रोचेस्टर की डायरी 9
दिन करीब आते जा रहे थे , लेकिन अमेरिका के शहर रोचेस्टर में दीवाली जैसा कोई माहौल नजर नहीं आ रहा था। कारण भी स्पष्ट था । भारतीयों की संख्या कम होने से बाजारों में भी कोई रौनक नहीं थी । जबकि क्रिसमस आने में अभी 2 माह बाकी हैं, फिर भी बाजारों में इसकी उपस्थिति का दमदार एहसास होने लगा है ।
दूसरी तरफ अपने यहां तो दशहरा बीता नहीं कि दीवाली का इंतजार शुरू हो जाता है । बाजारों में इसकी झलक तो काफी पहले से ही मिलने लगती है । घरों की साफ-सफाई से लेकर पर्व से जुड़ी तमाम चीजों का इंतजाम करना तकरीबन सभी घरों में अपने - अपने सामर्थ्य के अनुसार शुरू हो जाता है।
ऐसे में बचपन की दीवाली को कैसे भुलाया जा सकता है। तब हमारे लिए दीवाली के मायने होते थे घर के बाहर और अंदर ढेर सारे दीपक जलाना, उन्हें इस तरह कतार में रखना कि दूर से देखने में सुंदर दिखे। फूलझड़ी और कुछ छोटी मोटी आतिशबाजी हो जाती थी। सामान्य दिनों से अच्छा खाना पीना । बस इतने से हम खुश हो जाते थे। हां सुबह सुबह उठकर सारे दीपक इकट्ठा जरूर करते थे । उनका क्या इस्तेमाल होता था, यह अब याद नहीं आ रहा है ।
पर किशोर वय तक आते-आते आतिशबाजी दीया और मोमबत्ती की तुलना में ज्यादा महत्वपूर्ण हो गई। पटाखों का आकर्षण बढ़ चुका था। 15 दिन पहले से ही इसके लिए पाकेेट मनी में से ही बजट बनने लगता और यह काम पूरी गंभीरता से होता था । जैसे कोई राज्य का बजट बन रहा है। मेरे बाल सखा अच्छी तरह जानते हैं कि पैसा ज्यादा ना होने के बावजूद कौन सा पटाखा कितनी मात्रा में लेना है , इस पर खूब आपसी मंथन होता था ।
रोशनी की बजाय अब तेेज धमाके वाली आवाज ज्यादा पसंद आने लगी थी। वह भी क्या दिन थे और क्या सोच थी कि हम इसे प्रतिष्ठा और शक्ति प्रदर्शन से जोड़कर देखने लगे थे।
जबकि घर में पसंद नहीं किया जाता था ।
जब बुद्धि ही ऐसी हो गई हो , तब पर्यावरण प्रदूषण की चिंता भला कैसे होती। दीवाली के बीतने के बाद हारे हुए जुआरियों जैसी हमारी जेब खाली हो जाती थी । यद्यपि यह बात भी सोलह आना सही है कि तब हमें इसका बिल्कुल अफसोस नहीं होता था।
आतिशबाजी के बढ़ते चलन के साथ ही वह दौर भी आया , जब टिमटिमाते दीयों की लौ कमजोर पड़ने लगी थी और विद्युत झालरों की रंंगीनी मकानों पर दिखने लगी । यह धीरे-धीरे होंड. में तब्दील हो गई । पर मेरा घर इससे काफी समय तक अछूता रहा। लेकिन जिन घरों पर झालर लगते , उन्हें हम प्रशंसा की दृष्टि से देखते। पिछले कुछ वर्षों से कभी-कभार हमारे घर भी झालर लगने लगे, लेकिन यह घर में बहुत पसंद नहीं किया जाता था।
कोई भी भाव या विचार स्थायी नहीं होता । समय का प्रवाह कहें अथवा आयु में हुआ परिवर्तन , अब तो दीवाली पर सिर्फ दीपक जलाने का मन करता है और लक्ष्मी - गणेश की पूजा होते देखना अच्छा लगता है। आतिशबाजी अब प्रदूषण फैलाने वाले प्रतीत होती है और तेज आवाज के पटाखे तो पसंद ही नहीं हैं।
लीजिए, बात रोचेस्टर में दीवाली मनाने पर होनी थी , लेकिन पता नहीं कैसे बनारस की दीवाली याद आ गई। खैर हम रोचेस्टर की दीवाली पर ही अपना ध्यान केंद्रित करेंगे।
रोचेस्टर में मंदिर ही वह स्थान है , जहां पर दीवाली समझ में आती है । यह मंदिर पिट्सफोर्ड इलाके में पिनेकल रोड पर है। वैसे भी छुट्टी नहीं होने से त्योहार तो शाम को ही मनाया जा सकता है । इसलिए छोटी दीवाली पर हम लोग मंदिर में पहुंच गए ।
