अमूमन महत्वाकांक्षी भारतीयों के लिए अमेरिका अपने सपनों को पूरा करने का एक गंतव्य स्थल जैसा माना जाता है। बहुतेरे ऐसे उदाहरण हैं, जब अलग-अलग कार्य क्षेत्र में काम करने वाले लोग अमेरिका पहुंचते हैं। पहले तो उनको वहां पर बहुत कुछ नया- नया अनुभव होता है।
लेकिन वही कालांतर में खुद अमेरिकी समाज का हिस्सा बन जाते हैं। यहां 'क्यों' का जवाब तलाशने के लिए मुझे अनुमान लगाना पड़ता है। अच्छा वेतन, काम करने का पक्षपात रहित अनुकूल वातावरण, उत्तम नागरिक सुविधाएं, प्रभावी कानून व्यवस्था और समानता का अनुभव कराने वाला अमेरिकी समाज संभवत: भारतीयों को खूब मन भाता होगा । अगर यह सब न हो तो अपना देश छोड़कर कोई इतनी दूर भला क्यों जाएगा?
यदि कोई अपना काम ईमानदारी से करता है तो ऐसे लोगों को अमेरिका पसंद करता है ।
कॅरियर बनाने आते हैं अमेरिका
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पहले यही भारतीय अमेरिका में कैरियर चमकाने आते हैं फिर धीरे-धीरे अमेरिकन बन जाते हैं। हालांकि तब भी अपने देश से उनका लगाव पूरी तरह खत्म नहीं होता। भले ही नागरिकता अमेरिका की हो, पर भारत में होने वाली गतिविधियों पर खूब नजर रखते हैं।
सात समुंदर पार रहने के बाद भी कहीं न कहीं उनका अपना गांव, कस्बा अथवा नगर दिल में जरूर बसा होता है।
जौनपुर से अमेरिका तक का सफर
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अमेरिकी शहर रोचेस्टर में बसने वाले तेजप्रताप बिसेन की कहानी भी कुछ इसी प्रकार की है। बिसेन साहब बनारस के पड़ोसी जिले जौनपुर में मड़ियाहूं इलाके के रहने वाले हैं ।
वह रोचेस्टर शहर में तभी आ गए थे जब रोचेस्टर का बहुत विस्तार नहीं हुआ था । यह बात वर्ष 1982 की है। कैमरा बनाने वाली कोडक कंपनी में उन्होंने काम किया। यहां मन ऐसा लगा कि रिटायर होने तक वहीं रह गए।
अब तो वह अमेरिकी नागरिक की हैसियत से वोट भी देते हैं । लेकिन जौनपुर के टीडी कालेज में बिताए अपने छात्र जीवन को आज भी वह याद करना नहीं भूलते हैं ।
रोचेस्टर के मंदिर में जब उनसे मुलाकात हुई, तब उन्होंने खुद अपना परिचय दिया और हमारे बारे में जाना। अब हम अपरिचित नहीं रह गए थे । सिलसिला और आगे बढ़ा और वह बाटी चोखा खाने हमारे घर आए और हम भी एक दिन उनके आवास पर जा पहुंचे।
बिसेन साहब की पत्नी सरोज का मायका बनारस की नाटी इमली में है। वैसे उनका पैतृक घर भदोही जिले के सुरियावां में है।
बातचीत आगे बढ़ी तो उन्होंने जौनपुर में बोली जाने वाली अवधी बोली का प्रयोग करके मुझे अपने गांव की याद दिला दी।
रोचेस्टर में अवधी बोली भाई वाह
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प्रयागराज के मेरे गांव में भी यही अवधी बोली जाती है। मिसाल देखिए- कहां जात हय....केतना दिन रहब... आपन गांव अच्छा बा ... यह सब अवधी के नमूने हैं।
इसी तरह माई...मावा.. बबा..आजी... जैसे शब्द यहां सुनने में मुझे बड़ा अच्छा लगा। युवावस्था में रोचेस्टर आए बिसेन साहब के दो बेटे हुए । आज दोनों ही डॉक्टर हैं। जिसमें से एक न्यूजर्सी में और दूसरा क्लीवलैंड में रहता है ।
अब बच्चों के भी बच्चे हो गए हैं। छुट्टियों में कभी-कभी बिसेन परिवार उनके यहां चला जाता है , तो कभी बच्चे भी छुट्टियां मनाने रोचेस्टर चले आते हैं ।
खाने में बिसेन साहब के यहां बिल्कुल देसी भोजन बना था । वही दाल-चावल-रोटी-सब्जी । अपने घर वाली बात । खाने के वक्त भी कई बार कुछ और लेने के लिए कहना यह अमेरिकी परंपरा नहीं है बल्कि भारतीय ही ऐसा आग्रह करते हैं ।
ढोकला उन्होंने खासतौर पर बनाया था । कोल्ड ड्रिंक से उन्होंने स्वागत किया था । यदि इच्छा जताते तो हाॅट भी उपलब्ध था ।
भोजन खत्म हो गया था पर बातें खत्म नहीं हो रही थीं। उन्होंने पांच साल पहले अपनी भारत यात्रा की चर्चा की और फिर भारत आने की इच्छा भी जाहिर की। हमने भी उनको बनारस आने का न्योता दिया।
बिसेन साहब के घर से बाहर निकले तो याद आया कि अपनी टोपी तो जल्दबाजी में वहीं छोड़ आए। फिर सोचा कि चलो कम से कम इसी टोपी के बहाने वह हमें याद तो रखेंगे। (काशी के कलमकार आशुतोष पाण्डेय की कलम से)
क्रमश: ........
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