घिसे पिटे कथानक और चीख पुकार के बीच मनोरंजन कहीं खो सा गया है। बच्चों की जिद पर यहां अमेरिका में फिल्म तो देख आया। तमाम हिंदुस्तानी बोझिल हो चुकी जिंदगी में मनोरंजन की प्यास ले कर थियेटर तक पहुंचे थे पर उनके कंठ रीते ही रह गए। पूरी फिल्म खत्म हो गई और लोग मनोरंजन की तलाश करते रहे। कुछ नहीं कोई एक डांस तो होता जिस पर दर्शक ठुमके लगा लेते,कोई एक नगमा तो होता जिसे गुनगुना लेते।
लोग फिल्म देखने क्यों जाते हैं? जवाब होगा-मनोरंजन के लिए। पर इस फिल्म में ऐसा क्या है जिसे मनोरंजन की कसौटी पर तौल सकें। मन को बहलाने के लिए कुछ हंसी ठिठोली...कुछ नगमे...कुछ नाच गाना,यही तो चाहिए दर्शकों को। जिम्मेदार फिल्म मेकर यही करते हैं। पर ये दौर मौका भुनाने का है इसलिए निर्माताओं को तिजोरी भरने से मतलब। मामला मार्केटिंग का है। भावनाओं को उधेड़ कर तिजोरी भरने का...
कहते हैं कि जख्म कुरेदने से वो हरे हो जाते हैं। विभाजन विभीषिका...भारत-पाक युद्ध और उन्मादी कथानक पर कई फिल्में बन चुकी है। सब के अपने अपने कथानक। मैं एक इंटरव्यू में अनिल शर्मा को सुन रहा था। बता रहे थे-इस फिल्म को जीवंत बनाने के लिए उन्होंने कितना गोला बारूद पर खर्च किया। कितनी गाड़ियां हवा में उड़ाईं। कितने टैंक जमींदोज कर दिए।जिन्होने कारगिल युद्ध होते देखा है और उसके फुटेज देखे हैं उनके सामने तो ये कुछ भी नहीं था। वहां वास्तविक युद्ध दिखाई दे रहा था....वास्तविक योद्धा दिखाई दे रहे थे। इसमें नया क्या?
कहावत है न- कहीं की ईंट कहीं का रोड़ा,भानुमति ने कुनबा जोड़ा। फिल्म का कथानक भी कुछ इसी तरह से जोड़ कर तैयार किया गया है।
धूं-धांय,चीख पुकार और चिल्ला चिल्ली के बीच अगर कोई दो किरदार अपनी छाप छोड़ पाए हैं वो हैं-सनी देओल और पाक जनरल का किरदार निभा रहे मनीष वाधवा। अदाकारी की बात करें तो इन दोनों ने जीवंत अभिनय किया है। वो अपने किरदार को निभाने में सफल रहे हैं। पाक जनरल की भूमिका में मनीष न्याय करते दिखाई दे रहे हैं। सनी की क्या तारीफ करूं...वो तो हैं ही इस विधा के उस्ताद कलाकार। बाकि कलाकारों के लिए करने के लिए कुछ था ही नहीं।
उत्कर्ष शर्मा की भूमिका की तुलना में सिमरत कौर की भूमिका कम थी ही। अमीषा पटेल के लिए भी करने को कुछ नहीं था। कहानी कुछ तरह से थी कि सिमरत कौर ढंग से इजहार-ए- मोहब्बत भी नहीं कर सकी। सही कहूं तो उत्कर्ष शर्मा का शरीर सौष्ठव भी किरदार के अनुरूप नहीं था। सारी कहानी सनी देओल को केंद्र बिंदु में ही रख कर बनाई गई थी। सियासत और सियासतदां ...वक्त की नजाकत के मद्दे नजर फिल्म बनाई गई। कहावत है न-हल्दी लगे न फिटकरी रंग आवे चोखा। तो पांचवें दिन की कमाई 55 करोड़ पार कर गई। थियेटर से बाहर निकल कर दर्शक भले ठगा सा महसूस करें उनकी तिजोरी तो भर ही गई।
किसी भी फिल्म की पहली शर्त तो उसका मनोरंजक होना ही होता है। मनोरंजन की कसौटी पर .ये फिल्म किसी भी तरीके से खरी नहीं उतरती। कोई ऐसा नगमा..हास परिहास के .कोई ऐसे क्षण नहीं जिसे दर्शक संजो सकते हों। रही बात मारधाड़ की तो यूट्यूब पर कारगिल युद्ध जीवंत दिख जाएगा। हां देश...काल या दूसरे शब्दों में यूं कहूं कि वक्त की नजाकत को देख कर अनिल शर्मा इस फिल्म को लेकर कामयाब होते दिखाई दे रहे हैं। उन्होने कैश कर लिया है। फिल्म जो संदेश दे रही है जग जाहिर है-अपना काम बनता,भाड़ में जाए जनता। (अमर उजाला के कई संस्करण में सम्पादक रह चुके राजेन्द्र त्रिपाठी की कलम से)
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