वर्षों पहले की बात है कि जब मेरी पोस्टिंग आरडीएसओ में हुई तो उस समय कर्मचारियों के कल्याण के लिए सरकारी कोई योजनाएं नहीं थीं। कुछ दिनों बाद एक सज्जन मेरे पास आए और एक कागज मेरी और बढ़ा दिया। किसी निदेशालय में किसी कर्मचारी की मृत्यु हो गई थी और उसके परिवार को आर्थिक सहायता देने के लिए चंदा इकट्ठा किया जा रहा था। मैंने देखा कि किसी ने पांच और किसी ने दस रुपए दान किए थे। मेरा हृदय चीत्कार कर उठा। मैंने पूछा कि क्या मेरी मृत्यु के बाद भी इसी प्रकार चंदा इकट्ठा कर मेरे परिवार को दिया जाएगा। उसने कहा हां।
रात भर मुझे नींद नहीं आई और एक सोसाइटी का जन्म हुआ। उस उस सोसाइटी का नाम ॑मानक रिलीफ सोसायटी ॑ रखा गया। सोसाइटी के नियम बनाए गए। आरडीएसओ के अनेकों बुद्धिजीवियों के साथ उन पर चर्चा हुई। एक कमेटी बनाई गई और सोसाइटी का रजिस्ट्रेशन करवा लिया गया। सोसाइटी के नियमों के अनुसार प्रत्येक मेंबर प्रति मास मात्र ₹1 चंदा देगा और जिसके ब्याज से किसी अकाल मृत्यु को प्राप्त होने वाले के परिवार को 24 घंटे के अंदर सहायता राशि दी जाएगी। मजे की बात यह थी कि नियमानुसार जब सदस्य रिटायर होगा तो उसके द्वारा जमा पैसा उसे वापस कर दिया जाएगा। बैंक को लिखित में दिया गया कि मृत्यु होने पर चैक तथा सेवानिवृत्त होने पर मूलधन दिया जायेगा। बैंक में पैसा जमा कोई भी करवा सकता है परन्तु किसी को भी उपरोक्त चैक के अतिरिक्त पैसा निकालने का अधिकार नहीं है।
इस सोसाइटी को बनने तथा बढ़ाने में बहुत लोगों का समर्थन मिला परंतु साथ ही साथ व्यक्तिगत रूप से मेरी बहुत आलोचना हुई। बहुत से लोगों ने कहा यह तो फ्रॉड करने का इनका नया धंधा है। परिवार में भी विरोध हुआ कि ₹1 के ब्याज से आप कैसे सोसाइटी चलाएंगे। मेरा उत्तर बड़ा प्यारा होता था कि अगर जरूरत पड़ी तो मैं अपने आप को गिरवी रख दूंगा लेकिन सोसाइटी को फेल नहीं होने दूंगा। यह मेरा दृढ़ संकल्प था।
कुछ समय बाद हैदराबाद के एक मुसलमान भाई की मृत्यु हो गई। पता चलते ही मैंने तुरंत रुपए 2000 का चेक काटा और उनके घर जाकर उनकी धर्मपत्नी को विनम्रता पूर्वक दे दिया। अकलमंदी यह की कि चैक के काउंटर फाइल पर उनके हस्ताक्षर ले लिए। मेरी आदत थी कि जब भी किसी को ऐसी आर्थिक सहायता दी जाती तो चेक का ब्यौरा देते हुए व्यक्ति विशेष का नाम देकर मैं नोटिस बोर्ड पर नोटिस जरूर लगवा देता था ताकि सबको सूचना मिल जाए। इसका फायदा यह होता था कि नोटिस से लगने के कुछ दिन के अंदर ही सदस्यों की संख्या बढ़ जाती थी। उस समय घर-घर में यह चर्चा चल रही थी कि एक सज्जन ने इस सोसाइटी को शुरू किया है जिससे मरने वाले के परिवार को थोड़ी आर्थिक सहायता मिल जाती है जो कि उस समय के अनुसार काफी थी।
