आदिपुरुष डेढ़ महीने से कुछ लिखा नहीं। डॉक्टरों ने मना किया था कि फोन और कंप्यूटर पर न लिखें। क्योंकि सर्वाइकल का दर्द कंधे से उतरकर हाथ पर आ गया था। पर दो रोज पहले न जाने किस घड़ी में ‘आदिपुरुष’ देखी। आदिपुरुष से उपजे क्षोभ के ‘विर्पजॉय’ ने लिखने से परहेज के मेरे संकल्प को तोड़ दिया।ऐसी छिछोरी, टुच्ची और छिछली फिल्म मैंने पहले कभी नहीं देखी। पात्रों के ‘लुक’, ‘फील’, ‘ट्रीटमेंट’ और ‘संवाद’ टपोरी या कहें सड़कछाप हैं। फिल्म सभी पहलुओं पर घटियापन के रिकॉर्ड तोड़ती है। ‘क्रिएटिव फ्रीडम’ के नाम पर ऐसे बेहूदे सृजन की इजाजत किसी को नहीं दी जा सकती। रामकथा हमारे सांस्कृतिक सूत्रों को जोड़ती है।वह भारतीय सांस्कृतिक मूल्यों की चिरंतन धारा है। फिल्म अनंत काल से चली आ रही इस प्रचलित आस्था के खिलाफ है। हमारे समाज की आत्मा ‘राज्यसत्ता’ में नहीं ‘धार्मिक आस्था’ में बसती है। मनोज मुंतशिर कि यह बेशर्म पटकथा और संवाद इस आस्था पर चोट पहुंचाते है। रामायण की सबसे बड़ी विशेषता उसकी मर्यादा है। पर इस फिल्म में मर्यादा नाम की कोई चीज नहीं है। है तो धार्मिक, वैचारिक खोखलापन। मूर्खता और धूर्तता कुपढ़ों में दो लक्षण होते है। मुंतशिर ने यह अपराध मूर्खता में नहीं धूर्तता के चलते किया है। मूर्खता ईश्वर प्रदत होती है इसलिए क्षम्य है। और धूर्तता राष्ट्रवाद का खोल ओढ़ पैसा कमाने की ओछी चाहत है। भाषा संस्कार जनित होती है। कबीर ने उसे ‘भाषा बहता नीर’ कहा है। वह संस्कारों से गढ़ी जाती है। महाकाव्यों में पात्रों की भाषा को युग संदर्भ में देखा और लिखा जाता है। मनोज मुंतशिर की भाषा उनके भाषाई संस्कार बताती हैं। क्या वे ऐसी अभद्र भाषा का इस्तेमाल अपने ‘बाप’ के साथ करते होंगे? शायद नहीं। तो फिर हनुमान का मजाक क्यों उड़ाया? अभिव्यक्ति और रचनात्मक आजादी के नाम पर मुनाफा कमाने की बेशर्म कोशिश हमारी सनातन परम्परा की सहिष्णुता का उपहास है। तब जब वाल्मीकि ने अपनी रामायण में हनुमान को तीन वेदों का ज्ञाता कहा है। तुलसी ने उन्हें ‘ज्ञानियों में सर्वश्रेष्ठ कहते हैं। अध्यात्म रामायण में हनुमान को भाषिक चातुर्य का महारथी और एकादश रूद्र का अवतार बताया है।ऑक्टेवियो पॉज जैसे महान लैटिन अमेरिकी विश्व कवि ने हनुमान जी को वानर व्याकरणाचार्य की संज्ञा देते हुए एक किताब लिख दी ‘मंकी ग्रमेरियन’।हनुमान राम कथा के सबसे प्रबल पात्र हैं। प्रबलता का मतलब उनके ‘महावीर’ होने से नहीं है। एकादश रुद्र के अवतार को समेटे उनका चरित्र, वीरोचित दंभ में भी ज्ञान और विनम्रता के संवाद बोलता है। तुलसी भी हनुमान को साधारण योद्धा वाले संवाद नहीं देते। उस असाधारण ज्ञानी हनुमान को मुतंशिर ने महज बंदर बना दिया। और फिल्म को ‘जुरासिक पार्क’। पिता की जगह ‘बाप’ शब्द का प्रयोग करा वानराधीश को निरक्षर या कुपढ़ बताया गया है।गोस्वामी तुलसीदास ने हनुमान जी को ‘ज्ञानिनाम अग्रगण्य’ कहा है। यानी उन्हें ज्ञानियों की गिनती में सबसे आगे बताया। शास्त्र बताते हैं कि हनुमान को भगवान शंकर और स्वयं ब्रह्मा ने दीक्षा दी थी। उन्हीं वज्रांग हनुमान जी को आदिकवि वाल्मीकि ने ‘वाक्यज्ञम्’ अर्थात वाक्यों का ज्ञाता कहा। वाल्मीकी रामायण के किष्किंधाकांड में राम के सामने हनुमान जी जब निवार्सित राजा सुग्रीव के दूत बनकर ब्राह्मण रूप में पेश होते हैं। तो उनकी संवाद-शैली पर मुग्ध होकर अपने अनुज लक्षमण से कहते हैं कि-“तम अभ्यभाष सौमित्रे सुग्रीव सचिवम् कपिम्।