वैसे तो सावन का अपना अलग रंग , अलग मिजाज होता है, ये जब आता है जहाँ आता है , सब झूम उठता है ।पर जब सावनी बयार और फुहार धर्म , संस्कृति और मौजमस्ती की नगरी काशी में कदम रखती है तो उसकी बात ही कुछ और होती है । ये फर्क करना मुश्किल होता है कि ये सावन की काशी है या काशी का सावन । ऋतुऔर संस्कृति के अनोखे मिलन से काशी नहा उठती है । चारो ओर बिखर जाती है अदभुत और अलौकिक छटा जिसमें एक ओर जहाँ आस्था की गहराई होती है वहीं दूसरी तरफ लोक संस्कृति के चटख रंग । मन्दिरों से बाग बगीचों तक झूले - हिंडोले । भगवान से लेकर भक्त तक सब झूलते हुए , पींगें मारते हुए । उफान पर होती है काशी की उत्सवप्रियता । मंदिरों में सावनी श्रंगार और मोहल्ला टोला , चौक चौबारों में कजरी की तान पर झूमता बनारसी मन । हालांकि पहले से अब बहुत कुछ बदल गया है , पर अभी भी बहुत कुछ बाकी है । कजरी की तान और उठान ने अमराई से पंच सितारा होटलों तक का सफर तय कर लिया है। आज भी सजनी की अपने पिया से यही मनुहार है---पिया सावनी बहार में घुमाया दा , मेलवा देखाय दा ना । मेले के प्रति उसका लगाव तो देखिए ---पिया हमहुँ चलब दुर्गा जी के मेला में , देखब घुसके ठेली ठेला में ना।
सावन में उत्सवों से सराबोर काशी का रंग ही अनोखा होता है । जरा नजर दौड़ाइये -- कण कण शिवमय , जलाभिषेक की धूम , भगवान और भक्त दोनों ही आस्था - विश्वास - प्रेम और भक्ति में भींगते हुए । ये सिर्फ धार्मिक अनुष्ठान का अवसर नहीं बल्कि पूरे समाज को जोड़ने का उत्सव बन जाता है । हर वर्ग , हर जाति और अलग अलग धार्मिक मान्यता के समूहों को एकाकार कर देता है। उमड़ घुमड़ कर बरसते बादल और बनारसियों को तृप्त करती सावन की बूंदें सांस्कृतिक सम्पन्नता की समृद्ध परम्परा का संदेश देतीं हैं । सच में फर्क करना मुश्किल सावन काशी में उतरा है या काशी सावन में समा गई है।
इसमें कोई शक नहीं कि वाराणसी का विस्तार हुआ है, पर काशी सिकुड़ती जा रही है । विकास के दबाव ने समूचा जुगराफिया ही बदल डाला । कभी हरी भरी काशी अब कंक्रीट के जंगल में तब्दील हो गई और बनारसीपन मलवों के ढेर में कतरा कतरा सांस के लिए तड़प रहा । एक दौर था जब शहर के बाग बगीचों में और सड़कों के किनारे ऊंचे ऊंचे मजबूत दरख़्त हुआ करते थे । सावनी बयार में झूमती उनकी डालियों पर झूले पड़ जाते थे । उनपर पेंग भरती महिलाएं कजरी की सुमधुर तान छेड़ती तो काशी झूम उठती । शायद इसी दिलकश नजारे को देख कहा जाता रहा - सावन में झूला झूले काशी। मंदिरों में झूलनोत्सव की श्रंखला अब भी सजती है। काशीपुराधिपति महादेव से लेकर हर देवी देवता सावनी झूले पर आरूढ़ होकर भक्तों को निहाल करते हैं। आबादी के बढ़ते दबाव ने भले ही क्षेत्रफल कम किया पर बनारसियों का दिल संकरा नहीं हुआ , उसमें आज भी बनारसी परम्पराओं को जिंदा रखने की लंबी चौड़ी जगह कायम है । सावन में दुर्गाकुंड और सारनाथ का मेला अब भी अपनी सैकड़ों साल पुरानी रवायतों को समेटे हर साल सजता है । दुर्गा जी , मानस मंदिर से लेकर संकटमोचन मंदिर तक सावनी मेले के हुजूम की बानगी देखते बनती है । यही हाल सारनाथ के सावनी मेले का भी है । वहां के वो बाग बगीचे जहाँ कभी अहरे की धीमी आंच से उठता धुंआ और उस पर
पकते बाटी , चोखा , दाल की सोंधी खुशबू बनारस के बहरी अलंग की मस्ती भरी रवायत के जिंदा रहने की तस्दीक करती थी , वो अब भले ही बीते दिनों की दास्तान बन कर रह गई हो , लेकिन बनारसी मन है कि मानता नहीं , लोग अब भी उसी आस्था के साथ बाबा सारंग नाथ के दर्शनों के लिए उमड़ते हैं । यह देख सुन मुंह से बरबस निकल पड़ता है - वक्त लाख थपेड़े मारे , विकास की अंधी दौड़ कितना हूँ रौंदे , बनारस की सांस्कृतिक - धार्मिक तहजीब और रवायत जिंदा रहेगी । इसीलिए तो कहते है -ये जिंदा शहर बनारस है ।
■ काशी के कलमकार प्रदीप कुमार की कलम से
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