उनके कुछ मित्रों के परिवार और कुछ हैदराबादी महिलाएं जब उनके यहां अफसोस करने के लिए गईं तो वहां पर सोसाइटी की चर्चा शुरू हो गई। अफसोस करने वाली महिलाओं ने प्रशंसा करते हुए कहा कि गुप्ता साहब ने बहुत अच्छी सोसाइटी बनाई है और देखो आपको भी उन्होंने ₹2000 दिए हैं। अनपढ़ता का नग्न नाच शुरू हो गया जब उनकी अनपढ़ पत्नी ने यह कह दिया कि मुझे तो उन्होंने कोई ₹2000 नहीं दिए हैं। बस फिर क्या था पूरे आरडीएसओ में एक बम विस्फोट हो गया। जिनकी भौंहें पहले ही उठ रही थी कि यह आदमी फ्रॉड करने के लिए इस सोसाइटी को बनाया है वह सब मिलकर सक्रिय हो गए।
अगले दिन ज्योंहि मैं ऑफिस आया तो देखा कि मेरी सीट के पास हैदराबादी लोगों का एक हजूम खड़ा था। इससे पहले कि मैं कुछ समझ पाता गाली गलौज प्रारंभ हो गया। आप समझ सकते हैं टीवी पर भी आप कई हैदराबादी लोगों को सुन चुके होंगे कि किस तरह की मीठी बोली बोलते हैं। ऐसे ऐसे शब्द मेरी लेखनी लिख भी नहीं सकती। मुझे बोलने का मौका दिए बिना ही सब अपने-अपने ढंग से गाली गलौज करने पर तुले हुए थे। जब एक सज्जन ने सुझाव दिया कि इस को पकड़ कर इसका मुंह काला करके इसे पूरे आरडीएसओ में घुमाया जाए तब मैंने अपना मुंह खोला। मैंने कहा कि क्या आप उनका मेरा आमना-सामना करवा सकते हैं। मैंने चुपके से चेक बुक अपनी जेब में डाली और पूरे हजूम के साथ उनके घर पहुंचा।
मैंने जाकर दरवाजे पर लगी घंटी बजाई। अंदर से उनकी धर्मपत्नी निकली। मैंने उन्हें चेक बुक की काउंटर फॉयल दिखाते हुए पूछा कि बहन जी यह क्या आपके हस्ताक्षर हैं। उन्होंने कहा जी हां। मैंने उनको कहा कि मैंने आपको एक कागज दिया था कृपया वह ले आइए। एक समाज में अनपढ़ता इस स्तर तक होती है कि पुरुष लोग बैंक के कार्य भी अपने हाथों रखते हैं। महिलाओं को चेक क्या होता है इसका भी पता नहीं होता। उन्होंने अंदर जाकर वह चेक लाकर मेरे हाथ में थमा दिया।
मैंने पूरे हजूम की ओर वह चेक लहरा दिया और कहा बंधुओं यह प्रमाण है कि मैंने दिए हैं। सभी सॉरी सॉरी कह रहे थे। मैं उनके चेहरों की ओर देख रहा था कि कहीं उनका बस चलता तो ना जाने मेरे साथ पहले क्या-क्या कर कुछ देते। मुझे मेरे संस्कारों ने मुझे एक बात सिखा रखी थी कि जब आप समाज सेवा के लिए निकलते हैं तो आपको सहनशील होना आवश्यक है। मेरे गुरुदेव ने मुझे कहा था कि सदा आंख कान मुख बंद करके रहोगे तो सुखी रहोगे। जब लोग नाना प्रकार की गालियां दे रहे थे तो मैं भी उलझ सकता था। अपनी सहायता के लिए अपने साथियों को बुला सकता था। बुद्धिमता इसी में थी कि पहले उनको अपना जोश ठंडा करने दो तब तक मौन रहो। मेरी सहनशीलता की पराकाष्ठा की परीक्षा अनेकों बार हो चुकी है और ईश्वर की अनुकंपा से मैं सदा अभी तक प्रथम ही आया हूं। ईश्वर से सदा प्रार्थना करता हूं कि अपना मेहर भरा हाथ मेरे सिर पर रखें रहें। विषम से विषम परिस्थितियों में भी मेरे कदम डगमगायें नहीं।
(बाल कृष्ण गुप्ता 'सागर' की कलम से)
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