लद्दाख का पूरा क्षेत्र विविधताओं से भरा पड़ा है।सिंधु व श्योक नदियों के साथ नुब्रा v श्योक की ऐतिहासिक घाटी तो है ही,अलची में करुणा,मैत्री और ज्ञान के प्रतीक बुद्ध का स्वरूप व गुरुद्वारा पत्थर साहिब में प्रेम व सद्भाव के प्रतीक गुरु नानक देव की स्मृतियां भी इस क्षेत्र में सुरक्षित हैं।
ऐसे ही क्षेत्र में गहरी घाटियां,पिघलते ग्लेशियर,फिसलती हुई चट्टाने, प्रवाहित श्योक नदी के साथ मार्ग देते हुये कई संवेदनशील पुल के बीच प्रतापपुर जैसे छोटे गांवों से गुजरते हुए लेह से लगभग 125 किलोमीटर दूर हुन्डर Hundar से आज देश के सबसे उत्तरी गांव Thang पहुंचे।(हुन्डर तक का मार्ग खारदुंगला के शिखर व नुब्रा घाटी से होकर गुजरता है जहां हम कल पहुंचे थे)।थांग गांव,चलूंक, तकशी व तुरतुक के साथ यह बाल्टिस्तान के उन चार गाँवों में है जिसको 16/17 दिसंबर 1971 के युद्ध में भारत ने कब्जे में ले लिया था।एप्रिकॉट के बागों से सजी नुब्रा घाटी के हुन्डर से तुरतुक व थांग का रास्ता श्योक नदी के किनारे से होकर जाता है जो बहुत ही खूबसूरत व चुनौतीपूर्ण है यद्यपि हरियाली से वंचित है।श्योक Shyoke वही नदी है जिससे दिसकित Diskit के पास नुब्रा नदी मिलती है और फिर यही श्योक आगे जाकर स्कार्दू के पास केरिस में सिंधु में मिल जाती है और इसके खतरनाक प्रवाह के कारण इसे 'शोक की नदी' River of Sorrow भी कहते हैं।
यह नाम यूं मुझे नहीं जंचता क्योंकि जिस तरह से चट्टानों को काटती यह आगे बढ़ती है वह एक समर्पण की नदी River of Dedication ही कहला सकती है जिसके किनारे सियाचिन के योद्धाओं की स्मृति से भरे पड़े हैं।हां,अपनी अनिश्चित दिशा व अनियंत्रित कटान के कारण इस पर विश्वास करना कठिन है क्योंकि जीवन अपने विकास के लिए नदियों से भी कुछ आश्वस्ति तो चाहता ही है।
थांग में यात्रियों की बहुत भीड़ थी ।लोग इस अंतिम गांव से नियंत्रण रेखा को देख रहे थे और यह समझने की कोशिश कर रहे थे कि कैसे थांग व फरनू जैसे गांव सांस्कृतिक रूप से आपस में जुड़े थे व 16 / 17 दिसंबर 1971 के युद्ध में एक ही रात में विभाजित हो गए और जो जहां था वही ठहर गया।वहां थांग के ही एक व्यक्ति मोहम्मद अली ने इस युद्ध का बहुत मार्मिक वर्णन सुनाया जिसे आगे लिखूंगा।मूल बात यह थी कि फर्गु गांव से वे एक रिश्तेदार से मिलने थोंग आये थे और सुबह पता चला कि वे अब लौट नही सकते।19 वर्ष में वे विवाहित थे लेकिन फिर दस साल तक इंतजार करने के बाद भी जब पत्नी के पास वापस लौट नहीं पाए तब उन्होंने दूसरी शादी कर ली और अब वे पांच बच्चों के पिता है।पहली पत्नी के बारे में पूछने पर वे भावुक हो गए।कहा-अब कहां मिलना होगा!उनके बारे में जब पूछा तो LOC की तरफ इशारा करते हुए कहा-यही बता पाएगी कि उनकी क्या हालत है।मुझे कुछ पता नही।लेकिन फिर जोर से कहा-मुझे फक्र है कि मैं हिंदुस्तान में हूँ और मेरा एक बेटा सेना की सेवा में है।थोड़ा और जोर देते हुए है--
