औरंगाबाद से लगभग 35- 40 किमी दूर स्थित घृष्णेश्वर अथवा घुश्मेश्वर ज्योतिर्लिंग की स्थापना के पीछे एक रोचक कथा का वर्णन मिलता है । परम भक्त सुधर्मा नामक एक ब्राह्मण की दो पत्नियां थीं सुदेहा और घुष्मा। यह दोनों सगी बहनें थीं।
घुष्मा बड़ी शिवभक्त थी । वह प्रतिदिन भक्तिपूर्वक पार्थिव शिवलिंग बनाकर उसकी उपासना करती और सरोवर में विसर्जित कर देती थी। सुदेहा के कोई संतान नहीं थी, जबकि कुछ काल के पश्चात घुष्मा को एक पुत्र रत्न की प्राप्ति हुई। कथा को संक्षिप्त करने के लिए बस इतना जानना पर्याप्त होगा कि समय बीतने के साथ ही सुदेहा घुष्मा के बालक से द्वेष रखने लगी । बालक के युवावस्था प्राप्त करने पर उसका विवाह भी हो गया। उधर ऩिःसंतान सुदेहा की ईर्ष्या निरंतर बढ़ती ही चली गई । एक दिन अवसर पाकर उसने घुष्मा के बेटे की हत्या कर दी ।
दूसरी तरफ भगवान शिव ने घुष्मा की उपासना - भक्ति से प्रसन्न होकर उसके पुत्र को पुनर्जीवित कर दिया । यही नहीं घुष्मा के आग्रह पर शिव ने सुदेहा को क्षमा भी कर दिया और भक्तों के कल्याण के लिए इस स्थान पर स्थायी रूप से विराजने को तैयार हो गए । तब से ही शिव को यहां घृष्णेश्वर अथवा घुश्मेश्वर नाम से पहचाना जाने लगा ।
घृष्णेश्वर को देश के 12 ज्योतिर्लिंगों में सबसे छोटा और अंतिम भी माना जाता है । यहां के बाद श्रद्धालुओं को नेपाल में काठमांडू स्थित पशुपतिनाथ मंदिर जाने की सलाह दी जाती है ।
उपलब्ध जानकारी के अनुसार 13वीं - 14वीं शताब्दी में दिल्ली सल्तनत के सुल्तानों द्वारा इस मंदिर की मूल संरचना को नष्ट कर दिया गया था । जिसका जीर्णोद्धार छत्रपति शिवाजी के दादा मालोजीराजे भोसले ने 16वीं शताब्दी में करवाया था । लेकिन मंदिर का वर्तमान स्वरूप इंदौर की रानी अहिल्याबाई होल्कर की देन है । यह रानी देश में कई स्थलों पर मंदिरों के जीर्णोद्धार या निर्माण के लिए इतिहास में प्रसिद्ध है । जिनमें वाराणसी स्थित काशी विश्वनाथ मंदिर भी उल्लेखनीय है।
जब हम मंदिर में पहुंचे तो हमारा मोबाइल सहित अन्य सामान भी बाहर रखवा लिया गया । पूजन सामग्री आदि लेकर मंदिर परिसर में प्रवेश किया तो मंदिर की स्थापत्य कला ने प्रभावित किया। भीतर विष्णु के अवतारों और शिव से जुड़ी कथाओं का सुंदर अंकन किया गया है । शिवालय के गर्भगृह में उतरने के लिए कुछ सीढ़ियाँ बनाई गई हैं।
जो श्रद्धालु शिवलिंग को ठीक से न भी देख पाए , वह भी ऊपर लगे शीशे में प्रतिबिंब को देख सकता है। यह व्यवस्था अच्छी लगी। गर्भगृह में जाने से पूर्व हमें ऊपर के कपड़े निकालने को कहा गया। जबकि मुझे इस प्रकार का अनुभव पहली बार हो रहा था।
फिर क्या था । हमने बेल्ट समेत ऊपर के परिधान निकाल कर हाथ में ले लिए। मंदिर में अधिक भीड़ नहीं थी , इसलिए दर्शन में कोई असुविधा नहीं हुई। शिवलिंग के सामने माता पार्वती की छोटी सी प्रतिमा है । एक और खास बात पता चली कि यहां पर शास्त्रीय कारणों से हवन- होम आदि नहीं किया जाता है ।
ऐसा भी प्रचलित है कि यहां पर दर्शन करने से संतान सुख प्राप्त होता है। मंदिर की परिक्रमा करते समय प्रबंधन द्वारा खोली गई दुकान से एक छोटी सी पुस्तिका भी ले ली , जिसमें घृष्णेश्वर मंदिर के बारे में पूरी जानकारी दी गई थी ।
मंदिर से बाहर निकले तो हमें फोटो ना खींच पाने का अफसोस हो रहा था । खैर जहां चाह वहां राह । मन को तसल्ली तब मिली जब मंदिर के बाहर फोटोग्राफरों ने अपने जीविका की व्यवस्था बना ली थी । वह मंदिर के गेट पर ग्राहकों को खड़ा करवाते और मंदिर की दूर से फोटो ले लेते । जिससे मंदिर का चित्र भी श्रद्धालुओं को मिल जाता है। हालांकि यह विकल्प ग्राहकों को महंगा जरूर लगेगा, क्योंकि फोटोग्राफर एक चित्र के कम से कम सौ रुपये तो जरूर ले लेते हैं ।
घृष्णेश्वर मंदिर से पूर्व हम उस सरोवर पर भी गए, जहां पर घुष्मा प्रतिदिन पार्थिव शिवलिंग बनाकर उपासना किया करती थी । यही वह स्थान है जहां शिव घुष्मा से प्रसन्न होकर प्रकट हुए थे ।
भ्रमण के क्रम में हम विश्वकर्मा मंदिर और पास में स्थित शिव मंदिर भी पहुंचे । शिवलिंग आकार में बना मंदिर अाकर्षक है । मंदिर के गर्भगृह में 12 ज्योतिर्लिंगों को एक साथ स्थापित किया गया है । साथ ही उनके नाम की जानकारी भी उल्लिखित है । इस मंदिर ने तस्वीर खींचने के लिए प्रेरित किया ।
ऑटो में बैठने से पूर्व 2- 4 छवियों को मोबाइल में सुरक्षित कर लिया। यहां पर इक्का-दुक्का श्रद्धालुओं को देख कर मन में यह ख्याल आया कि शायद इस स्थान को अधिक प्रचार नहीं मिल पाया है । तभी तो लोग यहां कम आते हैं।
अब हमारा अगला पड़ाव औरंगाबाद से 30 किलोमीटर की दूरी पर स्थित एलोरा की गुफाएं हैं। (काशी के कलमकार आशुतोष पाण्डेय की कलम से)
क्रमशः...
दुनियाभर के घुमक्कड़ पत्रकारों का एक मंच है,आप विश्व की तमाम घटनाओं को कवरेज करने वाले खबरनवीसों के अनुभव को पढ़ सकेंगे
https://www.roamingjournalist.com/