प्रयागराज में लल्ला चुंगी पर बुलडोजर चल गया। जरूर अवैध होगा, इसी नाते चला होगा, लेकिन इसके ध्वस्त होने के साथ ही एक खुशनुमा इतिहास भी चला गया। प्रयागराज में प्रयाग रेलवे स्टेशन के पास एलनगंज तिराहे पर थी लल्ला चुंगी। एक चाय की दुकान, छोटी सी मिठाई की दुकान। पीछे कुछ और दुकानें। यूं तो इलाहाबाद में समोसे हर जगह अच्छे मिलते हैं, लेकिन ऐसा माना जाता था कि लल्ला चुंगी पर समोसे सबसे खस्ता, करारे और स्वादिष्ट बनाए जाते हैं। मैं 1987 में जब इलाहाबाद आया था तो यूनिवर्सिटी रोड पर एक रुपये के तीन समोसे मिलते थे। छोटे-छोटे समोसे, लेकिन लल्ला चुंगी पर समोसा 50 पैसे का एक था। खूब बिकता था, बचता नहीं था। चाय की भट्ठी सदा सुहागिन थी। हमेशा प्रज्वलित रहती थी। उस पर चाय खौलती रहती थी। दिन उगने से पहले लल्ला चुंगी पर लल्ला की चाय और समोसे की दुकान खुल जाती थी। चाय, समोसे, मठरी, ब्रेड-बटर के ऑर्डर शुरू हो जाते थे। रात तक यहां यूनिवर्सिटी में पढ़ने वाले छात्रों की भीड़ लगी रहती थी। जगह मिल गई तो बेंच पर बैठे, नहीं मिली तो खड़े होकर समोसे और चाय का लुत्फ ले रहे। हां एक बात तो बताना भूल गया। लल्ला चुंगी के ठीक सामने यूनिवर्सिटी का गर्ल हॉस्टल भी है। लल्ला की दुकान के ठीक सामने उसका गेट है। लल्ला की चुंगी पर हॉस्टल की लड़कियां ज्यादा न तो चाय पीने आती थीं न समोसा खाने, लेकिन छात्रों के लिए तो लल्ला की चुंगी मक्का-मदीना था। चाय-मठरी, समोसा से स्वादेंद्रिय आनंदित होती थी तो गर्ल्स हॉस्टल के गेट की हलचल आंखों को आनंद पहुंचाती थी।
लल्ला चुंगी का आलम ये था कि सलोरी, बाघागाड़ा की डेलिगेसी में रहने वाले छात्र भी वहां चाय पीने आते थे तो डायमंड जुबली, केपीयूसी के छात्र भी। मसला सिर्फ गर्ल्स हॉस्टल का ही नहीं था। बस वो जगह, वहां की चाय का स्वाद जीभ में लग गया था। वहां सिर्फ छात्र ही नहीं आते थे, हर वर्ग के लोग आते थे, कुछ दिलजले भी आते थे।
मैं बीए पार्ट-3 में था। सुबह जीरो ऑवर की क्लास थी। जाड़े की सुबह साढ़े सात बजे। साइकिल चलाकर यूनिवर्सिटी पहुंचे तो पता चला कि हमारे टीचर राय साहब आए नहीं। फिर साइकिल घुमाकर अपने दो दोस्तों के साथ लल्ला चुंगी पर आ गए। हम लोग चाय पी रहे थे। पास में एक अधेड़ उम्र का आदमी चाय के साथ सिगरेट पी रहा था। सिगरेट खत्म हुई, तो दूसरी जला ली। मैंने कहा- दादा इतनी सिगरेट क्यों पीते हो, नुकसान करेगी।
उस इंसान में शायद किसी शायर की आत्मा थी, बोला-
इस वास्ते पीता हूं कि जल जाए जवानी।
अल्लाह किसी शौक के मारे नहीं पीता।
लल्ला चुंगी से बहुत सी यादें जुड़ी हैं। जब इलाहाबाद से आजादी बचाओ आंदोलन शुरू हुआ था तो मैं भी उसका एक सदस्य था। जुटान लल्ला चुंगी पर ही होती थी। लल्ला चुंगी पर चाय की दुकान के पास ब्रेड बनाने की फैक्ट्री थी छोटी सी। गरम-गरम ब्रेड बनती थी। कई बार सामने ब्रेड कटवाकर हम लोगों ने चाय के साथ खाया है।
लल्ला चुंगी की चाय की दुकान इलाहाबाद के छात्रों के लिए किसी मंदिर की तरह थी। दोस्तों का पीएमसी (पिया मिलन चौराहा) था। दोस्तों से बात होती, अगले दिन मिलने का कार्यक्रम बनता, जगह पूछी जाती तो जवाब आता- लल्ला की चुंगी। सामने गर्ल्स हॉस्टल था, लेकिन कभी भी कोई अप्रिय घटना या छेड़छाड़ की घटना नहीं देखी। जो भी था, बस बसंत बहार के दायरे में ही था। 'गुनाहों के देवता' के सुधा और चंदन की तरह कई प्रेम कहानियों की गवाह और प्रेरणा स्थली थी लल्ला चुंगी।
लल्ला चुंगी की दुकान 63 साल तक आबाद रही। 6 दशक में यहां से चाय पीकर न जाने कितने नेता, मंत्री बने होंगे। आईएएस और पीसीएस बने होंगे। हो सकता है कि जिस जज ने ध्वस्तीकरण का फैसला सुनाया हो, जिस अफसर ने ध्वस्तीकरण का आदेश दिया हो, वो भी इलाहाबाद यूनिवर्सिटी का ही छात्र रहा हो। हो सकता है कि उसने भी लल्ला चुंगी पर चाय पी हो, समोसा खाया हो। अवैध इमारतों पर बुलडोजर चलना कानूनन गलत नहीं है, लेकिन जिसने इलाहाबाद यूनिवर्सिटी में पढ़ाई की हो, वहां वक्त बिताया हो, जिसने लल्ला चुंगी पर चाय पी हो, उसके दिल में बसती है लल्ला चुंगी। उसकी भावनाओं से जुड़ी है लल्ला चुंगी और भावनाएं कानून की परिधि से अक्सर बाहर ही रहती हैं।
( टीवी चैनल न्यूज नेशन के वरिष्ठ पत्रकार विकास मिश्र की कलम से )
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