दाल फ्राई और कालेज के दिन
भोजन की विविधताओं में भले ही स्त्रियों का एकाधिकार हो किंतु दाल फ्राई बनाने में अधिकतर एक दशक के पहले वाले लड़के ही बेजोड़ होते थे। आज तो अधिकतर हॉस्टल में मेस ए सी की व्यवस्था होती है किंतु पंद्रह बीस पहले ऐसा नही था। इंटर की परीक्षा के बाद या स्नातक के बाद अधिकतर छात्र उच्च शिक्षा के लिए बच्चे बाहर जाते पहला आकर्षण इलाहाबाद हुआ करता था इसके पश्चात वाराणसी लखनऊ आदि शहर हुआ करते थे ।वो चाहे जिस शहर में वो जाएं किंतु रहने की जगह लगभग एक जैसी होती एक अदद कमरे में एक तख्त या फोल्डिंग एक मेज कुर्सी स्टूल ही उनके गृहस्थी का हिस्सा होता था सामने एक लटकती हुई अरगनी जिस पर कपड़े फैलाए रहते । किसी को कोई गुमान नही क्यों कि बाहर निकल कर सभी एक जैसे हो जाते कुछ दिन बीतने के साथ ही आटा चावल का अंदाज इन लड़कों को बेहतर हो जाता जो कभी घर में आटा पिसाने के अलावा कुछ नही करते थे । अभावों की इस जिंदगी में सबसे ज्यादा साथ निभाने वाला भोज्य पदार्थ खिचड़ी चोखा या चावल दाल रहता।
विश्वविद्यालय या कोचिंग से लौटते हुए भूख अपने बैताल की तरह सवार हो जाता कमरे तक आते आते साइकिल भी ठीक से नहीं खड़ी हो पाती तख्ते के नीचे से झांकते कूकर को उठाकर अंजुरी से अंदाज करके दाल और चावल निकलता हल्दी नमक डालने के बाद कूकर के ढक्कन से झांकते यह संतुष्टि हो जाती कि कुछ फसा नही है ढक्कन बंद करके कुछ देर बाद जब सीटी नही आती तो उसे कुछ ठोकना पड़ता इधर उधर से निकलता भाप जब बंद होता तब कहीं जाकर सीटी बजती। कूकर में पड़े दाल की सीटी के साथ बनती हुई दाल भी थोड़ी बाहर आ जाती भूख और समय के बीच कभी कभी अधपकी दाल ही निकल जाता बाद में उसे पीतल के लोटे या कलछुल से घोट कर तैयार किया जाता किंतु दाल छौकने में कोई जल्दी नहीं होती कड़ाही में प्याज लहसुन भरवा मिर्च आदि डाल कर दाल को जब उस पर डाला जाता तो पूछिए मत शर्माती हुई दाल के साथ पूरी छौंक लिपट कर एक रूप में हो जाती। भात के ढेलों पर गिरती हुई दाल के साथ सानते हुए हर कौर में तृप्ति की आत्मसंतुष्टि होती कौर कौर में खाते हुए दाल को मिलाना पड़ता यह प्रयोग हालाकि पूरे वर्ष चलता किंतु ठंडक में यह सिर चढ़ के बोलता । ज्यादा ठंड वाले दिनों में जब हाड़ हिला देने वाली स्थिति होती तो चावल दाल के साथ प्याज टमाटर लहसुन सब एक साथ डाल कर खिचड़ी बनती उस गीले दाल चावल में पिलपिले टमाटर को निकालना भी कम कठिन नही होता और निकल जाय तो छिलना तो और भी कठिन किंतु कहते स्वाद का रास्ता भी इन्ही कठिनाइयों से होकर आता। कभी कटे हुए मिर्चें वाली उंगली से आंख छूना और भाग कर पानी डालना और एक आंख से फिर काम करना ये सतत प्रक्रिया से सीखा जाता। लड़को की दूसरी पसंद तहरी हुआ करती थी पर वो सभी के हाथ अच्छी नहीं बनती जैसे कि दाल फ्राई। पूर्वांचल के विभिन्न जनपदों की बोलियां उनके अंदाज आकर एक हो जाते है जैसे कि सभी के कमरों में जाकर दाल फ्राई एक सी हो जाती।
(यूपी के बस्ती जिले के मयंक श्रीवास्तव कालेज के दिनों के जायकों को शब्दों से जो छौंका लगाए हैं उसका जायका आप भी लीजिए)
दुनियाभर के घुमक्कड़ पत्रकारों का एक मंच है,आप विश्व की तमाम घटनाओं को कवरेज करने वाले खबरनवीसों के अनुभव को पढ़ सकेंगे
https://www.roamingjournalist.com/