पलदेसी...पलदेसी जाना नहीं...मुझे छोड़ के मुझे छोड़ के...। सीढ़ियों से ऊपर चढ़ते हुए संपादक जी यानी सुनील दुबे सर इस गीत को गुनगुनाते जा रहे थे। मैं पीछे-पीछे आ रहा था। गीत गुनगुनाते सुना, तो मन में गुदगुदी हुई। हमारे संपादक भी गाते हैं। यह गीत दुबे सर के मूड का परिचायक बन चुका था। अगर वह इस गीत को गुनगुनाते हुए ऑफिस में घुसे, तो मतलब बल्ले-बल्ले। नहीं तो...।।।
बहरहाल, आज सुनील सर को याद करने का इसलिए मन कर रहा है कि आज ही के दिन उनके गढ़े कई अनमोल बर्तन लखनऊ में इकट्ठा हो रहे हैं। उन्हें याद करने के लिए। अवसर होगा, उनपर लिखी पुस्तक के विमोचन का। जिसका भाव है पुष्प के समान कोमल, वज्र जैसे कठोर। यह उनके व्यक्तित्व का विरोधाभास था...कतई नहीं। यह उस नारियल की प्रकृति थी, जिसके अंदर कोमलता, मिठास और ऊर्जा का अक्षय भंडार सिमटा था। उसे एक सख्त खोल ने ढक जरूर रखा था, लेकिन वह सख्ती एक प्रशासन का शायद निहायत जरूरी गुण भी होता है, जिसकी आवश्यकता शायद सदैव ही पड़ती है।
दुबे जी सर को याद करने के यूं तो कई अवसर याद आते हैं। एक और किताब कम से कम मैं ही कच्चे-पक्के शब्दों में लिख सकता हूं। परंतु दो किस्से जरूर बयां करना चाहूंगा, उन्हें अपनी आदरांजलि अर्पित करते हुए। पहला किस्सा कुछ यूं है...।
मैं ट्रेनी रिपोर्टर था हिंदुस्तान अखबार लखनऊ में। उस दौर में दुबे सर ने मुझे खूब मांजा। वह दौर कुछ ऐसा था, जिसमें आध्यात्मिक, अपराध, परिवहन, स्पोर्ट्स सहित न जाने कितनी बीटों पर एक साथ काम करने का मौका मिला। मेरे गुरु प्रभातरंजन दीन मुझे हर बीट में काम करने का प्रस्ताव रखते थे और सुनील सर उसका अनुमोदन कर देते थे। उत्साह बढ़ाने को तो जैसे तैयार ही बैठे रहते थे। ऐसे काम करते-करते सीखते हुए कुछ समय बीता। संवाद सूत्र भर्ती हुआ था। वहीं निज संवाददाता बना और फिर कार्यालय संवाददाता बनने की बारी आई। प्रधान संपादक समेत दिल्ली की टीम लखनऊ में थी। इंटरव्यू प्रस्तावित था। शाम का समय था। सभी अपने काम में जुटे थे। अचानक एक आवाज आती है, बृजेश...। मैं चौक कर उठ जाता हूं। बाकी लोग भी संजीदा हो जाते हैं। सचेत हो जाते हैं, क्योंकि दिल्ली मुख्यालय की टीम भी ऑफिस में थी। संपादक जी ने इशारे से बुलाया। मैं करीब गया। उन्होंने पीठ पर हाथ रखा। बोले...यह हमारे बारह ( या शायद चौदह बोला था, ठीक से याद नहीं ) खाने की रिंच है। इतना जरूर याद है कि इस रिंच को साइकिल बनाने वाले मिस्त्री यूज करते थे और लगभग पूरी साइकिल में अधिकांश जगहों पर इसका उपयोग आसानी से हो जाता था। बहरहाल वापस आते हैं संपादक जी के कथन पर। यह मेरे चौदह खाने की रिंच है। कहीं भी फिट कर दो। सुबह मोरारी बापू के प्रवचन कवर करा लो। दोपहर में क्राइम की कवरेज करवा लो। शाम होते-होते स्पोर्ट्स की भी कवरेज कर लेंगे। कहीं भी भेज दो....। इतना सुनना था, मेरा सीना तो गज भर चौड़ा हो गया। सीट पर लौटा तो भाई लोग बधाइयां देने लगे कि अब तो सब क्लीयर है। हुआ भी वही। अगले दिन इंटरव्यू और मैं स्टाफ रिपोर्टर बन गया। अपने वरिष्ठों के साए में मैं निखरने लगा था।
