रोचेस्टर की डायरी 5
त्योहारों और खास अवसरों पर अपने शहर और घर की याद आना स्वाभाविक ही है । अब जब दुर्गापूजा और दशहरा जैसा बड़ा पर्व हो, तो अपने बनारस को कैसे नजर अंदाज किया जा सकता है । भले ही हम 13 हजार किमी से अधिक दूर रोचेस्टर (अमेरिका ) में रह रहे हों, परंतु मन तो बनारस से दूर नहीं हो सकता है। सब याद आने लगता है।
हथुआ मार्केट , जगतगंज , सनातन धर्म इंटर कॉलेज , भारत सेवाश्रम संघ , रामकृष्ण मिशन, भेलूपुर आदि प्रमुख स्थान हैं, जहां पर नवरात्र में दुर्गापूजा की धूम अधिक रहती है । इनमें कुछ अधिक पारंपरिक हैं, तो कुछ आधुनिकता और तकनीकी का मिश्रण लिए हुए। अपने लंका बाजार में रात में होने वाला रावण का पुतला दहन तो अपने घर का आयोजन जैसा लगता है।
मन में यह भी ख्याल आता है कि जब किसी काल में कालिदास का यक्ष मेेघ को दूत बनाकर अलकापुरी भेेज सकता है, तो मैं भी अपने मन को मिसाइल बनाकर बनारस क्यों नहीं पहुंचा सकता ।
अब तो सोशल मीडिया का जमाना भी है । किस पंडाल में सजावट कैसी है ? रावण का पुतला कैसा बना है? सब आसानी से पता चल सकता है। यानी यक्ष के सामने वाला संकट अब उतना नहीं है । वीडियो काल से आंखों देखा हाल जानना संभव हो गया है। लिहाजा मन को समझाया कि अभी बहुत भावुक होने की आवश्यकता नहीं है , जो सामने उपलब्ध हो उसमें मन को रमाना चाहिए।
जब मुझे पता चला कि दुर्गापूजा और दशहरा यहां भी मनाया जाता है, तो रोचेस्टर की दुर्गापूजा को देखने के लिए मन उत्साहित हो उठा। नवरात्रि के आखिरी तीन-चार दिन यहां धार्मिक आयोजन होते हैं।
शाम का वक्त था । सब कुछ देखने जानने की उत्कंठा से हम स्थानीय मंदिर पहुंचे । जिसे स्थानीय लोग हिंदू टेंपल के नाम से जानते हैं । इसके अतिरिक्त रोचेस्टर में एक मंदिर और भी है । मंदिर के बाहर पहुंचते ही कतारों में खड़ी गाड़ियों को देखकर मुझे यह खुशी हुई कि यहां पर काफी हिंदुस्तानी लोग मिलेंगे। यही वह स्थान है जहां हिंदी बोलने का भी अवसर मिल सकता है।
मंदिर के बाहर कोई माला-फूल और प्रसाद की दुकान नहीं दिखाई पड़ी। दरवाजे से अंदर घुसे तो बाहर की ठंड बाहर ही रह गई ।
लोग अपने जूते , जैकेट आदि स्टैंड में छोड़कर अंदर जा रहे थे। मैंने भी वही किया। यद्यपि मोजा निकालने की आवश्यकता नहीं थी। इन सामानों की रखवाली करने वाला कोई नहीं था । अब तक मुझे भी इत्मीनान होने लगा था कि मेरा सामान पूर्णतया सुरक्षित है। मंदिर में किसी एक देवता की नहीं बल्कि कई प्रमुख देवताओं- देवियों की प्रतिमाएं हैं , जिनमें दक्षिण भारतीय देवता भी शामिल हैं । शिव-पार्वती , राम -सीता , राधा- कृष्ण , बालाजी, दुर्गा जी, हनुमान जी, मुरुगन, नवग्रह की प्रतिमाओं का दर्शन करते हुए हम उस हाल में पहुंचे, जहां गरबा , डांडिया का आयोजन होना था। मंदिर में हर तरफ कालीन बिछी हुई थी ।
इस प्रकार सुविधाजनक तापमान में गरबा , डांडिया नृत्य का आनंद उठाया । बहुत से लोग इसमें शरीक भी हुए जबकि मैं अनाड़ी दर्शक ही बना रहा । इस दौरान जो आवाज हो रही थी वह मंदिर के बाहर नहीं पहुंच रही थी ।