वाक्यज्ञं मधुरैर वाक्यैः सनेहयुक्तम अरिंदमम।।”हे सुमित्रानंदन, ये वाक्यों के ज्ञाता और मधुर वचन बोलने वाले सुग्रीव के सचिव हनुमान हैं। तुम इनसे वार्तालाप करो।न अन् ऋग्वेद विनीतस्य न अ–यजुर्वेद धारिणः।न अ–साम वेद विदुषः शक्यम् एवम् विभाषितुम्।।हे लक्षमण, जिसे ऋग्वेद का ज्ञान न हो, जिसे यजुर्वेद स्मरण में न हो और जो सामवेद का विद्वान न हो वह क्या ऐसी विद्वानों जैसी वार्ता कर सकता है?नूनम् व्यकरणम् कृत्स्नम् अनेन बहुधा श्रुतम् |बहु व्याहरता अनेन न किंचित् अप शब्दितम् ||हे लक्षमण, निश्चय ही हनुमान ने व्याकरण को सम्यक् रूप से पढ़ा है व इनके द्वारा बोले गए शब्दों में कोई भी दोष दिखाई नहीं देता।ऐसे परम वैदुष्य से लबालब थे हनुमान जिन्हें सुकुलवा ने ‘तेरे बाप’ की संवादशैली में उतार दिया है।वाल्मीकि हो या तुलसी या फिर मैथिलीशरण गुप्त सबकी रामकथा में हनुमान जी की भाषा उनके ज्ञानपक्ष को उद्घाटित करती है।कंबन , कृतिवास आदि बाकी के सभी रामायणों में भी हनुमान ज्ञानशील भक्त के तौर पर दिखते हैं। हनुमान की वीरता और शक्ति को तुलसी रामभक्ति की ‘चाशनी’ में लपेट कर उन्हें और विनम्र कर देते हैं। उनका हनुमान जो संवाद बोलता है, वह ज्ञान और भक्ति से पगा हुआ है। उनमें लेशमात्र दंभ नहीं है। क्योंकि रामभक्त निर्मम और दंभी नहीं हो सकता।मनोज कहते हैं कि यह रामकथा का ‘ट्रांसफॉरमेशन’ है। बच्चों के लिए उन्होंने यह फिल्म बनाई है। तो क्या वे बच्चों को यही भाषिक संस्कार देना चाहते हैं। अपने घर में वे बच्चों से इसी भाषा में बात करते हैं। ‘सृजनात्मक आजादी’ के नाम पर अग्नि में शबरी का जलना अखरता है। पूरी रामकथा में सूर्पनखा लक्ष्मण पर डोरे डालती है। इस फिल्म में राम से उसके विवाह का प्रस्ताव रखवा दिया गया है। रावण विद्वान,नीतिज्ञ और मर्यादाऔ से भरा था। यहां उसे मुम्बईया फिल्मों का खूंखार, कपटी खलनायक बना दिया है। सीता के गले पर चाकू से वार घटियापन की हद है। सुषेण वैद्य का स्त्रीकरण कर दिया गया है। लक्ष्मण शक्ति में उनका इलाज विभीषण की पत्नी करती है। लगता है वैद्य जी किसी के ‘बाप’ का इलाज करने चले गए। मानस में जिस रावण ने सीता से हमेशा एक मर्यादित दूरी बनाई। बात करते वक्त की तुलसी लिखते हैं- “तृन धरि ओट कहति बैदेही”। इस फिल्म में रावण सीता से बार बार विवाह का प्रस्ताव रखता है। हनुमान जी का इंद्रजीत से कहना, “कपड़ा तेरे बाप का, आग तेरे बाप की, तेल तेरे बाप का, जलेगी भी तेरे बाप की...।” उससे ज्यादा हनुमान जी का भद्दा मजाक नहीं बनाया जा सकता है। ‘लंका लगाना’ साहित्य की मानक भाषा नहीं है। बजरंगबली- “जो हमारी बहनों को हाथ लगाएंगे, उनकी लंका लगा देंगे...।” ‘कालीन’ तुर्की भाषा का शब्द है लेकिन मनोज का इतिहास व शब्द व्युत्पत्ति से क्या मतलब? विभीषण एक सीन में लंकेश से- “भैया... आप अपने काल के लिए कालीन बिछा रहे हैं…।” रावण महापंडित था। वह पुलस्त्य का पौत्र , विश्श्रवा का पुत्र और मय का दामाद था। लेकिन मनोज का रावण ऐसी टपोरी बतकही करता है कि शर्म आती है उनके नए-नए राष्ट्रवादी ज्ञान पर- “अयोध्या में तो वो रहता नहीं, रहता तो वो जंगल में है और जंगल का राजा शेर होता है...