राजेंद्र यादव की मौजूदगी का मतलब
2005 का दौर था। मौका था हंस की वार्षिक गोष्ठी का। उस साल को प्रेमचंद की 125वीं जयंती के रूप में भी मनाया जा रहा था। विषय था ‘प्रेमचंद और भूमि समस्या’ और वेन्यू था दिल्ली में दीनदयाल उपाध्याय पथ पर स्थित राजेंद्र सभागार। हंस के संपादक राजेंद्र यादव अपनी कार से उतरे। सीढ़ियों पर चढ़ते वक्त उनकी छड़ी हाथ से छूट गई। एक सज्जन उसे उठाने के लिए लपके तो राजेंद्र यादव ने उन्हें मना कर दिया और खुद झुककर अपनी छड़ी उठाई। गोष्ठी बढ़िया जमी जिसमें नामवर सिंह भी थे। बाद में उसी गोष्ठी के दौरान एक लेखिका ने कहा कि नामवर सिंह यूं तो किसान की तरह दिखते हैं लेकिन उनका किसानी से कोई लेना-देना नहीं है। बाद में इसे उसी साल लमही में मनाए गए प्रेमचंद जन्मोत्सव से जोड़ा गया जहां नामवर सिंह और राजेंद्र यादव दोनों मौजूद थे।
उसके बाद से यह सालाना आयोजन बाल भवन के पीछे ऐवाने गालिब में होने लगा और यह सिलसिला आज तक जारी है। उसके करीब पांच साल बाद 2009 में युवाओं पर केंद्रित सब्जेक्ट पर हंस का व्याख्यान हो रहा था। राजेंद्र यादव पर शारीरिक अस्वस्थता हावी हो रही थी, बाद में यह गोष्ठी भी लड़खड़ा गई। नामवर सिंह ने उसे हाईजैक कर लिया था। उन्होंने युवाओं को लौंडा कहते हुए कहा कि राजेंद्र इन लौंडों से सावधान रहो, ये तुम्हारे हाथ काट लेंगे। उसके कुछ दिनों बाद 4 अगस्त को साहित्य अकादमी में आचार्य रामचंद्र शुक्ल की 125वीं जयंती पर कार्यक्रम हो रहा था। उसमें मैनेजर पांडे ने इस घटना का जिक्र करते हुए कहा था कि समझ में नहीं आता है कि आलोचना में भाषा का स्तर आचार्य रामचंद्र शुक्ल के जमान के मुकाबले ऊपर गया है, नीचे गया है या वही पर है।
इसके बाद एक बार राजेंद्र यादव का हाथ पकड़कर मंच तक लाया गया।
फिर आया 2013। एक बार फिर 31 जुलाई को सभी लोग ऐवाने गालिब में जुटे। लेकिन यह क्या, राजेंद्र यादव को वील चेयर पर मंच तक लाया गया। हर बार मंच पर बैठकर सिगार पीने वाले राजेंद्र यादव शायद उस बार इलायची चबा रहे थे। संभवत: ‘अभिव्यक्ति और स्वतंत्रता’ विषय पर गोष्ठी हुई थी। उसी साल अक्टूबर में अभिव्यक्ति की आजादी का यह मुखर पहरुआ देह के बंधन से स्वतंत्र हो गया।
राजेंद्र यादव जब तक गोष्ठी में मौजूद थे, तब वक्ता भले ही विषय से इधर-उधर भटक जाते थे लेकिन एक उम्मीद रहती थी कि वे बाद में विषय पर कुछ सारगर्भित बोलेंगे। और वे बोलते भी थे। हिम्मती इतने कि उसी मंच पर धुर वाम और धुर दक्षिण के वक्ताओं को एक साथ बैठाते थे। गोविंदाचार्य, आईपीएस अधिकारी विभूति नारायण राय और संघ से जुड़े लोग भी वक्ताओं में शामिल होते थे।
अब 2018 में क्या हुआ। ‘लोकतंत्र की नैतिकता और नैतिकताओं का लोकतंत्र’ सब्जेक्ट पर बहस हो रही थी। उसमें एक वक्ता का व्याख्यान जाति के इर्द-गिर्द घूमता रहा तो दूसरे का सुप्रीम कोर्ट में विचरता रहा। एक ने व्याख्यान के नाम पर फैज साहब का नगमा पढ़ दिया चौथे सज्जन विचारों के बजाय शब्दजाल में उलझे रहे। बात नैतिकता की हो रही थी और किसी के अंदर यह नैतिक साहस नहीं था कि कुछ दिनों पहले दिवंगत हुए नीरज को भी श्रद्धांजलि दे दी जाए। पहले राजेंद्र यादव व्याख्यान समाप्त करने से पहले अपने दफ्तर के दो सहायकों किशन कुमार और दुर्गा प्रसाद के साथ ही ऐवाने गालिब के केयरटेकर का विशेष तौर पर शुक्रिया अदा करते थे, पता नहीं अब नैतिकता की यह रवायत जिंदा है या नहीं? (नवभारत टाइम्स नईदिल्ली के वरिष्ठ कलमकार नवीनकृष्णा की कलम से साभार)
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