अपने देश में तो त्योहारों पर मंदिरों को खूब सजाने की परंपरा रही है , लेकिन यहां वैसा कुछ नहीं दिखा। बाहर न कोई सजावट न धूमधाम दिखी।
यद्यपि इस वातानुकूलित मंदिर में अंदर जाने पर प्रफुल्लित भारतीय चेहरों को देखकर त्यौहार का उल्लास जरूर समझ में आया । मंदिरों में ऐसे अवसरों पर जो अनुष्ठान अपने यहां होते हैं, वह यहां भी हुए। समवेत स्वरों में पूजा के मंत्र और भजन कर्णप्रिय लग रहे थे। पर छोटे बच्चों को इससे क्या मतलब । वह तो मौका मिलने पर धमाचौकड़ी मचाते रहे।
जबकि बड़ों के लिए त्यौहार मिलन स्थल जैसा नजर आया । हम अपनी सुनाए और तुम अपनी, वाला वातावरण था । इसे धार्मिकता से नहीं सामाजिकता से जोड़ना मुझे ज्यादा उचित लगा ।
अपने देश की तरह यहां भी महिलाएं धार्मिक क्रियाकलापों में अधिक तल्लीन दिखीं। जबकि पुरुषों की चित्तवृत्ति स्थिर नहीं रह पाती। कुछ बच्चों को संभालने में, कुछ भजन कीर्तन में, कुछ फोटो खींचने और वीडियो बनाने में दीवाली का सुख पाते रहे ।
एक बात मुझे अटपटी जरूर लग रही थी वह था कार्यक्रम का संचालन अंग्रेजी में होना । जब हिंदी में भजन - कीर्तन और संस्कृत के श्लोक पढ़े जा रहे थे तो हिंदी में उद्घोषणा करने में क्या दिक्कत थी । जो कान हिंदी और संस्कृत सुनने के अभ्यस्त थे, वह उद्घोषणा भी अगर हिंदी में की जाती तो शायद और अच्छा लगता ।
वैसे बरसों से अमेरिका में रहने के बावजूद भारतीयों ने अपनी धरोहर को इतना कुछ बचा रखा है , तो यह कम संतोष की बात नहीं है ।
आरती के बाद प्रसाद , भोजन के लिए सभी ने कतारबद्ध होकर अपनी बारी का इंतजार किया। भोजन बिल्कुल भारतीय व शाकाहारी था। मंदिर को दान में मिले हुए धन से ही यह सब व्यवस्था की जाती है ।
रोचेस्टर में दीवाली को टुकड़ों- टुकड़ों में देखने - समझने का अवसर मिला। वह भी एक दिन में नहीं। मैंने सोचा कि कोई बात नहीं । सभी को जोड़ देने पर त्यौहार की एक मुकम्मल तस्वीर बन जाएगी ।
हैप्पी दीवाली के नाम से एक आयोजन इंडिया कम्युनिटी सेंटर में भी रखा गया था । यह स्थान विभिन्न अवसरों पर भारतीयों का एक मिलन स्थल भी माना जाता है।
यहां के थिएटर में आयोजित होने वाले कार्यक्रम में शामिल होने के लिए टिकट लगाया गया था । जब मैं वहां पर पहुंचा , तो हाल पूरी तरह से भर चुका था । कार्यक्रम के दौरान हाल में अंधेरा कर दिया गया था और स्टेज पर रंग बिरंगी लाइटों के बीच में मनमोहक कार्यक्रम शुरू हो गया। गीत - संगीत पर आधारित यह कार्यक्रम अच्छा इसलिए भी लगा क्योंकि यहां बंगला में रविंद्र संगीत सुनने का पहली बार अवसर मिला। और शास्त्रीय संगीत की प्रस्तुति बड़ी शानदार लगी। तारीफ इसलिए भी करनी चाहिए क्योंकि इसे प्रस्तुत करने वाले पारंपरिक कलाकर नहीं थे । यह उत्साही भारतीय थे , जिन्होंने वर्षों से रोचेस्टर को ही अपनी कर्मभूमि बना रखा है। इस दौरान हिंदी , पंजाबी गुजराती , बंगला आदि भाषाओं के गीत प्रस्तुत किए गए।
हिंदी में सिनेमा के गीतों का ही बोलबाला रहा । कुछ ने गानों में तो कुछ ने नृत्य में अपना कौशल दिखाया ।
फिल्मी गीतों का संगीत वाला मुखड़ा सुनाकर उन पर आधारित अंत्याक्षरी भी मजेदार रही। सही जवाब बताने पर चॉकलेट जैसा पुरस्कार भी दिया जाता था ।
