डमरू क्या है : डमरु एक छोटा संगीत वाद्य यन्त्र होता है। इसमें एक-दूसरे से जुड़े हुए दो छोटे शंकुनुमा हिस्से होते हैं जिनके चौड़े मुखों पर चमड़ा या ख़ाल कसकर तनी हुई होती है। डमरू के तंग बिचौले भाग में एक रस्सी बंधी होती है जिसके दूसरे अन्त पर एक पत्थर या कांसे का डला या भारी चमड़े का टुकड़ा बंधा होता है। हाथ एक-फिर-दूसरी तरफ़ हिलाने पर यह डला पहले एक मुख की ख़ाल पर प्रहार करता है और फिर उलटकर दूसरे मुख पर, जिस से 'डुग-डुग' की आवाज़ उत्पन्न होती है। तेज़ी से हाथ हिलाने पर इस 'डुग-डुग' की गति और ध्वनि-शक्ति काफ़ी बढ़ाई जा सकती है। डुगडुगी इसका छोटा रुप है।भारतीय और तिब्बती साधू अक्सर डमरु रखे हुए होते हैं।भारतीय उपमहाद्वीप की पारम्परिक संस्कृति में भालू या बंदर जैसे जानवर नचाने वाले कलाकार अक्सर डुगडुगी का प्रयोग किया करते हैं, जिन्हें मदारी कहते हैं।
डमरू का उपयोग : डमरू की आवाज अन्य वाद्य यंत्रो से ज्यादा मधुर और आकर्षित करने वाली होती है। बिलकुल भी कर्कश नहीं होती। इसलिए किसी सन्यासी द्वारा डमरू बजाने पर ,या मदारी द्वारा डमरू बजाने पर लोग वहा खींचे चले आते है। जो वहा जाता है ,उसको उसके द्वारा ज्ञान या मनोरंजन का लाभ मिलता है जो नहीं जाता वह वंचित रह जाता है।
अवधूत रुपी शिव के हाथ में डमरू का भावार्थ :
शिव के बायें हाथ में डमरु है। डमरु शब्द संस्कृत के दमरु का अपभ्रंश है जो दो शब्दों से बना है। ‘दम‘ (दमन करना) ‘रु‘ (ध्वनि) अर्थात् दमन संयम रुपी ध्वनि व्यक्त होती रहती है यानि वह महान संयमी है। शिव के डमरू के विषय में एक और विचार है कि मानव जब भी कोई कार्य करता है तो उसको ईश्वर प्रेरणा देता है। अच्छे कार्य के लिए उत्साह वर्धन और गलत कार्य के लिए डराता है। उसके ह्रदय में एक प्रकार से द्वन्द होता है ,एक आवाज आती है जो मानव को अपनी तरफ आकर्षित करके उस कार्य से रोकने का प्रयास करती है। कभी कभी ह्रदय की धड़कन तक बढ़ जाती है , कानो में आवाजे आती है , अच्छे बुरे स्वप्न आते है । एक और भी भावार्थ है की कभी कभी हमको किसी की ऐसी अनुभूति होती है की वह बुला रहा है , पुकार रहा है , माँ की आवाज आ रही है। ऐसी अनुभूति मनुष्य को ही नहीं सभी जीव जन्तुओ को होती है। ये सभी ईश्वर की महान कृपा से ही संभव है ,जिसे ईश्वर शिव द्वारा डमरू से अपनी बात कहने की उपमा दी गयी है।
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