपरेशन कराने गये थे मगर रूसियों ने निर्लिप्त भाव से पपीते की तरह उनका फोता चीर डाला ." एक बार फिर बाबा का ठहाका ...हम लोग भी लोट पोट .
और भी कुछ किस्से बाबा ने सुनाये फिर मेरे कंधे पर हाथ रखा और बोले ,"मुझे कामतानाथ के यहां ले चलो ."
उन दिनो कामंतानाथ वहीं पास में आर बी आई परिसर में रहते थे .माल रोड पर चलते हुये बाबा ने अपनी टोपी आड़ी कर सिर पर पहन ली.
मैने कहा, "बाबा टोपी सीधी तो कर लीजिये .कोई देखेगा तो क्या कहेगा ?"
मेरा कथन तो नादानी भरा था परंतु बाबा ने मुझसे जो सवाल किया उसके मानी बहुत गहरे थे ,"क्यों संविधान में यह कहां लिखा है कि मैं आड़ी टोपी नहीं लगा सकता ?"
नागरिक की व्यक्तिगत स्वतन्त्रता को लेकर किया गया बाबा का वह सवाल उस दिन भले ही चुहल भरा लगा था किंतु प्रासंगिक तो आज भी है .(कानपुर के वरिष्ठ पत्रकार सुशील शुक्ला की कलम से)
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