*कन्याकुमारी से काराकोरम तक भारत एक है*
और फिर दूसरे यात्रियों से बात करने लगे।विभाजन संबंधों व संस्कृतियों को कैसे विभाजित करता है ,यह एक उदाहरण है।
थांग की तुलना में तुरतुक ज्यादे विकसित है जहां जौ व एप्रिकॉट काफी मात्र में होते हैं।लगभग 4000 की आबादी वाला यह गांव 1971 के युद्ध में भारत के कब्जे में आ गया जहां के नागरिक शाम को पाकिस्तान में सोए थे लेकिन सुबह हुई तो भारत में थे।यह बात और थी कि यहाँ भौतिक रूप से युद्ध नहीं हुआ था क्योंकि पाकिस्तानी सेना खुद ही पीछे हटती चली गई।
इस सभी गांवों पर भारत सरकार की विशेष नजर रहती है और यहाँ के लोग भारत को बहुत चाहते हैं।मुस्लिम बहुल इस क्षेत्र में बाल्टी भाषा का प्रयोग होता है ओर यहाँ के लोग बाल्टिस्तान संस्कृति से गहरे जुड़े हैं।गांव में घूमते हुए रब्या व सलीम के साथ कई लोगों से हमने बात की और उनके साथ फोटो ली तो वे बहुत खुश हुए।इस गांव में अब हायर सेकंडरी स्कूल खुल गए हैं जहां इनके बच्चे शिक्षा लेते हैं।इससे अब वे उर्दू व हिंदी पढ़ने लगे हैं।पुराने लोग अब 70 पार हैं जो केवल बाल्टी भाषा जानते व समझते थे।नई पीढ़ी के साथ अब वे लोग भी थोड़ा बहुत हिंदी,उर्दू व अंग्रेजी जानने लगे है।पर्यटन के कारण भी अब यहाँ हिंदी का प्रयोग बढ़ा है लेकिन बाल्टिस्तान की संस्कृति से अभी भी उनका गहरा जुड़ाव है।राब्या जो एक संग्रहालय की देख रेख करती हैं,से जब पूछा कितनी पढ़ी हो तो उसने हंसते हुई हायर सेकंडरी की बात की।लेकिन ईँ सभी की एक शिकायत जरूर थी कि इसे भारत के उत्तर दिशा के अंतिम गांव के रूप में नहीं ,पहले गांव के रूप में दर्ज किया जाना चाहिए।
इस पूरी यात्रा में दुर्गम घाटियों से गुजरती खतरनाक सड़क व मोड़ का जैसा अनुभव हुआ वह विरल है।सियाचिन के ऐसे बीहड़ खेत्र में सेना की सेवा व समर्पण को देखकर बहुत गर्व होता है।जगह जगह सेना ने सुंदर वाक्य भी लिखे हैं जैसे यह-
*BRO cut through the hills but join the heart.
*Donot be Gaama in the land of Lamas.
*All gave their some and some gave their All.
इतना जरूर है कि किसी भी यात्रा में हमें पहाड़ों व पुलों के प्रति भी कृतज्ञ होना चाहिए जो हमें रास्ता देते हैं।यह कम चुनौतीपूर्ण बात नहीं होती कि कोई आपके प्रवाह के लिए खुद को खड़ा रखे व कटवाता चले!आखिर प्रवाह के साथ चलते हुए लोगों की तुलना में ठहरे हुए लोगों का योगदान भी कुछ कम तो नहीं होता! नुब्रा घाटी व श्योक घाटी की इस यात्रा में यह संदेश तो मिलता ही है।
( बनारस हिंदू यूनिवर्सिटी के प्रोफेसर श्रीप्रकाश शुक्ला की कलम से )
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