औरंगाबाद आने से पहले मुझे लगता था कि अजंता और एलोरा की गुफाएं आसपास ही होंगी, लेकिन यहां पता चला कि अजंता की गुफा तो नगर से करीब 100 किमी दूर है । जबकि एलोरा घृष्णेश्वर मंदिर से अधिक दूर नहीं है । इसलिए पहले एलोरा पहुंच गए। यह गुफाएं पहाड़ों में काफी दूर तक बनाई गई हैं। जिससे अनुमान लगाया कि यहां घूमने में आराम से दो-तीन घंटे तो लग ही जाएंगे।
यूनेस्को द्वारा घोषित इस विश्व धरोहर को देखने के लिए दो टिकट लेकर हम मुख्य प्रवेश द्वार से भीतर पहुंचे। पत्नी ने दूर तक फैली गुफाओं का विहंगावलोकन किया और इससे ज्यादा न देखने की इच्छा भी जता दी । कारण यह था कि इसके लिए अधिक पैदल चलना होता । तत्पश्चात वह मोबाइल की आभासी दुनिया में व्यस्त हो गई। इसके बाद मैंने इधर- उधर नजर डाली।
यहां मुझे पर्यटकों के दो प्रकार दिख रहे थे । एक वह जो पिकनिक जैसे मनाने के मूड में थे । सच पूछिए तो इन्हें इतिहास और पुरातत्व से कोई खास लेना-देना नहीं था । जबकि इससे इतर कुछ ऐसे लोग भी थे , जो गाइड पर रुपए खर्च करके भी एलोरा की कहानी विस्तारपूर्वक जानने के लिए उत्सुक थे।
मुझे भी खुद को इस श्रेणी में रखना उचित लगा। लेकिन गाइड की बजाय मैंने किताबी जानकारी पर भरोसा किया। एक और मिला- जुला वर्ग भी यहां पर दिख रहा था यूनिफार्म में स्कूली बच्चों का। उनके शिक्षक ही गाइड के रूप में थे । मुझे मजा यह आ रहा था कि बच्चे जहां पिकनिक मनाने के मूड में थे, वहीं शिक्षक उनके इतिहास की समझ बढ़ाने पर ज्यादा आमादा थे । समय अधिक लगने की संभावना को देखते हुए गुफाओं में घुसने से पहले पानी की बोतल खरीद ली ।
जहां तक एलोरा की गुफाओं के निर्माण काल का प्रश्न है , इनको पाँचवीं- छठीं शताब्दी से लेकर 11 वीं शताब्दी तक बनवाया जाता रहा ।
इन स्थापत्य शिल्पों के निर्माण में राष्ट्रकूट , चालुक्य और यादव वंश के राजाओं का नाम लिया जाता है। यानी कहा जा सकता है कि पत्थरों को काटकर उनको तराशने में मजदूरों की पीढ़ियां गुजर गई होंगी , तब जाकर राजाओं की कल्पनाओं को इस तरह मूर्त रूप दिया जा सका है।
एलोरा ऐसी जगह है , जहां विशाल शिलाखंडों को काटकर गुफाओं- मंदिरों का निर्माण कराया गया है । यहां की 34 गुफाओं में से 1- 12 तक बौद्ध गुफाएं, 13- 29 तक हिंदू गुफाएं और 30-34 तक जैन धर्म के विषयों का निरूपण करने वाली गुफाएं हैं। इससे एक बात तो आइने की तरह स्पष्ट हो जाती है कि भारत में धार्मिक सहिष्णुता सिद्धांत ही नहीं व्यावहारिक स्तर पर भी समादृत थी।
एलोरा की गुफाएं उसकी पुष्टि करती हैं । कहा जाता है कि भारत का सबसे बड़ा गुफा मंदिर एलोरा ही है । इनका विस्तार इतना है कि कुछ गुफाओं को दिखाने के लिए रोडवेज की बस भी चलती है । जिसके लिए ₹20 का टिकट लेना पड़ता है।
एलोरा के स्थापत्य कला का सर्वोत्तम उदाहरण यहां का प्रसिद्ध कैलाश मंदिर है । यह सोलहवें नंबर की गुफा में स्थित है । जिसे राष्ट्रकूट शासक कृष्ण प्रथम ने (757- 783 ) ईस्वी में बनवाया था । यह मंदिर चट्टानों को काटकर निर्मित किया गया है। अर्थात चट्टानों को इस तरह से काटा- छांटा गया कि वह मंदिर की शक्ल में आ गया।
इस मंदिर के स्थापत्य की विलक्षणता को समझने के लिए मैंने लगभग पंद्रह सौ साल पहले वाले समय की कल्पना कर ली । तब यहां केवल पहाड़ ही हुआ करते थे । जब तक हम ऐसी कल्पना नहीं करते , तब तक घूमने में वह मजा नहीं आ पाएगा और हम इसके महत्व को भी कमतर आंकेंगे।