तो वो कहां का राजा है रे…।” संवाद योजना के अलावा व्यवहारगत माहौल सनातन परम्परा का मजाक है। धर्म में मर्यादा स्थापित करने वाले इस सनातन महाकाव्य का ‘कॉमिक्सीकरण’ करना ऐसा पाप है। जिसका प्रायश्चित नहीं है।अनपढ़ भी फ्लूक से कवि तो बन सकता हैं। पर भाषा और संस्कृति का विशेषज्ञ नहीं बन सकता।मूर्खों की भीड़ उन्हें विद्वान ज़रूर मान लेती है। यहॉं यही हुआ है। दरअसल ऐसे जातकों के इतिहास, संस्कृति का ज्ञान ‘व्हाट्सएप’ आने के बाद से शुरू होता है। अगर रामकथा में नाटकीयता ही लानी थी, तो उन्हें पं. राधेश्याम कथावाचक की रामायण से मदद लेनी चाहिए थी। रामकथा इस अद्भुत क्रांतिकारी कवि की ऋणी है। यही वजह है कि रामलीलाओं में आज भी राधेश्याम जी को संवाद जन-जन को कंठस्थ हैं।1910 के आसपास हमारे देश में पारसी थिएटर चरम पर था। आगा हश्र कश्मीरी और नारायण प्रसाद ‘बेताब’ के ड्रामे लोगों को दीवाना बना रहे थे। पंडित राधेश्याम की कविता और कला को इन्हीं थियेटरों की छाया मिली। बरेली में जन्मे राधेश्याम के घर के पास ही नाटक कंपनियां डेरा डालती थीं। उनके पिता कथावाचक थे। ‘रुक्मिणी मंगल’ की कथा सुनाते-सुनाते राधेश्याम को उन्होंने संगीत सिखाया। अब कथा गीत गाते थे राधेश्यारम और व्याख्या करते थे उनके पिता। नाटकों के दीवाने पंडित राधेश्याम ने बरेली में देखे गए नाटकों के गानों की तर्ज पर भजन और धुनें बना डाली। यहीं से शुरु हुआ भारत में रामकथा के संवादों का स्वर्ण युग। 1910 में पंजाब के नानक चंद खत्री की ‘न्यू अलबर्ट कंपनी’ बरेली आई। तब तक रामकथा के गायक के रुप मे राधेश्याम को ख्याति मिल चुकी थी। उनकी भाषा ने रामकथा को एक नया संस्कार दिया था। यह खड़ी बोली का सबसे व्यापक प्रयोग था। राधेश्याम की प्रतिभा से पारसी थियेटर में रामकथा गूंजने लगी। लेकिन इससे बड़ा स्थायी परिवर्तन हुआ दस साल बाद जब ‘राधेश्याम रामायण’ छपी। रामलीलाओं को पात्रों के लिए उनके संगीतबद्ध संवाद मिल गए। ‘राधेश्याम रामायण’ में संवाद की अदायगी ने रामलीलाओं का आनंद ही कई गुना कर दिया। नगाड़े की गमक और ढपली की थाप के साथ जब रामलीला के कलाकार पं. राधेश्याम के परशुराम-लक्ष्मण संवाद, अंगद-रावण संवाद, हनुमान-रावण संवाद बोलते थे भीड़ का रोमांच देखते ही बनता था। उनके संवाद रामलीला देखने आए दर्शकों की स्मृतियों में सदैव के लिए अंकित हो गए। वाल्मीकि से तुलसी तक हनुमान के संवादों को ज्ञान और भक्ति की गरिमा दी गयी। पर पं. राधेश्याम की कविताई ने उसमें नाटकों का अनोखा रोमांच भर दिया।‘राधेश्याम रामायण’ में हनुमान और मेधनाद के संवाद में अद्भुत शब्द व्यंजना है। इसे मंच पर सुनकर रोमांच होना स्वभाविक ही था-मैं मेघनाथ कहलाता हूँ, बैरी को सदा हराया है।जीता है मैंने स्वर्गलोक, पद इन्द्रजीत का पाया है।।पर तू भयभीत न हो मन में, बल नहीं तुझे दिखलाउंगा।श्रीमान पिताजी के सम्मुख, केवल तुझे ले जाऊँगा।।हनुमत बोले युद्ध कर, बातों का क्या काज।इन्द्र्जालिये खेल ले, इंद्रजाल सब आज।।यदि तुझको कुछ बन पड़े नहीं, तो अभी पिता को बुलवाले।क्यों खड़ा हुआ मुहँ तकता है, अपने सब कर्तब दिखलाले।।तेरा मेरा रण ही क्या है, मैं तुझको खेल खिलाता हूँ।तू मेघनाथ कहलाता है, मैं रामदास कहलाता हूँ।।तू इन्द्रजीत छलवाला है, मैं कामजीत बलवाला हूँ।तू दीपक है, मैं हूँ मशाल, रविकुल रवि का उजियाला हूँ।।रावण और हनुमान के संवाद पढ़िए। पं. राधेश्याम ने रामकथा की नाटकीयता को चरम पर पहुंचाया। लेकिन उनकी भाषाई श्रेष्ठता देखिए। वाल्मीकि से पं. राधेश्याम तक रामकथा के चरित्रों का अपूर्व भाषाई विभूति के साथ यह हमारी धरोहर है।