#सैरसपाटा:महाराष्ट्र10
एलोरा से आगे बढ़े तो एक स्थान पर चालक ने ऑटो रोक दिया । उसने उस रमणीय स्थल को पिकनिक स्पॉट बताया। वहां नदी अथवा सरोवर जो भी कह लें, उसके सामने एक छोटा सा मैदान था ।
जगह अच्छी थी। फोटोग्राफी के लिए भी यह स्थान उत्तम लगा । नीचे बहता हुआ पानी, कुछ दूरी पर पहाड़ और दूर-दूर तक दिखने वाली सिर्फ हरियाली । पर्यटक के नाम पर मेरे जैसे कुछ ही लोग वहां थे।
यहां मनोरंजन के कुछ साधन भी थे, लेकिन जिसने मेरा ध्यान आकर्षित किया, वह फटाफट स्टंट करने वाला घोड़ा और उस पर सवार की फोटो खींचने को तत्पर कैमरामैन । दोनों व्यवसायों के मध्य में अद्भुत तालमेल । सवार के जोखिम लेने की क्षमता के अनुसार ही घोड़ा तरह-तरह के करतब दिखाता , जबकि प्रशिक्षण देने वाला उसका पालक पास में ही खड़ा रहता था। घोड़े के एक्शन के साथ ही फोटोग्राफ लेने का सिलसिला चलता। जितना ज्यादा फोटो उतना ज्यादा पैसे छायाकार को मिलते ।
घोड़े वाला यह करतब मुझे पसंद आया । मैंने भी कुछ संकोच के साथ घुड़सवारी की , लेकिन गिर जाने का डर बना रहा। और गिरने का मतलब शरीर को कुछ ना कुछ क्षति पहुंचना अवश्यंभावी था।
घोड़े की अचानक हुई कलाकारी को कैमरामैन भी कैच नहीं कर सका । इस स्थान की मोबाइल से कुछ मनोहर तस्वीरें खींची और ऑटो में आकर बैठ गया । इतिहास प्रसिद्ध दौलताबाद किला देखने के पूर्व भद्र मारुति मंदिर देखने पहुंचे ।
यह मंदिर औरंगाबाद के खुलताबाद इलाके में स्थित है । यहां पर हनुमान जी की मूर्ति शयन अथवा समाधि की मुद्रा में है ।
हनुमान जी की ऐसी ही प्रतिमा प्रयागराज में भी मैंने देखी है। घृष्णेश्वर मंदिर के बाद यहां दर्शन करना चाहिए , ऐसी मान्यता भी है ।भद्र मारुति मंदिर को भद्रावती नाम से भी जाना जाता है। इस क्षेत्र में कोई राजा भद्रसेन नामक हुए थे। हनुमान जी के परम भक्त इस राजा ने ही मंदिर का निर्माण कराया था । एक कथा यह भी बताती है कि लक्ष्मण जी के लिए संजीवनी बूटी लेकर लंका लौटते समय हनुमान जी ने यहां पर विश्राम किया था ।
यहां पर जो माला हमने चढ़ाने के लिए खरीदी, वह किसी पेड़ के पत्ते की लग रही थी । सोचा शायद ऐसी माला चढ़ाने की यहां परंपरा होगी। मंदिर में घूम फिर कर दर्शन किया। इन दिनों यहां कुछ निर्माण भी चल रहा है, जिसके पूर्ण हो जाने पर मंदिर और भव्य हो जाने की संभावना है ।
यहां से आगे बढ़े तो औरंगजेब का मकबरा भी रास्ते में दिखा। ऑटो चालक ने रोका तो नहीं लेकिन बाद में मुझे लगा थोड़ा वक्त वहां दिया जा सकता था । उत्सुकता मुझे इसलिए भी थी क्योंकि औरंगजेब कलात्मक इमारतों का प्रेमी नहीं था, परंतु उसके मकबरे में कलात्मकता कैसी थी , यह जरूर जानना चाहता था।
औरंगाबाद के दौलताबाद किले का बड़ा ऐतिहासिक महत्व है । सामरिक दृष्टि से तमाम शासकों ने इसकी उपयोगिता का अनुभव किया था और यही वजह है कि इसे जीतने का उपक्रम अनेक बार किया गया ।
जब हम दुर्ग के सामने पहुंचे, तब बरसात होने लगी थी । कोई भी विकल्प न देखकर हम एक छोटे से रेस्तरां में घुस गए । यहां हमने ऑटो वाले के साथ ₹50 में डोसा खाया और चाय पी । मुझे यह उत्सुकता थी यह ₹50 का डोसा कैसा होता है ।जब सामने आया तो पेपर बड़ा समझ में आया , लेकिन अंदर मसाला थोड़ा सा था । कुल मिलाकर बस यह पेट में चला गया , लेकिन वह मजा नहीं आया । उधर बरसात कम होते ही ऑटो वाला हमें किले में जाने को प्रेरित करने लगा ।
यहां पर काफी युवा पिकनिक मनाने आए थे , जिसमें कुछ दोस्तों के साथ थे और कुछ प्रेमी युगल जैसे भी दिख रहे थे । मेरे जैसे उत्सुक पर्यटक कम ही थे । किला विशाल था और ऊपर तक जाने के लिए काफी पैदल चलना अपेक्षित था ।
पुरातत्व विभाग द्वारा संरक्षित किले के अवलोकन के लिए मैंने दो टिकट खरीदे ।
लेकिन पत्नी दरवाजे से 100 मीटर तक ही अंदर गई और उसके बाद अवलोकन पर संतोष जाहिर करते हुए मुझे स्वत: घूमने के लिए स्वतंत्रत कर दिया । किले में प्रवेश करते वक्त मेरे पास पानी की बोतल थी । यह बोतल मैं अंदर न छोड़ दूं, इसलिए ₹50 अतिरिक्त जमा करा लिए गए । साफ - सफाई के मद्देनजर यह तरीका भी बुरा नहीं था । कोई भी सामान भीतर ले जाने की इजाजत नहीं थी।