दूसरा वाकया संस्थान छोड़ने के समय का था। अमर उजाला शिमला के लिए मैं वरिष्ठ संवाददाता के तौर पर चयनित हो चुका था। सोचा था 15 दिन काम करके नवरात्रों में नई जगह ज्वाइनिंग लूंगा। लेकिन मामला लीक हो गया। संपादक जी को पता चल चुका है, यह मुझे पता लगा। मैंने देरी करना उचित नहीं समझा। फोन मिलाया। सब कुछ बताया संक्षेप में। मिलने की इच्छा जताई घर पर। मैं पहली बार उनके घर जाने वाला था। रास्ता पूछा। अगले दिन सुबह उनके घर पहुंच गया। वहां एक सज्जन पहले से बैठे हुए थे। जो संयोग से मुझे भी जानते थे। संपादक जी के केबिन में अक्सर ही मैंने उन्हें बैठे देखा था। मैं हाथ में मिठाई का डिब्बा लाया था। धीरे से सामने रखी सेंटर टेबल पर रखा। झुक कर संपादक सर के पैर स्पर्श किए। उनका हाथ मेरी पीठ पर था। धौल पड़ रही थी हल्के-हल्के। सच कहूं तो लगा दिल से आशीर्वचन सीधे मेरी आत्मा को स्पर्श कर रहे हैं। कोई बोझ दिल पर नहीं था। उठ कर सीधा खड़ा हुआ। दूसरे सज्जन बोल पड़े।...क्या बात है आज गुरु चेले में बड़ा प्यार उमड़ रहा है? संपादक जी बोल उठे। अरे भाई बात ही ऐसी है। मेरा शेर अब हिमाचल में दहाड़ेगा। ये उदय जी के साथ वहां जा रहे हैं।...सच कहूं तो संपादक जी का यह कथन मेरे जीवन की अनमोल निधि है, जो उनके श्रीमुख से प्रस्फुटित हुई और मेरे अंतरमन को ऐसा छुआ कि आज भी जब कभी भी मैं नैराश्य की स्थिति की ओर जाने की चेष्टा भी करता हूं, तो उनका वही कथन याद आ जाता है। मेरा शेर अब हिमाचल में दहाड़ेगा। मैं शेर था या नहीं...यह तो मुझे नहीं पता, लेकिन मुझे शेर बनाया जरूर स्व. सुनील दुबे सर ने। लोग बहुत करीब थे सुनील सर के। मैं शायद उनके उतना करीब नहीं रह पाया। शायद यही वजह रही कि लखनऊ छूटने के बाद २००३ लेेेकर यह हसरत दिल में ही रह गई कि सर से मिल लूं। याद आती रही। लेकिन दिल को बहलाता रहा कि अगली बार लखनऊ जाऊंगा तो जरूर मिलूंगा। धीरे-धीरे लखनऊ जाना भी कम होता गया। इसी बीच खबर आई कि सर नहीं रहे। उनकी मुस्कान अब घायल करने लगी थी। क्यों प्यारे..., क्या कहना है इस बारे में। एक मुस्कान के साथ चेहरे पर तेजी से भावों के उतार-चढ़ाव का वह अंदाज अब घायल करने लगा था। सर नहीं रहे...यह मानने को दिल नहीं करता। सोचता हूं...अच्छा ही हुआ नहीं मिल पाया। मेरी यादों में उनकी वही पुष्प के समान कोमल और वज्र के समान कठोर छवि संयोजित है। उनकी खिड़कियों को खोल कर यादों के पल बाहर निकाल लूंगा। उन्हें याद कर लूंगा। मित्रों...बहुत मन था लखनऊ आने का २३ के इस मौके के लिए। नहीं आ पा रहा हूं। लेकिन मेरा दिल वहीं रहेगा। आप सबको शुभकामनाएं। इस पुस्तक का बेसब्री से इंतजार है। आप सब जहां रहें, उस पुण्यात्मा के लिए प्रार्थना करें। आदरांजलि के साथ...( लखनऊ हिंदुस्तान की लॉन्चिंग से जुड़े पत्रकार अब राजस्थान पत्रिका में बृजेश सिंह की कलम से)
दुनियाभर के घुमक्कड़ पत्रकारों का एक मंच है,आप विश्व की तमाम घटनाओं को कवरेज करने वाले खबरनवीसों के अनुभव को पढ़ सकेंगे
https://www.roamingjournalist.com/