किसी पोस्ट पर देखा ,सोलो ट्रैवल वालो को,किसी धर्मशाला, या होटल में कमरा नही मिलता,कहते है,एक बन्दे को कमरा क्यो दें,
सबसे पहली बात जो अभी तक हमे भी समझ नही आई,सोलो ट्रेवलिंग किसे कहते है,
ज्यादातर लोग बड़ी बाइक पर तीन चार बैग समान के भरे हुए पेट्रोल टैंक की इलवा बीस तीस लीटर पेट्रोल, खाने पीने का बोरा भर समान साथ रखने वालों को सोलोट्रेवलर कहते है,वो सोलो ट्रेवलिंग नही प्लान ट्रैवलिंग है,कहाँ से चलना है,ट्रिप कहाँ तक है,किस होटल में रुकना है,ये सब एडवांस बुकिंग ले कर चलते है,उन्हें बाइक राइडर्स कहते है,वो लम्बी दूरी तक चलते है,
सोलोट्रेवलर के पास साधारण बाइक या साइकिल, या फिर पैदल घुमक्कडी, एक बैग में सीमत समान,जहाँ रात हुई,जगह देख कर रैन बसेरा,सुबह उठ कर फिर से अपने रास्ते,जो मिल गया पेट भरने के लिए खा लिया,सोलो हमेशा बजट में होता है,ऐसी ही एक पुरानी याद साँझ कर रहा हूं,
शायद 2001 की बात है,पहली बार पुराना वेस्पा स्कूटर लिया था,कुछ दिन चलाया ओर सोचा,चलो इसी से ऋषिकेश जा कर देखते है,मित्र लक्ष्मीनारायण गर्ग के साथ चल पड़े वेस्पा से, तीन दिन में हरिद्वार, ऋषिकेश, नीलकंठ महादेव,मंसूरी, देहरादून, घूमते हुए, हम पहुंचे श्री पौंटा साहब,घूमने के बाद निकल लिए,हथनी बांध से होते हुए लगभग 10 बजे यमुनानगर पहुँचेते नींद आने लगी,कोई धर्मशाला वाला हमें रखने को तैयार नही हुआ,आगे बढ़ते हुए सामने सरकारी अस्पताल दिखा, सनकी दिमाग ने अपना काम किया ,स्कूटर पार्किंग में खड़ा कर,जनरल वार्ड में जाकर खाली बेड देख दोनों आराम से चद्दर ओर कर लेट गए,सुबह 6बजे हल्ला गुल्ला सुन उठे और अपने घर की तरफ हो लिए,सुरक्षित व बजट बिना होटल में खर्च किये
(पंजाब के सीनियर जर्नलिस्ट लक्ष्मीकांत भारद्वाज की कलम से)
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