लंकेश्वर की सभा में, पहुचें जभी कपीश।क्रोधित होकर उसीक्षण, बोल उठा दशशीश।।रे वानर तू कौन है, क्या है तेरा नाम।आया क्यों दरबार में, क्या है मुझसे काम।।तू कौन कहाँ से आया है, कुछ अपनी बात बता बनरे।उद्धान उजाड़ा क्यों मेरा, क्या कारण था बतला बनरे।।लंका के राजा का तूने, क्या नाम कान से सुना नहीं।तू इतना ढीठ निरंकुश है, मेरे प्रताप से डरा नहीं।।मारा है अक्षकुवंर मेरा, तो तेरा क्यों न संहार करूं।तू ही न्यायी बनकर कहदे , तुझसे कैसा व्यवहार करूं।।ब्रह्मफ़ांस से मुक्त हो, बोले कपि सविवेक।उत्तर कैसे एक दूँ, जब हैं प्रश्न अनेक।।दशमुख की प्रश्न-पुस्तिका के, पन्ने क्रम-क्रम से लेता हूँ।पहला जो पूछा सर्व प्रथम, उसका ही उत्तर देता हूँ।।सच्चिदानंद सर्वदानंद, बल बुद्धि ज्ञान सागर हैं जो।रघुवंश शिरोमणि राघेवेंद्र, रघुकुल नायक रघुवर हैं जो।।जो उत्त्पत्ति स्थिति प्रलय रूप, पालक पोषक संहारक हैं।इच्छा पर जिनकी विधि-हरिहर, संसार कार्य परिचालक हैं।।जो दशरथ अजर बिहारी हैं, कहलाते रघुकुल भूषण हैं।रीझी थी जिनपर सूपर्णखा, हारे जिनसे खरदूषण हैं।।फिर और ध्यान देलो जिनकी, सीता को हरकर लाये हो।मैं उन्हीं राम का सेवक हूँ, तुम जिनसे वैर बढाये हो।।रामलीलाओं में ये गाए संवाद उत्तर भारत में लोगों के याद हैं। कुछ ऐसे ही प्रयोग आदिपुरुष में होने चाहिए थे। ‘आदिपुरुष’ देखना एक त्रासदी है। मैंने आधी त्रासदी झेली। आधे में सो गया। बगल में मुतरेजा जी थे। उन्होंने बिना थ्रीडी वाले चश्मे के फिल्म देखी। इसलिए वे भी बच गए। क्योंकि उन्हें साफ-साफ दिखलाई नहीं पड़ा। मैने मुतरेजा जी से पूछा “बताओ कटप्पा ने बाहुबली को क्यों मारा? “ उन्होंने कहा “ सर उसे पता होगा कि आगे चल कर यह आदिपुरुष में काम करेगा।” मुतरेजा भी विद्वान है। मेरे बगल की एक सीट खाली थी। शायद हनुमान जी के लिए। एक झपकी लेने के बाद, झटके में जब मेरी नींद टूटी तो मैंने बगल वाली सीट पर बैठे बजरंगबली से पूछा। “इस फिल्म में आपकी बड़ी दुर्दशा हुई कपिराज ”। वे बोले “उमा कहऊँ मैं अनुभव अपना, सत हरि भजन जगत सब सपना।” मैंने कहा यह सपना नहीं था संकटमोचन जी यह तो फिल्म थी। वह बोले “जहां काम तहां राम नाही जहां राम तहां काम नाही। तुलसी कबहूँ होत नहिं, रवि रजनी इक ठाम।।” मैंने कहा हे ‘ज्ञानिनाम अग्रगण्य’ मैं आपकी बात समझा नहीं। मुझे मेरी भाषा में फिल्म के बारे में बताएं। वे हंसे और बोले, “मैं अपनी और तुम्हारी भाषा में नहीं, उसी की भाषा में बताता हूं।” “भाषा तेरे बाप की।” “संस्कार तेरे बाप का।” “तू सपोला तेरे बाप का।”पुनश्च- आदिपुरुष देख हो सकता है मेरी भाषा थोड़ी गड़बड़ा गयी हो। उसके लिए माफ़ी। (देश के प्रसिद्ध पत्रकार हेमंत शर्मा की कलम से)
आदिपुरुष
डेढ़ महीने से कुछ लिखा नहीं। डॉक्टरों ने मना किया था कि फोन और कंप्यूटर पर न लिखें। क्योंकि सर्वाइकल का दर्द कंधे से उतरकर हाथ पर आ गया था। पर दो रोज पहले न जाने किस घड़ी में ‘आदिपुरुष’ देखी। आदिपुरुष से उपजे क्षोभ के ‘विर्पजॉय’ ने लिखने से परहेज के मेरे संकल्प को तोड़ दिया।
