लद्दाख को 'दर्रों की भूमि' कहा जाता है जिसके कारगिल व लेह दो जिले हैं।लदाख यात्रा का मतलब सामान्य रूप में या तो खारदुंगला व चांगला की लगभग 18000 फुट ऊंचाई पर बर्फ देखना है या फिर पेंगोंग झील को देखना जो 150 किलोमीटर दुनिया की खारे पानी की सबसे ऊंचाई पर स्थित झील है जिसका दो तिहाई भाग चीन में है और जो भारत के पेंगोंग से आरम्भ होती है जिसको लेकर आये दिन चीन से विवाद भी होता रहता है।यूं विचारवान लोगों के लिए बुद्ध के करुणा, मैत्री व ज्ञान के बहुविध रूपों को भी समझना है लेकिन यह एक श्रमसाध्य कार्य है जिसके लिए अलची,लिकिर व दिसकित जैसे गोम्पों की परिक्रमा करनी होती है जिसमें सामान्य पर्यटकों की कोई रुचि नहीं होती।यूं काशी के ही कृष्णनाथ जी ने 'लद्दाख में राग विराग' में इस पर विस्तार से काम किया है और कृष्णा सोबती ने 'बुद्ध का कमंडल' नामक पुस्तक में भी इसका वर्णन किया है।
बहरहाल बुद्ध की बात करके अभी हम फिलहाल बहुत गंभीर बात नहीं करेंगे।अभी तो पेंगोंग जाते समय 14000 फुट की वर्फ़ीली ऊंचाई पर चांगथान में एक जानवर की बात करेंगे जो आकार में मोहक और छोटा है जिस पर कम लोगों की नजर पड़ती है।यह गिलहरी जैसा है।इसको 'हिमालयन मरमोट' कहते हैं।भोजन में घास व चावल पसंद है और यह घास खाता कम, चाटता ज्यादे है।आदमी की आवाज पहचानता है और पुकारने पर पांव के बल खड़ा हो जाता है।लोग इसके साथ फोटो खिंचवाते हैं और आगे बढ़ जाते हैं।शाम को ठंडा होते ही बिल में घुस जाता है।बाल बहुत कोमल और आंखे आकर्षक होती हैं।बिल्कुल पेंगिंग झील के नीले जल जैसी!पुचकारने पर यह दो पैरों पर खड़ा हो जाता है और सावधान इतना कि आसन्न संकट को पहचानकर एक विचित्र किश्म की आवाज निकालता है।यूँ यह मजेदार व समझदार दोनों ही है।
मुझे नुब्रा से पेंगोंग के रास्ते इसके बारे में जानना अच्छा लगा।
बाकी तो भूदृश्य,झील,पहाड़,घाटी,तो इस क्षेत्र को भारत का मुकुट बनाते ही हैं।लेह से खारदुंगला होते हुए नुब्रा व अंतिम गांव तुरतुक जायं अथवा नुब्रा से श्योक नदी के उद्गम स्थल श्योक से होते हुए पेंगोंग जायं,सब जगह घाटियों से घिरे रास्ते ऐसे कि सांस थम जाय.हुन्डर से प्योंगय्यांग झील की पूरी यात्रा श्योक घाटी के बीच से होती है जिंसमें नदी व सड़क साथ साथ चलते हैं।श्योक घाटी की दुर्गमता को देखकर इस नदी की ताकत का अहसास होता है ।गजब का तीखापन है ,बांकपन के साथ!यात्रा में ऐसा लगता है कि रास्ते के ऊपर से नहीं हम चट्टानों के ऊपर से चल रहे हैं!लेह,नुब्रा व पेंगोंग की इस त्रिकोणीय यात्रा में आज पेंगोंग से लेह वापस आते समय छांगला दर्रे ( दक्षिण का मार्ग )की ऊंचाई पर भी बर्फ की मोटी परत के बीच से गुजरना हुआ।पिघलते हुए ग्लैसियर या व दरकते हुए पहाड़ों के मार्ग से गुजरना काफी डरावना था लेकिन हर डर पर इस मरमोट की अदा भारी थी!
मैं तो पूरे रास्ते उछलती हुई गाड़ी को महसूस करने से अधिक इसी की उछाल को याद कर रहा था जो हर डर पर भारी थी!
इस यात्रा में बहुत कुछ देखने व समझने को मिला।अब लद्दाखी लोग छांग पीकर टुन्न रहने से अधिक अपने काम के प्रति समर्पित हैं।सरकार का भी विशेष ध्यान अब इस क्षेत्र में है लेकिन शिक्षा को लेकर अभी गंभीरता नहीं है।पर्यटन की संस्कृति शिक्षा पर भारी है।एक लद्दाख विश्वविद्यालय यहाँ अलची जाते दिखा जरूर लेकिन वह लेह शहर से इतना दूर व वीरान जगह पर है कि शिक्षकों का टिकना कठिन ही है।
( बनारस हिंदू यूनिवर्सिटी के प्रोफेसर श्रीप्रकाश शुक्ला की कलम से )
(अंत में यह भी कि अगर कभी आप इधर रुख करें तो अपने प्रीपेड मोबाइल के नेट को भूल जायं।इस पूरे क्षेत्र में केवल पोस्ट /पेड मोबाइल काम करता है।मेरा कोई भी न0 यहाँ काम नहीं कर रहा।केवल सुबह व शाम होटल के wifi से ही काम चलता है।सरकार को इस ओर भी ध्यान देना चाहिए।जब काराकोरम से कन्याकुमारी तक का भारत एक है तब नेट से कनेक्ट का भारत भी एक होना चाहिए!)
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