नासिक से औरंगाबाद जाने के लिए तपोवन एक्सप्रेस में एसी चेयरकार का टिकट मिल गया था। चेयरकार में यात्रा का मेरा पहला अनुभव था । सुबह 10:00 बजे आरंभ हुई यात्रा को दोपहर 2:00 बजे औरंगाबाद पहुंचकर विराम मिला ।
12 ज्योतिर्लिंगों में एक घृष्णेश्वर महादेव का औरंगाबाद में स्थित होना हमारे लिए यहां आने का मुख्य आकर्षण था । क्योंकि अजंता - एलोरा की गुफाओं के लिए पत्नी को औरंगाबाद के लिए तैयार करना मुश्किल था। औरंगाबाद में पहले से बुक किए गए होटल में पहुंचे , तो दोपहर के खाने का वक्त गुजर रहा था। होटल वाले से बातचीत करने पर उसने कहा कि शाम 4:00 बजे तक वह घरेलू भोजन की व्यवस्था कर देगा । खाना खाने के बाद होटल से बाहर निकले । उससे पहले औरंगाबाद में घूमने लायक स्थानों की भौगोलिक और ऐतिहासिक जानकारी भी जुटा ली।
जिससे पता चला कि मेरी रुचि के अधिकांश स्थान नगर के बाहर हैं और कई तो काफी दूर भी हैं । इनमें सबसे दूर अजंता की गुफाएं थीं। इस नगर में टूरिस्ट बस जैसी कोई व्यवस्था भी नहीं थी , जो हमें एक साथ सब जगह घुमा कर ले आती।
होटल के बाहर सड़क पर दुकानदार से बातचीत की , तो उसने बताया कि अब शाम हो चली है , इसलिए अधिकतर स्थानों पर अभी जाना संभव नहीं है।
सोचा जब यूं ही तफरीह करना है तो मुख्य बाजार ही घूम लेते हैं । हालांकि ऑटो वाले ने जिस जगह हमें पहुंचाया वह न तो मुख्य बाजार लग रहा था और न ही वहां कोई आकर्षण था
अब जब आ ही गए थे, तो एक-दो घंटे इधर-उधर घूमते रहे । वास्तव में यह मुझे किसी शहर की फल और सब्जी की मंडी जैसा लग रहा था। इस बीच एक हनुमान मंदिर दिखा तो वहां भी चले गए।
होटल लौटते वक्त मैंने एक दुकानदार से शहर घूमने के लिए कौन सा साधन उपयुक्त होगा , इस पर चर्चा की । उस दुकान पर कई लोग उपस्थित थे । जिनमें एक ने ऑटो को घूमने के लिए सर्वाधिक सुविधाजनक बताया। जबकि एक अधेड़ से सज्जन ने आवश्यकतानुसार बस और ऑटो दोनों के उपयोग का सुझाव दिया। यह सुझाव किफायती तो लगा, लेकिन समय भी इसमें अधिक जाया होता । आखिरकार दुकानदार पर ही मैंने भरोसा किया और अगले दिन के लिए ऑटो की व्यवस्था करने की जिम्मेदारी दे दी।
दूसरे दिन सुबह ऑटो होटल पर हाजिर था। हम भी तैयार ही बैठे थे । सोचा चाय पीकर चलते हैं। घृष्णेश्वर महादेव के दर्शन के पश्चात नाश्ता अादि किया जाएगा । नगर से यह मंदिर लगभग 40 किलोमीटर दूर था। जब हम आधे रास्ते पर पहुंचे तो ऑटो वाले ने कहा कि दुकानदार से किराए की बात तो हो गई है न। तब हम ने हामी भर दी।
बात और आगे बढ़ी, तो पता चला कि किराए को लेकर हम दोनों के बीच एक भ्रम की स्थिति थी । ऑटो वाला 15 सौ रुपये चाहता था और हम एक हज़ार मानकर चल रहे थे । फिर क्या था जिस दुकानदार से ऑटो के लिए बात हुई थी , उस दुकानदार, ऑटो वाले और हमारे बीच मोबाइल पर त्रिपक्षीय संवाद चला। निष्कर्ष रूप में एक दाम पर सहमति बनी। इसके बाद ऑटो चालक का मिजाज मैत्रीपूर्ण समझ में आने लगा और वह हमें दर्शनीय स्थलों के बारे में रुचि लेकर बताने लगा ।
जब तक हम घृष्णेश्वर नहीं पहुंचते , तब तक औरंगाबाद नगर के बारे में जानना रोचक होगा । अतीत की खिड़की खोल कर जरा दूर तक नज़र डालें , तो इस नगर पर या स्थान भी इसे कहा जा सकता है, पर समय-समय पर सातवाहन , वाकाटक ,चालुक्य, राष्ट्रकूट राजाओं का शासन रहा है । जहां तक वर्तमान औरंगाबाद की बात है , इस नगर को कभी हब्शी गुलाम रहे और बाद में अपनी प्रतिभा से अहमद नगर के वजीर बन गए मलिक अंबर ने 1610 में बसाया था।
बाद में अंबर के पुत्र फतेह खान ने इसका नाम फतेहपुर रख दिया था। लेकिन 1653 में जब मुगल शासक औरंगजेब ने इस इलाके पर कब्जा कर लिया, तब उसने इसका नाम बदलकर औरंगाबाद कर दिया । यह वही औरंगजेब था, जिसे इतिहास में अपनी धार्मिक कट्टरता के लिए जाना जाता है।
कहते हैं औरंगजेब को यह स्थान बहुत पसंद था । इसीलिए उसने मरने के बाद खुद को भी यहां दफनाने की इच्छा जाहिर की थी। यहां उसकी मजार भी बनी हुई है । नगर औरंगाबाद में 52 दरवाजे बताए जाते हैं ।
तात्पर्य यह है इतिहास में अनेक परिवर्तनों , घटनाओं के मौन साक्षी रहे इस नगर ने लंबी विकास यात्रा करके तब वर्तमान स्वरूप पाया है । 1947 से पहले हैदराबाद के निजाम का यहां शासन था। इस तरह स्वाधीनता प्राप्ति के बाद इस नगर का भारत में विलय हो गया।
औरंगाबाद की पहचान घृष्णेश्वर मंदिर ही नहीं अजंता- एलोरा की विश्व प्रसिद्ध गुफाएं भी हैं । साथ ही दौलताबाद का किला , बीवी का मकबरा और औरंगाबाद की गुफाएं देखने काफी पर्यटक दूर-दूर से यहां आते हैं । ऐसे पर्यटकों में मैं खुद को भी शामिल पाता हूं।
कुल मिलाकर गंगा जमुनी संस्कृति का मिलाजुला रूप इस शहर का समझ में आता है। नासिक की तरह यहां भी हरियाली खूब दिख रही थी । यहां तक कि सड़कों के विभाजक पर भी कई स्थानों पर मैंने नीम जैसे बड़े पेड़ देखे। सचमुच हरे-भरे दरख्त किसी नगर के सौंदर्य में चार चांद तो लगा ही देते हैं। (काशी के कलमकार आशुतोष पाण्डेय की कलम से)
क्रमशः......
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