ऐसी छिछोरी, टुच्ची और छिछली फिल्म मैंने पहले कभी नहीं देखी। पात्रों के ‘लुक’, ‘फील’, ‘ट्रीटमेंट’ और ‘संवाद’ टपोरी या कहें सड़कछाप हैं। फिल्म सभी पहलुओं पर घटियापन के रिकॉर्ड तोड़ती है। ‘क्रिएटिव फ्रीडम’ के नाम पर ऐसे बेहूदे सृजन की इजाजत किसी को नहीं दी जा सकती। रामकथा हमारे सांस्कृतिक सूत्रों को जोड़ती है।वह भारतीय सांस्कृतिक मूल्यों की चिरंतन धारा है। फिल्म अनंत काल से चली आ रही इस प्रचलित आस्था के खिलाफ है। हमारे समाज की आत्मा ‘राज्यसत्ता’ में नहीं ‘धार्मिक आस्था’ में बसती है। मनोज मुंतशिर कि यह बेशर्म पटकथा और संवाद इस आस्था पर चोट पहुंचाते है। रामायण की सबसे बड़ी विशेषता उसकी मर्यादा है। पर इस फिल्म में मर्यादा नाम की कोई चीज नहीं है। है तो धार्मिक, वैचारिक खोखलापन। मूर्खता और धूर्तता कुपढ़ों में दो लक्षण होते है। मुंतशिर ने यह अपराध मूर्खता में नहीं धूर्तता के चलते किया है। मूर्खता ईश्वर प्रदत होती है इसलिए क्षम्य है। और धूर्तता राष्ट्रवाद का खोल ओढ़ पैसा कमाने की ओछी चाहत है।
भाषा संस्कार जनित होती है। कबीर ने उसे ‘भाषा बहता नीर’ कहा है। वह संस्कारों से गढ़ी जाती है। महाकाव्यों में पात्रों की भाषा को युग संदर्भ में देखा और लिखा जाता है। मनोज मुंतशिर की भाषा उनके भाषाई संस्कार बताती हैं। क्या वे ऐसी अभद्र भाषा का इस्तेमाल अपने ‘बाप’ के साथ करते होंगे? शायद नहीं। तो फिर हनुमान का मजाक क्यों उड़ाया? अभिव्यक्ति और रचनात्मक आजादी के नाम पर मुनाफा कमाने की बेशर्म कोशिश हमारी सनातन परम्परा की सहिष्णुता का उपहास है। तब जब वाल्मीकि ने अपनी रामायण में हनुमान को तीन वेदों का ज्ञाता कहा है। तुलसी ने उन्हें ‘ज्ञानियों में सर्वश्रेष्ठ कहते हैं। अध्यात्म रामायण में हनुमान को भाषिक चातुर्य का महारथी और एकादश रूद्र का अवतार बताया है।ऑक्टेवियो पॉज जैसे महान लैटिन अमेरिकी विश्व कवि ने हनुमान जी को वानर व्याकरणाचार्य की संज्ञा देते हुए एक किताब लिख दी ‘मंकी ग्रमेरियन’।
हनुमान राम कथा के सबसे प्रबल पात्र हैं। प्रबलता का मतलब उनके ‘महावीर’ होने से नहीं है। एकादश रुद्र के अवतार को समेटे उनका चरित्र, वीरोचित दंभ में भी ज्ञान और विनम्रता के संवाद बोलता है। तुलसी भी हनुमान को साधारण योद्धा वाले संवाद नहीं देते। उस असाधारण ज्ञानी हनुमान को मुतंशिर ने महज बंदर बना दिया। और फिल्म को ‘जुरासिक पार्क’। पिता की जगह ‘बाप’ शब्द का प्रयोग करा वानराधीश को निरक्षर या कुपढ़ बताया गया है।
गोस्वामी तुलसीदास ने हनुमान जी को ‘ज्ञानिनाम अग्रगण्य’ कहा है। यानी उन्हें ज्ञानियों की गिनती में सबसे आगे बताया। शास्त्र बताते हैं कि हनुमान को भगवान शंकर और स्वयं ब्रह्मा ने दीक्षा दी थी। उन्हीं वज्रांग हनुमान जी को आदिकवि वाल्मीकि ने ‘वाक्यज्ञम्’ अर्थात वाक्यों का ज्ञाता कहा। वाल्मीकी रामायण के किष्किंधाकांड में राम के सामने हनुमान जी जब निवार्सित राजा सुग्रीव के दूत बनकर ब्राह्मण रूप में पेश होते हैं। तो उनकी संवाद-शैली पर मुग्ध होकर अपने अनुज लक्षमण से कहते हैं कि-
“तम अभ्यभाष सौमित्रे सुग्रीव सचिवम् कपिम्।
वाक्यज्ञं मधुरैर वाक्यैः सनेहयुक्तम अरिंदमम।।”
हे सुमित्रानंदन, ये वाक्यों के ज्ञाता और मधुर वचन बोलने वाले सुग्रीव के सचिव हनुमान हैं। तुम इनसे वार्तालाप करो।
न अन् ऋग्वेद विनीतस्य न अ–यजुर्वेद धारिणः।
न अ–साम वेद विदुषः शक्यम् एवम् विभाषितुम्।।
हे लक्षमण, जिसे ऋग्वेद का ज्ञान न हो, जिसे यजुर्वेद स्मरण में न हो और जो सामवेद का विद्वान न हो वह क्या ऐसी विद्वानों जैसी वार्ता कर सकता है?