अपने देश की तरह यहां पर दूसरे की शांति में खलल डालने का प्रचलन नहीं है । सही बात तो यह है कि इसका अधिकार किसी को नहीं है।
नृत्य के बाद अगले दिन माता की चौकी का आयोजन था। जिसमें सब कुछ अपने देश जैसा ही प्रतीत हो रहा था । उद्घोषक अंग्रेजी में घोषणा भले ही कर रहे थे लेकिन जब संस्कृत के श्लोक - मनोजवं मारुत तुल्य वेगं..... कर्पूर गौरं करुणावतारं... त्वमेव माता च पिता त्वमेव.....या देवी सर्वभूतेषु ....वातावरण में गूंजने लगे, तब कुछ समय के लिए ऐसा प्रतीत होने लगा जैसे अपने देश के किसी मंदिर में बैठे यह सब सुन रहे हों। तूूने मुझे बुलाया शेरा वालिए....हनुमान चालीसा और आरती के समय सचमुच बड़ा ही आनंद आया। भले ही भारतीयों में बहुत कुछ बदल गया हो भाषा, तौर तरीका रहन सहन , परिधान आदि ।
लेकिन इन सबके बावजूद फिर भी दिल तो हिंदुस्तानी ही लगा। यद्यपि सैैकडों हिंदुस्तानियों के बीच धोती- कुर्ता पहने कोई पुरुष नहीं दिखा । जबकि दो- चार साड़ी वाली महिलाएं नजर आईं। तब क्या मान लिया जाए कि यहां इन परिधानों के दिन अब लदने वाले हैं!
केवल इस मंदिर के पुजारी जो दक्षिण भारत ( बंगलुरु) से संबंध रखते हैं , वही धोती में दिखाई पड़े । वैसे मेरी डॉक्टर बिटिया के विभागाध्यक्ष कुर्ता और पैजामा में उपस्थित हुए थे। डाक्टर साहब मूलत: मुंबई के रहने वाले हैं। कुर्ता- पैजामा में और लोग भी थे । जिससे यह अनुमान लगाया जा सकता है कि धोती- कुर्ता की बजाय अभी कुर्ता- पैजामा का चलन आगे भी बना रह सकता है।
प्रसाद में फल , चरणामृत दिया जाता है । दक्षिण के मंदिरों की तरह ही पुजारी जी सिर पर कटोरी रखकर श्रद्धालुओं को आशीर्वाद देते हैं ।
यह परंपरा उत्तर भारत के मंदिरों में नहीं दिखती है । मंदिर में फूल चढ़ाना है तो घर से लेकर आना होगा । वैसे सबके हाथ में फूल भी नहीं होते । दशहरा पर यहां रावण का पुतला दहन होने से पूर्व संक्षेप में रामलीला भी होती है । थोड़ा विलंब से आने के कारण रामलीला देखने का आनंद हम नहीं ले सके ।
हमारे पहुंचने के वक्त तक रावण के पुतले में आग लग चुकी थी । कुछ लोग उसका वीडियो बना रहे थे, जिनमें मैं भी शरीक हो गया। इसके पूर्व राम जी की प्रतिमा की सवारी निकाली गई। भक्तों ने खुद प्रतिमा को उठा रखा था । जय श्री राम के जयकारे के बीच आयोजन का समापन हुआ ।
एक बात बिना लिखे रहा नहीं जाता। यहां की साफ-सफाई प्रशंसनीय है। मंदिर के टॉयलेट तक ऐसे थे जैसे किसी होटल का हो । सच में जब गंदगी देखकर हमें शर्म महसूस होने लगेगी, तब स्वच्छता खुद-ब-खुद चारों तरफ नजर आएगी।
अपने देश की तरह इस मंदिर की अर्थव्यवस्था भी पूर्णतया दान पर निर्भर है । माइक से महीने भर के खर्च का जिक्र करते हुए लोगों से दान देने की अपील भी की गई , जो मुझे अनुचित इसलिए नहीं लगता है क्योंकि इस धन पर ही मंदिर का सारा क्रियाकलाप निर्भर करता है। यद्यपि दानदाताओं की यहां कमी नहीं समझ में आई , क्योंकि आमतौर पर लोग कुछ ना कुछ दान करते ही रहते हैं।
क्रमश:.....
(काशी के पत्रकार आशुतोष पाण्डेय की कलम से)
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