अमेरिका में हिंदी सुनना अच्छा लग रहा था , लेकिन यह प्रेमचंद और भारतेंदु के योगदान को गिनाने वाली हिंदी नहीं है। यह वह हिंदी है जो हिंदी सिनेमा के जरिए दुनिया भर में फैलती जा रही है। साहित्य प्रेमी इसे अन्यथा ना लें परंतु यह जमीनी सच्चाई लगती है । आखिर में भोजन की व्यवस्था थी। जिसके साथ ही कार्यक्रम को विराम दिया गया।
रोचेस्टर में दीवाली एक और तरह से भी मनाई जाती है । आपस में परिचितों का एक वर्ग किसी के घर पर इकट्ठा होता है। ऐसा ही एक आमंत्रण हमको भी मिला था। मेजबान थे डॉक्टर मोहन राव। यहां रोचेस्टर जनरल अस्पताल में वरिष्ठ हृदय रोग विशेषज्ञ हैं। बंगलुरु के रहने वाले हैं । लंबे अरसे से रोचेस्टर में ही बस गए हैं । उनके विष्णु और कृष्ण नाम के दो बच्चे यह बताने के लिए पर्याप्त थे कि भारतीय संस्कृति उनका लगाव कम नहीं हुआ है । यहां पर निमंत्रित लोग पेशे से चिकित्सक थे, जिनमें कुछ अमेरिकन भी थे । पहले के आयोजनों में आतिशबाजी नहीं देखी थी, लेकिन यहां पर आतिशबाजी देखने की साध भी पूरी हो गई।
मेेजबान डॉक्टर साहब ने बहुत सारे पटाखे खरीद रखे थे । आतिशबाजी के लिए घर के बाहर लान में सभी लोग जमा हो गए । कुछ डॉक्टर संकोच के साथ तो कुछ बड़े उत्साह के साथ आतिशबाजी में शरीक हुए। बच्चे तो बच्चे ही ठहरे उनका क्या कहना । फिर भी बड़ों में सर्वाधिक उत्साह तो मेजबान डॉक्टर साहब में दिखाई दे रहा था।
उन्होंने मुझसे भी पटाखा छुड़ाने में सहयोग करने के लिए कहा, तो मैंने दीवाली का वीडियो बनाने और तस्वीरें खींचने में अपनी अधिक दिलचस्पी की बात बताई।
एक बात मुझे जरूर जाननी थी कि क्या आतिशबाजी के लिए यहां कोई अनुमति लेनी पड़ती है अथवा उसकी कोई जरूरत नहीं है । तब डॉक्टर ने हंसते हुए बताया कि मैंने पड़ोसियों को इसके बारे में बता दिया है । उनकी तरफ से कोई आपत्ति नहीं है। आतिशबाजी के बाद ग्रुप में फोटोग्राफी हुई और हम खाने की मेज पर पहुंचे ।
यहां भी भारतीय व्यंजन और वह भी शाकाहारी। इस टेबल पर गोलगप्पा को देखकर दिल खुश हो गया । खाते समय लगा कि सचमुच किसी विशेषज्ञ हाथों ने इसका मसाला तैयार किया होगा । क्योंकि पानी और मसालों का संतुलन बहुत उम्दा था न कम न ज्यादा । सचमुच बनारस की याद आ गई।
सांभर भी ऐसा ही लगा जैसे किसी दक्षिण भारतीय रेस्टोरेंट में परोसा गया हो। सौंफ- इलायची की प्लेट भी हमारी नजर से बच नहीं सकी।
डॉक्टर लोग अक्सर खाने पीने में लोगों को नसीहत देते समझ में आते हैं। लेकिन यहां तो मानो नसीहत को ही छुट्टी दे दी गई हो कि जाओ भाई एक दिन बाद आना ।
खाने में सबकी पसंद का ख्याल रखा गया था । अभी तक मैंने यही महसूस किया है कि भारतीयों ने भाषा, तहजीब, परिधान को लेकर चाहे जो भी बदलाव स्वीकार किया हो, लेकिन भारतीय व्यंजनों को छोड़ने की कोई नहीं सोचता ।
इसमें समझौता करना मुश्किल है। खाना-पीना होने के बाद विदा लेना ही बाकी था । मेहमान नवाजी अच्छी थी ।
मेजबान सपरिवार रात में घर के बाहर ठंड में खड़े होकर सभी मेहमानों के जाने का इंतजार करते रहे।
यह तो हुई रोचेस्टर वाली दीवाली की बात । पर एक बात तो बताया ही नहीं कि अपनी दीवाली कैसे मनी? सीधा सा जवाब है जैसे सभी घरों में मनाई जाती है।
क्रमश: ......
(काशी के पत्रकार आशुतोष पाण्डेय की कलम से)
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