परदेस से घर लौटना एक सुखद एहसास है । और यह अनुभव मुझे रोचेस्टर में चार माह व्यतीत होने के कुछ पहले से ही होने लगा था। यात्रा शुरु होने में दो दिन बचे थे लेकिन अपने देश लौटने की तैयारी सामान की पैकिंग के साथ पूरी हो चुकी थी।
भले ही रोचेस्टर अपने घर जैसा लगने लगा था, पर घर का मतलब तो बनारस ही होता है । अमेरिका आते वक्त हम दो लोग थे, लेकिन वापसी में तीन यात्री और बढ़ गए थे। ऋतंभरा और देवेश अपनी एक माह की छुट्टियों में भारत आ रहे थे । हमारे साथ नन्हे रिवांंश भी थे, जिनकी यह पहली विदेश यात्रा थी।
अमेरिका की यात्रा इतनी लंबी और उबाऊ होती है कि मुझे लगता है कि जहाज में बैठने के लिए साधकों वाला चित्त होना चाहिए। ईमानदारी से कहा जाए तो स्वाभाविक तौर पर यह गुण अपेक्षित मात्रा में मेरे पास नहीं है ।
रोचेस्टर से नेवार्क, नेवार्क से दिल्ली, दिल्ली से बनारस अर्थात तीन चरणों वाली यात्रा मेरे लिए वास्कोडिगामा के अभियान से कम नहीं थी। रोचेस्टर से नेवार्क की दूरी जहाज से सवा घंटे की है। घर से निकले तो रिमझिम शुरू हो चुकी थी । जबकि कई दिनों से जमा बर्फ करीब-करीब पिघल चुकी थी । लेकिन ठंड पर्याप्त थी।
दिन में 1:15 बजे उड़ान का समय था और हम वक्त पर एयरपोर्ट पहुंच गए थे । यूनाइटेड की लगभग सवा घंटे की उड़ान के बाद हम नेवार्क एयरपोर्ट पर थे । यहां से पांच घंटे बाद यूनाइटेड एयरलाइंस से नई दिल्ली की यात्रा शुरू होनी थी। एयरपोर्ट पर पांच घंटे में हम जितना घूम सकते थे , देख सकते थे वह सब हमने किया । हल्का नाश्ता किया और कॉफी पी । भोजन तो जहाज में मिलना ही था।
अमेरिकी विमान सेवा और हिंदी
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यूनाइटेड एयरलाइंस अमेरिका की विमान सेवा है । इससे हमारा सफर शुरू हुआ। इस जहाज में अधिकतर यात्री भारतीय थे । रात 8:15 बजे यह यात्रा शुरू हुई। दिल्ली में इसके पहुंचने का समय रात 9:30 बजे था। यानी 20 तारीख की रात प्रस्थान और 21 तारीख की रात दिल्ली आगमन। इस समय के बीच में दिन- रात का अंतर भी छिपा हुआ है ।
यह अविराम यात्रा 14 घंटे कुछ मिनट की थी । इसके बारे में अंग्रेजी में हमें जानकारी दी गई । तत्पश्चात हिंदी भाषा में यात्रियों का स्वागत किया गया और सभी सूचनाएं भी हिंदी में भी दोहराई गई। इसका मतलब यह हुआ कि कम से कम एक हिंदी भाषी कर्मचारी यूनाइटेड ने भी अपने साथ रखा है । यह अर्थशास्त्र में मांग और आपूर्ति के सिद्धांत के अनुरूप ही लगा। शायद यह बाजारवाद का ही प्रभाव है। सोचकर अच्छा लगा कि चलो इसी बहाने अपनी हिंदी तो बढ़ ही रही है।
एक बार फिर नॉनवेज का चक्कर
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जहाज के उड़ान भरने के एक घंटे के भीतर हमें भोजन परोसा गया। शुद्ध शाकाहारी की मांग के बावजूद मुझे जो दिया गया , उसमें डिब्बाबंद चिकन भी शामिल था। अच्छा हुआ कि खाने की शुरुआत नहीं हुई थी। जब मैंने उसके बारे में प्लेन अटेंडेंट को बताया , तो उन्होंने वह पैकेट निकाल लिया ।
इसके बाद मेरे पास जो बचा वह थोड़ा सलाद, एक छोटा पाव, मक्खन, छोटी चाकलेट। भोजन के लिए यह पर्याप्त नहीं था । लेकिन मरता क्या न करता वाली हालत थी । थोड़ी देर बाद उन्होंने तहरी और ऑरेंज जूस भी लाकर दिया । मैंने मन को तसल्ली दी कि शाकाहारी बनने पर कुछ तो सहना ही पड़ेगा।
जब यात्री की तबीयत खराब हुई
