मेरा हमेशा से यह मानना रहा है कि अगर अपने शहर से बाहर जाएं तो कुछ स्थानीय खाद्य पदार्थों का आनंद लेना चाहिए । कर्नाटक चुनाव के दौरान बंगलूरू से जैसे ही थोड़ा आगे मैसूरू की तरफ जाना हुआ तो रामनगरम के स्थानीय बाजार में तो फल दिखे। एक फल तो दूर से अमरूद नजर आ रहा था पर पास गए तो अमरूद तो नहीं निकला लेकिन कुछ - कुछ शलजम ऐसा जरूर था। शलजम से हल्का मीठा।(लेकिन उसकी फोटो नहीं ले पाया।) साथ बैठे सारथी के रूप में संजय सिंगला साहब बोले , अमरूद तो नहीं मिला तो दूसरा फल खिलाते हैं । हम उसका इंतजार करते रहे लेकिन इंतजार का फल मीठा जाकर कमलपुरा (कांग्रेस के नेता डीके शिवकुमार का इलाका ) में हुआ, जहां यह आगे दिखा। गाड़ी आगे जा चुकी थी।पीछे मुड़े कुछ चले तो नाग देवता के दर्शन हुए । कुछ हम बचे , कुछ वो। अंततः इस फल के ठेले पर पहुंचे वहीं कटवा कर ही खाना था। देखने में यह नारियल का छोटा भाई था पर रंग कुछ मटमैला ही नहीं , आगे का हिस्सा कुछ काला भी। विक्रेता भाई ने उसको काटा और चार हिस्सों में उसके गूदे को निकाल कर खिलाया। आप इसे पके हुए कटहल के गूदे की तरह से कह सकते हैं। नाम इसका बताया गया- छोटोलिंगो। गूगल बाबा इसके पेड़ का नाम एशियन पामरा पाम बताते हैं।
लेकिन सबसे अनोखा तो दिखा मूल सिल्क के उत्पादन का तरीका। यह अचानक कनकपुरा जाते समय नजर आया । वैसे तो मैसूरू को सिल्क सिटी का कहा जाता है लेकिन यह अंदाजा नहीं था कि शुद्ध सिल्क कैसे बनता है , यह भी देख पाएंगे। एक सड़क के किनारे अचानक हमें खड़ी चटाई में कुछ अलग से कारीगरी नजर आई। इस बड़ी से चटाई में अंदर बेंत की पतली डंडियों का जाल बिल्कुल मकड़ी के जाले की तरह से बन जाता है। और इसी जाले में रेशम की कीड़ों (सिल्कवर्म) को डाला जाता है। आम तौर पर रेशम की कीड़े रेशम पैदा करते हैं।और इस दौरान उनकी मौत भी हो जाती है। बीच - बीच में इन जालियों की देखरेख करने वाले लोग उन कीड़ों को निकाल कर फेंकते भी रहते हैं। तीन चार दिन में एक जाली में लगभग एक किलो रेशम पैदा हो जाता है और अच्छी गुणवत्ता वाला एक हजार रुपए किलो तक बिक जाता है। रेशम को एक विवाद में भी डाल दिया गया है। अमरीका और ब्रिटेन के कई हिस्सों में इस तरह के रेशम पर रोक भी है । क्याोंकि यह कीड़ों से बनता है। पेटा के दबाव में ऐसा किया गया , बताते हैं। लेकिन यह सच है कि वास्तविक रेशम के उत्पाद होते बहुत शानदार हैं। रेशम बनने को देखना अपने आपमें एक अलग अनुभव था।
(पिछले दिनों कर्नाटक चुनाव कवरेज पर गए नवोदय टाइम्स दिल्ली के संपादक अकु श्रीवास्तव की कलम से)
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