तब मैं पत्रकारिता का छात्र था और रंजीत भैया राष्ट्रीय सहारा में वरिष्ठ पत्रकार थे मेरे पिताजी के मित्र भी थे, उन्होंने ही मुझे हिंदुस्तान से जोड़ा तब शेखर कपूर जी हिंदुस्तान बनारस के ब्यूरो चीफ हुआ करते थे बेहद कड़क या यूं कहें हमेशा नाराज रहने वाले लेकिन फिर भी दिल के अच्छे हैं वह भी पिताजी के मित्र थे, रंजीत भैया के नाते में हिंदुस्तान से जुड़ा और वह भी पत्रकारिता के दौर में इंटर्नशिप की तरह, फिर मुझे वहीं सब कुछ सीखने का मौका मिला। वहीं पहली बार सुनील दुबे सर से फोन पर बात करने का मौका मिला। उनका फोन आता था तो वह फोन पर बोलते थे मैं सुनील दुबे बोल रहा हूं यह सुनते ही हाथ कांपने लगते थे पूछते कपूर कहां है और लारी कहां है लारी मतलब एके लारी भैया। यह तो रही शुरुआत की कहानी। फिर वाटर फिल्म के दौर में हमने और आदरणीय दिनेश चंद्र मिश्र जी ने मिलकर जो मुहिम चलाई जिसमें काशी संस्कृति रक्षा संघर्ष समिति के बैनर पर तब के काशी हिंदू विश्वविद्यालय अध्यापक संघ के अध्यक्ष डॉक्टर कौशल किशोर मिश्र जी का भी सहयोग रहा, उसके बाद मुझे रंजीत भैया और लारी भैया के साथ गुरु जी (बनारस में दुबे सर से जुड़े सभी लोग उनको जानते हैं) के आशीर्वाद से उदय सर तब वह न्यूज एडिटर हुआ करते थे नवीन जोशी सर के साथ, उदय सर सुनील दुबे सर के सबसे विश्वसनीय भी रहे, उनके ही बुलावे पर मैं लखनऊ पहुंचा और मुझे स्टाफर के तौर पर चुना गया, तब मेरी उम्र 22 या 23 साल की थी उस समय लखनऊ में उदय सर की कड़ी निगरानी में ट्रेनिंग मिली और फिर बहराइच भेज दिया गया तब बहराइच में हमारे वरिष्ठ सहयोगी आदरणीय बड़े भाई महेश अवस्थी जी ब्यूरो चीफ थे, उनके सहयोग में मुझे भेजा गया। वह वाकई में बड़े भाई थे, अब दिवंगत हैं। एक बार सुनील दुबे सर का फोन आया मैंने उठाया, मुझे बोले महेश कहां है, महेश भाई साहब मेरे सामने थे, मैंने कहा संपादक जी का फोन है। तब बहराइच ऑफिस में जिस कमरे में हम और महेश भाई साहब बैठे थे लैंडलाइन टेलीफोन ही होता था। महेश भाई साहब ने उसका तार बहुत लंबा कर रखा था, जैसे ही उनको जानकारी होती सुनील दुबे सर का फोन है वह टेलीफोन को लेकर के सीधे आंगन में निकल जाते और वही बात करते। एक बार ऐसा ही हुआ जब वह लौट कर आए तो मैं उनसे पूछा क्या हुआ भाई साहब, सर का फोन था और आप जब सर का फोन आता है तो आंगन में चले जाते हैं तो वह बोले अरे आज आप बैठे थे कई बार कुछ और लोग बैठे होते हैं और इस चोंगा वाले फोन से बाहर आवाज गूंजती है, मैंने कहा क्या बात हुई, तब वो बताए सर कह रहे थे तुम्हारे आंख में सूअर का बाल है और साथ में यह भी कह रहे थे फोन मत रखना। साथ ही सुनील दुबे सर के अपने पुराने अनुभवों के आधार पर बोले नाराज होते हैं तो फिर चुपचाप सुनना ही पड़ता है। मेरे लिए यह नई बात थी क्योंकि उसके पहले मैंने कभी उनसे डांट नहीं खाई थी। फिर मैं तब के स्टूडेंट इस्लामिक मूवमेंट ऑफ इंडिया यानी सिमी के खिलाफ भारत नेपाल की सीमा पर स्थित बहराइच जिले से कई खबरें लिखी तब उसका राष्ट्रीय अध्यक्ष शाहिद बद्र फलाही हुआ करता था उसने हिंदुस्तान अखबार को नोटिस दी लेकिन इस बीच मेरी खबर का असर हुआ, भारत सरकार ने उसको संज्ञान में लिया और सिमी पर प्रतिबंध लगा दिया इससे मैं तो विधिक रूप से मजबूत हुआ लेकिन मुकदमा चल रहा था सर रोज कहते थे इस मुकदमे को निपटा लो नहीं तो तुम निपट जाओगे लेकिन उन्होंने कभी निपटाया नहीं तब के समय में मेरी लखनऊ से मदद आदरणीय बृजेश शुक्ल जी, दिनेश पाठक भईया और और आदरणीय हेमंत शर्मा भैया ने की, उन्होंने वहां से खबरें लिखकर और अन्य माध्यमों से सिमी के खिलाफ मेरी मुहिम को एक तरह से कवरिंग फायर दिया और मुझे ताकत, लेकिन दुबे सर यही कहते थे नोटिस वापस होनी चाहिए मैं जहां रहता था सामने दुर्गा जी का मंदिर था मैं रोज मनाता था समस्या का समाधान हो लेकिन फिर जब प्रतिबंध लग गया तब दुबे सर ने कहा, अब बहुत परेशान होने की जरूरत नहीं है, बाकी तुम जाकर के अदालत की प्रक्रिया को निपटा लो। बाद में प्रतिबंध के आधार पर जज साहब ने उस मुकदमे को खारिज कर दिया। ऐसे थे आदरणीय सुनील दुबे सर, मेरे भगवान, मेरे महादेव।
(काशी के कलमकार आदर्श शुक्ला की कलम से)
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