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खाना खाने के बाद लाइट बुझा दी गई। मुझे नहीं सोना था , इसलिए मैंने सीट के सामने स्क्रीन में सर्च करना शुरू कर दिया । पहले जहाज की लोकेशन जानी और हिंदी फिल्म मेरे ब्रदर की दुल्हन में मन रमाने लगा। ठीक-ठाक कॉमेडी वाली फिल्म धीरे-धीरे रफ्तार पकड़ रही थी।
जहाज के अंदर पूरी शांति थी , तभी अचानक की गई उद्घोषणा ने मेरा ध्यान भंग कर दिया। कुछ देर बाद समझ में आया कि शायद किसी को मेडिकल सहायता की जरूरत है। थोड़ी देर बाद देखता क्या हूं कि अपने देवेश जी उस यात्री की सीट पर पहुंच गए हैं। कई और लोग भी सीट के आसपास जमा होने लगे थे। तब देवेश जी को छोड़कर सबको अपनी सीट पर लौटने को कहा गया।
यह सब देखकर मुझे भी घबराहट होने लगी कि पता नहीं आगे क्या होगा? देवेश जी ने क्या किया यह तो मुझे नहीं दिखा। लेकिन फ्लाइट अटेंडेंट कई उपकरणों के साथ वहां मौजूद रहे। जिससे मैंने यात्री के उपचार किए जाने का अनुमान लगाया।
थोड़ी देर बाद यात्री को आराम मिलने पर देवेश जी अपनी सीट पर लौटे। तब उन्होंने जो बताया, वह वाकई मजेदार था । जहाज में शराब भी परोसी जाती है लेकिन सीमित मात्रा में। उक्त यात्री ने चालाकी यह की थी कि उसने अपना वाला हिस्सा तो लिया ही, पत्नी के नाम पर मंगाकर उसे भी उदरस्थ कर लिया था । यह मात्रा संभवतः ज्यादा हो गई होगी, जिसका परिणाम ऊपर वर्णित है।
25 सौ मील मुफ्त सफर की सुविधा का उपहार
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डॉक्टर का कर्तव्य समय से और सही ढंग से निर्वाह करने के एवज में यूनाइटेड एयरलाइंस की तरफ से देवेश जी को धन्यवाद दिया गया और प्रोत्साहन स्वरूप उनको 25 सौ मील निशुल्क यात्रा की सुविधा प्रदान की गई । विमान कंपनी का यह कार्य सचमुच सराहनीय लगा।
उधर बिटिया ऋतंभरा का मजाक भी कम नहीं था। उसका तो कहना यही था कि देवेश जी तो जहाज में हमेशा ही दूसरों की मदद के लिए हमेशा हाजिर रहते हैं । बस मौका ही नहीं मिल पाता।
यात्रा का अन्य अनुभव पहले जैसे ही रहा। इसमें कोई नवीनता नहीं रही। जहाज जब नई दिल्ली के इंदिरा गांधी अंतरराष्ट्रीय एयरपोर्ट पर पहुंचा तो सीट पर बैठे-बैठे शरीर में मानो जान आ गई। सामान लेकर बाहर निकले । यहां दूसरी बिटिया रत्नप्रभा ने हमारा स्वागत किया । करोल बाग स्थित होटल में पहुंचते-पहुंचते काफी रात हो गई थी।
खाने के लिए जो ऑनलाइन आर्डर दिया गया था, वह रात एक बजे तक भी नहीं पहुंचा , तो भोजन की आस छोड़कर सोने की तैयारी करने लगे।
अगले दिन सोकर उठे तो यात्रा की खुमारी कुछ कम हुई थी । दोपहर में हम सभी एक बार फिर द्वारका सेक्टर 21 पहुंचे। वसुमित्र उपाध्याय जी के इसी आवास से हमारी अमेरिका यात्रा का श्रीगणेश हुआ था। शाम को शिवगंगा एक्सप्रेस से दिल्ली से बनारस की यात्रा बड़ी सुखद लगी। कहां जहाज में सिमटे- सिकुड़े बैठे रहना और कहां ट्रेन में लंबे पांव पसार कर सोते-सोते बनारस आना। दोनों में भला कोई तुलना है ? बनारस स्टेशन से बाहर निकले तो होठों पर मुस्कान थी । सामने था अपना प्यारा सा शहर। भले ही कितना बूढ़ा हो गया हो यह , पर अपनी सांसों में ही बसता है।
क्रमश: .......(काशी के कलमकार आशुतोष पाण्डेय की कलम से)
(यात्रा खत्म हुई है पर वृत्तांत नहीं )
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