कैलाश मंदिर तत्कालीन स्थापत्य कला का अद्भुत आश्चर्य है। सचमुच कितना धैर्य रहा होगा उन राजाओं में जिन्होंने अपने कारीगरों को पर्याप्त समय दिया होगा। कारीगरों ने भी अपने स्वामियों - नरेशों की कल्पना को जी- जान लगाकर मूर्त रूप दिया गया होगा । छेनी हथौड़ी का जरा सा भी गलत इस्तेमाल उनके काम में किंतु-परंतु लगाने के लिए पर्याप्त था।
निर्माण के दौरान अगर काम का परिणाम देखने का उतावलापन होता , तो यह वास्तु सौंदर्य हम लोगों को देखने को नहीं मिलता । छोटी-छोटी बातों पर इतना ध्यान दिया गया कि इतिहास प्रेमी व पुरातत्वविद दाँतों तले उंगली दबाने को मजबूर हो जाते हैं। तत्कालीन भारतीय अभियांत्रिकी की कल्पनाशीलता और सृजनात्मकता का यह बेमिसाल उदाहरण है। आज बहुत से चित्र और मूर्तियां धुंधली या अस्पष्ट सी हो गई हैं , लेकिन जरा कल्पना करके तो देखिए कि जब यहां का निर्माण कार्य पूर्ण हो गया होगा, तब उस समय पत्थरों में उभरा सौंदर्य किस तरह दिखता होगा।
कैलाश मंदिर अपने वास्तुशिल्प के कारण पर्यटकों में काफी लोकप्रिय है । द्रविड़ शैली में बना यह मंदिर 300 फीट लंबा और 200 फीट चौड़ा है । इसकी ऊंचाई 95 फीट बताई जाती है। गर्भगृह में पर्याप्त बड़ा शिवलिंग स्थापित है । प्रवेश करने पर दिन में भी अंधेरा जैसा रहता है । हालांकि एक लाइट जरूर जलती रहती है। यहां पर पूजा नहीं होती , इसलिए पुजारी और माला- फूल के कारोबार का भी कोई प्रश्न ही नहीं उठता । शिवलिंग के सामने एक अलग मंडप में नंदी विराजमान हैं।
मंदिर के दोनों तरफ 50 फीट ऊंचा ध्वज स्तंभ है । दो मंजिलें मंदिर के पास हाथियों की विशाल मूर्तियां आकर्षित करती हैं। कहते हैं कि पहाड़ को काटकर कैलाश मंदिर बनाने में 7 हजार मजदूरों को डेढ़ सौ साल लग गए थे । कैलाश मंदिर वैसे तो शिव जी को समर्पित है , लेकिन यहां के भित्ति चित्रों पर अनेक देवी-देवताओं की आकृतियां हैं। जिनमें गंगावतरण, रावण द्वारा कैलाश पर्वत को उठाने के चित्र उल्लेखनीय हैं ।
इस कैलाश मंदिर की प्रशंसा राष्ट्रकूट वंश के राजाओं का एक अभिलेख बड़े ही सुंदर ढंग से करता है - अपने रथों में सवार देवगण आकाश में विचरण कर रहे थे कि वे इस मंदिर को देखकर विस्मय विमुग्ध हो गए और उन्होंने कहा कि यह स्वयमेव निर्मित हो गया होगा । मनुष्यों ने इसे नहीं बनाया होगा। पर्सी ब्राउन जैसे इतिहासकार इसे विश्व में सबसे विलक्षण नमूना मानते हैं।
इसके अलावा बौद्ध गुफाओं में सबसे प्रसिद्ध विश्वकर्मा की गुफा दस नंबर है। जबकि जैन धर्म से जुड़ी गुफाओं में दिगंबर संप्रदाय का प्रभाव है। यादव वंश के राजाओं ने इनका निर्माण करवाया था।
एलोरा पर बहुत कुछ लिखा जा सकता है लेकिन यह काफी विस्तृत हो जाएगा और एक अन्य बात भी है कि इस ऐतिहासिक विषय पर लिखने की अर्हता अपने आप में नहीं पाता । हां इतना जरूर कहना पड़ेगा कि एलोरा का स्थापत्य लोगों को अचंभित करने वाला है।
एक दिलचस्प बात यह भी उल्लेखनीय है कि समय बीतने के साथ- साथ धीरे - धीरे एलोरा की गुफाएं आम जनता की नजरों से दूर हो गई थीं। इसलिए इनको पहली बार 1819 ईस्वी में खोजा गया था, जब ब्रिटिश अधिकारी जान स्मिथ इधर शिकार के लिए निकले थे और अनजाने में ही उन्हें इन गुफाओं का पता चल गया।
यहां घूमने में मुझे आनंद खूब आ रहा था। अलग-अलग स्थानों पर जाकर खूब सारी तस्वीरें लीं। देखना और भी था इसलिए मन तो इस जगह को छोड़ना नहीं चाह रहा था , लेकिन बाहर पत्नी इंतजार कर रही थी । अस्तु पत्थरों की दुनियां को छोड़ कर आगे बढ़ना पड़ा । वैसे एलोरा बहुत दिनों तक मेरी स्मृतियों में जीवंत बना रहेगा। (काशी के कलमकार आशुतोष पाण्डेय की कलम से)
क्रमशः.....
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