दिल्ली के सुल्तान मोहम्मद बिन तुगलक से संबद्ध दिल्ली से दौलताबाद वाली कहानी मैंने इतिहास में पढ़ी थी , इसलिए दुर्ग को देखने का उत्साह मेरे लिए ज्यादा ही था ।
औरंगाबाद से 15 किमी दूर दौलताबाद किले का निर्माण 11वीं शताब्दी में देवगिरि के यादव राजाओं ने करवाया था । 200 मीटर ऊंची पर्वत श्रृंखला पर बना दुर्ग लगभग 94 हेक्टेयर भूमि पर फैला हुआ है। साथ ही 5 किमी की लंबी मजबूत दीवार से घिरा हुआ है और चतुर्दिक गहरी खाई भी
है । कहा जाता है कि इन खाइयों में शत्रुओं से बचाव के लिए मगरमच्छ रखे जाते थे ।
इस किले में एक ही प्रवेश द्वार है । दुर्ग के शिखर तक पहुंचने के लिए 750 सीढ़ियां चढ़ने पड़ती हैं। यहां से आसपास का नजारा मनोहर दिखता है । यद्यपि हम किले की आधी ऊंचाई तक ही पहुँच सके । इसकी दो वजहें थीं। पहली शायद हम कम समय में वहां नहीं पहुंच सकते थे। दूसरी यह कि अगर किसी प्रकार पहुंच भी गए तो वापस लौटते वक्त किले के बंद होने का समय हो जाएगा ।
लगातार घूमते रहने से थकान अपनी जगह थी ही । किले में देखने योग्य कई जगहें थीं, लेकिन दूर से ही नजर आने वाली चांद मीनार आगंतुकों के लिए खास आकर्षण है। यह मीनार 30 मीटर ऊंची है और कुतुबमीनार जैसी देखने में लगती है। इसे बहमनी शासक हसन गंगू ने 14वीं शताब्दी में बनवाया था ।
इस मीनार में 230 सीढियां हैं। हमें यह पता चला कि किसी कारणवश इसमें पर्यटकों का प्रवेश बंद कर दिया गया है । अब कोई रास्ता न देखकर हम बाहर से तस्वीरें खींचते हुए आगे बढ़ गए ।
एक दूसरी इमारत चीनी महल के नाम से जानी जाती है । औरंगजेब द्वारा बनवाई इस इमारत को कारागार के रूप में इस्तेमाल किया जाता था, ऐसा वहां मौजूद लोगों ने बताया । वैसे यह खंंडहर जैसा ही समझ में आता है।
किले की विशेषताओं के कारण तत्कालीन शासकों में इसे अपने अधिकार में रखने की चाहत खूब रही है । देवगिरि के यादव वंश के राजाओं ने इसका निर्माण ही नहीं कराया था , अपितु यह उनकी राजधानी भी थी । कालांतर में अनेक प्रयत्नों के बाद खिलजी वंश के अधीन किला हो गया ।
सुल्तान मोहम्मद बिन तुगलक की दिल्ली से दौलताबाद का प्रकरण एक मुहावरा जैसा हो गया है । सुल्तान ने अचानक अपनी राजधानी दिल्ली से देवगिरी स्थानांतरित कर दी । साथ ही उसका नामकरण दौलताबाद कर दिया।
कुछ समय बाद ही शायद पानी की वजह से और अन्य असुविधाओं के चलते उसने फिर से अपनी राजधानी दिल्ली बना ली । परंतु उसके इस असफल कदम के कारण उसे इतिहास में पागल सुल्तान तक की संज्ञा दी गई है।
किले ने और भी अपने स्वामी बदलते देखा । बहमनी शासक हसन गंगू ने किले पर आधिपत्य कर लिया था । मुगल शासक भी इसमें पीछे नहीं रहे । अकबर, शाहजहां जैसे शासकों का भी इस पर कब्जा रहा है । इसी क्रम में मराठों ने भी दुर्ग को अपने अधिकार में रखा ।
इसके बाद हैदराबाद के निजाम के अधीन किला हो गया । किले के बारे में अभी भी बहुत कुछ जानना बाकी रह गया है। स्वाभाविक रूप से कुछ लोगों को राजाओं की कहानी लंबी और उबाऊ लग सकती है ।
लेकिन इतिहास से अनुराग के चलते मैंने इसका जिक्र कर दिया है । अब तक शाम हो चली थी , इसलिए यहां से जल्द निकलना उचित लगा। औरंगाबाद शहर लौटते समय तेज बरसात भी हुई । ऑटो हमें वर्षा से बचा न सका । हमारी समस्या तब और बढ़ गई , जब इसी दौरान ऑटो खराब भी हो गया ।
जब तक चालक उसे ठीक करता , तब तक हम आराम से बौछार झेलते रहे । कपड़े भीग गए थे । जबकि हमारा ऑटो वाला गजब का उत्साहित था। वह हमें औरंगाबाद का सबसे बड़ा मॉल दिखाना चाहता था , लेकिन हम मानसिक तौर पर इसके लिए तैयार नहीं थे । आखिरकार उसने हमें होटल पर ले जाकर छोड़ दिया। (काशी के कलमकार आशुतोष पाण्डेय की कलम से)
क्रमश:.....
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