सचमुच यह बर्फ वाले दिन और रातें मेरे लिए यादगार ही हैं। सुबह आंख खुलते ही खिड़की के बाहर बर्फ की चादर बिछी नजर आती है। दिन उसी में बीत जाता है। रात में भी कभी नींद खुल गई तो बाहर की बर्फ रोशनी में चमकदार दिखाई पड़ती है।
अगर आसमान में चंदामामा भी हों, तब तो इस दृश्य को शब्दों की परिधि में बांधना कविता कर्मियों के वश की बात है।
जनवरी के मध्य में रोचेस्टर में यही नजारा इन दिनों दिख रहा है । पिछले कई दिनों से तापमान माइनस में चल रहा है । ऐसे में जीरो के तापमान को हम अब अच्छा मानने लगे हैं। गौरतलब है कि इस मौसम में हम माइनस 14 तक का अनुभव रात में कर चुके हैं। तब बाहर वाली ठंड की कल्पना कर खिड़की पर लगा पर्दा गिरा दिया था ।
स्वाभाविक है रात में सोने के बाद तापमान और भी गिरता होगा। पर उसका इल्म नहीं हो पाया ।
जनजीवन पर असर नहीं
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अपने देश में तापमान चार-पाँच तक आया नहीं कि स्कूलों में छुट्टियां शुरू हो जाती हैं। लेकिन यहां तो स्कूल- कालेज, बाजार, दफ्तर , सभी खुले रहते हैं । सारा काम चल रहा है। मौसम का कोई गतिरोध देखने में नहीं मिलता। सुबह सात बजे बच्चों को लेने वाली स्कूल बस आ जाती है। जबकि तब तक ठीक से सुबह तक नहीं हुई रहती। सड़क पर कितनी भी बर्फ पड़ी हो लेकिन सुबह उसे साफ कर दिया जाता है। इस तरह यातायात में कोई बाधा नहीं रहती।
ठंड ने थामे मेरे पांव
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तापमान माइनस में पहुंचने का सीधा असर मुझ पर यह पड़ा कि बाहर पैदल घूमने का जो क्रम चल रहा था, वह अनिश्चितकालीन बाधित हो गया । अब घर में रहकर साइकिलिंंग (अभ्यास ) करना ही विकल्प बन गया।
जबकि मुझे प्रोत्साहित करने वाली घटनाएं तब भी हो रही थीं। बर्फ के बीच कुत्ते लेकर टहलने वाले निडर भी एक मिसाल थे । पर मैं कहां उनको नजीर मानने वाला था ।
गिलहरी की जिजीविषा
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रोचेस्टर में जिस घर में हम रहते हैं, वहां बगीचे में गिलहरियों का एक परिवार रहता है। उसे परिवार ही कहना चाहिए क्योंकि उसके कई सदस्य अक्सर देखे जाते हैं । मेरे आने के पूर्व ही उनका इस घर से बड़े नेह का नाता रहा है ।
ऋतंभरा उनको प्रतिदिन आवश्यकतानुसार ब्रेड आदि दिया करती है । अगर किसी दिन न मिले तो वे खुद ही मांगने भी पहुंच जाती हैं। ऐसा लगता है जैसे आगे के दोनों पंजे उठाकर हाथ जोड़ रही हो। यह अदा देखने के बाद भला कौन नहीं रीझेगा उन पर? उसकी यह अदा हमें भी देखने का अवसर मिला है।
मुझे मालूम है कि बगीचे के पेड़ का कोटर ही उनका घर है । जब बर्फ बढ़ी तो गिलहरियों का दिखना कम होने लगा । खाने के लिए रखी ब्रेड अगले दिन भी अपने स्थान पर रखी मिलती। तब मेरी चिंता थोड़ी बढ़ी पर यह एक-दो दिन ही चला होगा ।
मुझे अच्छा तब लगा जब बर्फ पर गिलहरी के पैरों के निशान नजर आए और रखी हुई ब्रेड गायब मिली। अद्भुत है इनकी जिजीविषा और उनका प्रकृति से संघर्ष । यह छोटे-छोटे जीव भी कभी-कभी कितना बड़ा संदेश दे जाते हैं। (काशी के कलमकार आशुतोष पाण्डेय की कलम से)
क्रमश: ........
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