नूनम् व्यकरणम् कृत्स्नम् अनेन बहुधा श्रुतम् |
बहु व्याहरता अनेन न किंचित् अप शब्दितम् ||
हे लक्षमण, निश्चय ही हनुमान ने व्याकरण को सम्यक् रूप से पढ़ा है व इनके द्वारा बोले गए शब्दों में कोई भी दोष दिखाई नहीं देता।
ऐसे परम वैदुष्य से लबालब थे हनुमान जिन्हें सुकुलवा ने ‘तेरे बाप’ की संवादशैली में उतार दिया है।
वाल्मीकि हो या तुलसी या फिर मैथिलीशरण गुप्त सबकी रामकथा में हनुमान जी की भाषा उनके ज्ञानपक्ष को उद्घाटित करती है।कंबन , कृतिवास आदि बाकी के सभी रामायणों में भी हनुमान ज्ञानशील भक्त के तौर पर दिखते हैं। हनुमान की वीरता और शक्ति को तुलसी रामभक्ति की ‘चाशनी’ में लपेट कर उन्हें और विनम्र कर देते हैं। उनका हनुमान जो संवाद बोलता है, वह ज्ञान और भक्ति से पगा हुआ है। उनमें लेशमात्र दंभ नहीं है। क्योंकि रामभक्त निर्मम और दंभी नहीं हो सकता।
मनोज कहते हैं कि यह रामकथा का ‘ट्रांसफॉरमेशन’ है। बच्चों के लिए उन्होंने यह फिल्म बनाई है। तो क्या वे बच्चों को यही भाषिक संस्कार देना चाहते हैं। अपने घर में वे बच्चों से इसी भाषा में बात करते हैं। ‘सृजनात्मक आजादी’ के नाम पर अग्नि में शबरी का जलना अखरता है। पूरी रामकथा में सूर्पनखा लक्ष्मण पर डोरे डालती है। इस फिल्म में राम से उसके विवाह का प्रस्ताव रखवा दिया गया है। रावण विद्वान,नीतिज्ञ और मर्यादाऔ से भरा था। यहां उसे मुम्बईया फिल्मों का खूंखार, कपटी खलनायक बना दिया है। सीता के गले पर चाकू से वार घटियापन की हद है। सुषेण वैद्य का स्त्रीकरण कर दिया गया है। लक्ष्मण शक्ति में उनका इलाज विभीषण की पत्नी करती है। लगता है वैद्य जी किसी के ‘बाप’ का इलाज करने चले गए। मानस में जिस रावण ने सीता से हमेशा एक मर्यादित दूरी बनाई। बात करते वक्त की तुलसी लिखते हैं- “तृन धरि ओट कहति बैदेही”। इस फिल्म में रावण सीता से बार बार विवाह का प्रस्ताव रखता है। हनुमान जी का इंद्रजीत से कहना, “कपड़ा तेरे बाप का, आग तेरे बाप की, तेल तेरे बाप का, जलेगी भी तेरे बाप की...।” उससे ज्यादा हनुमान जी का भद्दा मजाक नहीं बनाया जा सकता है। ‘लंका लगाना’ साहित्य की मानक भाषा नहीं है। बजरंगबली- “जो हमारी बहनों को हाथ लगाएंगे, उनकी लंका लगा देंगे...।” ‘कालीन’ तुर्की भाषा का शब्द है लेकिन मनोज का इतिहास व शब्द व्युत्पत्ति से क्या मतलब? विभीषण एक सीन में लंकेश से- “भैया... आप अपने काल के लिए कालीन बिछा रहे हैं…।” रावण महापंडित था। वह पुलस्त्य का पौत्र , विश्श्रवा का पुत्र और मय का दामाद था। लेकिन मनोज का रावण ऐसी टपोरी बतकही करता है कि शर्म आती है उनके नए-नए राष्ट्रवादी ज्ञान पर- “अयोध्या में तो वो रहता नहीं, रहता तो वो जंगल में है और जंगल का राजा शेर होता है...तो वो कहां का राजा है रे…।” संवाद योजना के अलावा व्यवहारगत माहौल सनातन परम्परा का मजाक है। धर्म में मर्यादा स्थापित करने वाले इस सनातन महाकाव्य का ‘कॉमिक्सीकरण’ करना ऐसा पाप है। जिसका प्रायश्चित नहीं है।
अनपढ़ भी फ्लूक से कवि तो बन सकता हैं। पर भाषा और संस्कृति का विशेषज्ञ नहीं बन सकता।मूर्खों की भीड़ उन्हें विद्वान ज़रूर मान लेती है। यहॉं यही हुआ है। दरअसल ऐसे जातकों के इतिहास, संस्कृति का ज्ञान ‘व्हाट्सएप’ आने के बाद से शुरू होता है। अगर रामकथा में नाटकीयता ही लानी थी, तो उन्हें पं. राधेश्याम कथावाचक की रामायण से मदद लेनी चाहिए थी। रामकथा इस अद्भुत क्रांतिकारी कवि की ऋणी है। यही वजह है कि रामलीलाओं में आज भी राधेश्याम जी को संवाद जन-जन को कंठस्थ हैं।
1910 के आसपास हमारे देश में पारसी थिएटर चरम पर था। आगा हश्र कश्मीरी और नारायण प्रसाद ‘बेताब’ के ड्रामे लोगों को दीवाना बना रहे थे। पंडित राधेश्याम की कविता और कला को इन्हीं थियेटरों की छाया मिली। बरेली में जन्मे राधेश्याम के घर के पास ही नाटक कंपनियां डेरा डालती थीं। उनके पिता कथावाचक थे। ‘रुक्मिणी मंगल’ की कथा सुनाते-सुनाते राधेश्याम को उन्होंने संगीत सिखाया। अब कथा गीत गाते थे राधेश्यारम और व्याख्या करते थे उनके पिता। नाटकों के दीवाने पंडित राधेश्याम ने बरेली में देखे गए नाटकों के गानों की तर्ज पर भजन और धुनें बना डाली। यहीं से शुरु हुआ भारत में रामकथा के संवादों का स्वर्ण युग। 1910 में पंजाब के नानक चंद खत्री की ‘न्यू अलबर्ट कंपनी’ बरेली आई। तब तक रामकथा के गायक के रुप मे राधेश्याम को ख्याति मिल चुकी थी। उनकी भाषा ने रामकथा को एक नया संस्कार दिया था। यह खड़ी बोली का सबसे व्यापक प्रयोग था। राधेश्याम की प्रतिभा से पारसी थियेटर में रामकथा गूंजने लगी। लेकिन इससे बड़ा स्थायी परिवर्तन हुआ दस साल बाद जब ‘राधेश्याम रामायण’ छपी। रामलीलाओं को पात्रों के लिए उनके संगीतबद्ध संवाद मिल गए। ‘राधेश्याम रामायण’ में संवाद की अदायगी ने रामलीलाओं का आनंद ही कई गुना कर दिया। नगाड़े की गमक और ढपली की थाप के साथ जब रामलीला के कलाकार पं. राधेश्याम के परशुराम-लक्ष्मण संवाद, अंगद-रावण संवाद, हनुमान-रावण संवाद बोलते थे भीड़ का रोमांच देखते ही बनता था। उनके संवाद रामलीला देखने आए दर्शकों की स्मृतियों में सदैव के लिए अंकित हो गए। वाल्मीकि से तुलसी तक हनुमान के संवादों को ज्ञान और भक्ति की गरिमा दी गयी। पर पं. राधेश्याम की कविताई ने उसमें नाटकों का अनोखा रोमांच भर दिया।
‘राधेश्याम रामायण’ में हनुमान और मेधनाद के संवाद में अद्भुत शब्द व्यंजना है। इसे मंच पर सुनकर रोमांच होना स्वभाविक ही था-
मैं मेघनाथ कहलाता हूँ, बैरी को सदा हराया है।
जीता है मैंने स्वर्गलोक, पद इन्द्रजीत का पाया है।।
पर तू भयभीत न हो मन में, बल नहीं तुझे दिखलाउंगा।
श्रीमान पिताजी के सम्मुख, केवल तुझे ले जाऊँगा।।
हनुमत बोले युद्ध कर, बातों का क्या काज।
इन्द्र्जालिये खेल ले, इंद्रजाल सब आज।।
यदि तुझको कुछ बन पड़े नहीं, तो अभी पिता को बुलवाले।
क्यों खड़ा हुआ मुहँ तकता है, अपने सब कर्तब दिखलाले।।
तेरा मेरा रण ही क्या है, मैं तुझको खेल खिलाता हूँ।
तू मेघनाथ कहलाता है, मैं रामदास कहलाता हूँ।।
तू इन्द्रजीत छलवाला है, मैं कामजीत बलवाला हूँ।
तू दीपक है, मैं हूँ मशाल, रविकुल रवि का उजियाला हूँ।।
रावण और हनुमान के संवाद पढ़िए। पं. राधेश्याम ने रामकथा की नाटकीयता को चरम पर पहुंचाया। लेकिन उनकी भाषाई श्रेष्ठता देखिए। वाल्मीकि से पं. राधेश्याम तक रामकथा के चरित्रों का अपूर्व भाषाई विभूति के साथ यह हमारी धरोहर है।
लंकेश्वर की सभा में, पहुचें जभी कपीश।
क्रोधित होकर उसीक्षण, बोल उठा दशशीश।।
रे वानर तू कौन है, क्या है तेरा नाम।
आया क्यों दरबार में, क्या है मुझसे काम।।
तू कौन कहाँ से आया है, कुछ अपनी बात बता बनरे।
उद्धान उजाड़ा क्यों मेरा, क्या कारण था बतला बनरे।।
लंका के राजा का तूने, क्या नाम कान से सुना नहीं।
तू इतना ढीठ निरंकुश है, मेरे प्रताप से डरा नहीं।।
मारा है अक्षकुवंर मेरा, तो तेरा क्यों न संहार करूं।
तू ही न्यायी बनकर कहदे , तुझसे कैसा व्यवहार करूं।।
ब्रह्मफ़ांस से मुक्त हो, बोले कपि सविवेक।
उत्तर कैसे एक दूँ, जब हैं प्रश्न अनेक।।
दशमुख की प्रश्न-पुस्तिका के, पन्ने क्रम-क्रम से लेता हूँ।
पहला जो पूछा सर्व प्रथम, उसका ही उत्तर देता हूँ।।
सच्चिदानंद सर्वदानंद, बल बुद्धि ज्ञान सागर हैं जो।
रघुवंश शिरोमणि राघेवेंद्र, रघुकुल नायक रघुवर हैं जो।।
जो उत्त्पत्ति स्थिति प्रलय रूप, पालक पोषक संहारक हैं।
इच्छा पर जिनकी विधि-हरिहर, संसार कार्य परिचालक हैं।।
जो दशरथ अजर बिहारी हैं, कहलाते रघुकुल भूषण हैं।
रीझी थी जिनपर सूपर्णखा, हारे जिनसे खरदूषण हैं।।
फिर और ध्यान देलो जिनकी, सीता को हरकर लाये हो।
मैं उन्हीं राम का सेवक हूँ, तुम जिनसे वैर बढाये हो।।
रामलीलाओं में ये गाए संवाद उत्तर भारत में लोगों के याद हैं। कुछ ऐसे ही प्रयोग आदिपुरुष में होने चाहिए थे। ‘आदिपुरुष’ देखना एक त्रासदी है। मैंने आधी त्रासदी झेली। आधे में सो गया। बगल में मुतरेजा जी थे। उन्होंने बिना थ्रीडी वाले चश्मे के फिल्म देखी। इसलिए वे भी बच गए। क्योंकि उन्हें साफ-साफ दिखलाई नहीं पड़ा। मैने मुतरेजा जी से पूछा “बताओ कटप्पा ने बाहुबली को क्यों मारा? “ उन्होंने कहा “ सर उसे पता होगा कि आगे चल कर यह आदिपुरुष में काम करेगा।” मुतरेजा भी विद्वान है।
मेरे बगल की एक सीट खाली थी। शायद हनुमान जी के लिए। एक झपकी लेने के बाद, झटके में जब मेरी नींद टूटी तो मैंने बगल वाली सीट पर बैठे बजरंगबली से पूछा। “इस फिल्म में आपकी बड़ी दुर्दशा हुई कपिराज ”। वे बोले “उमा कहऊँ मैं अनुभव अपना, सत हरि भजन जगत सब सपना।” मैंने कहा यह सपना नहीं था संकटमोचन जी यह तो फिल्म थी। वह बोले “जहां काम तहां राम नाही जहां राम तहां काम नाही। तुलसी कबहूँ होत नहिं, रवि रजनी इक ठाम।।” मैंने कहा हे ‘ज्ञानिनाम अग्रगण्य’ मैं आपकी बात समझा नहीं। मुझे मेरी भाषा में फिल्म के बारे में बताएं। वे हंसे और बोले, “मैं अपनी और तुम्हारी भाषा में नहीं, उसी की भाषा में बताता हूं।” “भाषा तेरे बाप की।” “संस्कार तेरे बाप का।” “तू सपोला तेरे बाप का।”
पुनश्च- आदिपुरुष देख हो सकता है मेरी भाषा थोड़ी गड़बड़ा गयी हो। उसके लिए माफ़ी।
(देश के प्रसिद्ध पत्रकार हेमंत शर्मा की कलम से)
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