बात उस समय की है जब मैं नौंवी कक्षा में पढ़ता था। अर्धवार्षिक परीक्षा हो गई थी और उस दिन गणित के अध्यापक पंडित वासुदेव शर्मा जी ने गणित की कॉपियां बांटने थी। हम सब उत्सुकता से गुरुदेव के आने का इंतजार कर रहे थे। यह भी उत्सुकता थी कि कौन प्रथम आया होगा।
उस समय मैं समझता हूं कि स्कूल में निष्ठावान अध्यापक होते थे। बच्चों को स्कूल में संस्कार भी दिए जाते थे। बच्चे भी अपने अध्यापकों का पूर्ण सम्मान करते थे। मैं समझता हूं कि उनके आशीर्वाद से और उनके पढ़ाने के ढंग से ही हम आगे बढ़ रहे थे।
पंडित वासुदेव शर्मा जी क्लास में आए उनके एक हाथ में तो कापियों का बंडल था और दूसरे हाथ में एक मोटा सा डंडा था। तब वह जमाना था जब बच्चों की घर में भी और स्कूल में भी धुलाई खूब होती थी। माता-पिता भी इस बात में कभी शिकायत नहीं करते थे क्योंकि उनका भी मानना होता था कि बच्चों और कपड़ों की अगर ढंग से धुलाई होगी तभी चमकेंगे।
क्लास में आते ही गुरुदेव ने हम चार बच्चों के नाम पुकारे। हम आगे बढ़े। उन्होंने हाथ में डंडा उठाया और सबसे पहले मुझे हाथ आगे बढ़ाने को कहा। मैंने ज्योंहि हाथ आगे किया तो गुरुदेव ने दनादन हाथ पर 6 डंडे जमा दिए। गुरुदेव बोले लज्जा आनी चाहिए तुम्हें, अग्रवालों के बेटे होकर गणित में मात्र 94 नंबर। पानी में डूब मरो। अगर नव मासिक परीक्षा में शत प्रतिशत अंक नहीं आए तो अपनी कक्षा से निकाल दूंगा। गुरुदेव बोले यह डंडे ही मेरा आशीर्वाद है। जीवन भर याद करोगे। तुम लोग तो पढ़ लिख कर बड़े-बड़े अधिकारी बन जाओगे कौन सी मेरे यहां गाय बांध जाओगे। मैं तुम्हारे जीवन के लिए ही कह रहा हूं। बनियों के बेटों के तो गणित में पूरे अंक आने चाहिए। यह कहकर उन्होंने उत्तर पुस्तिका मेरे हाथ में देकर कहा कि मेरे सामने अभी देखो तुमने क्या गलती की है । उत्तर पुस्तिका देखी एक जगह में गुणा करने में कुछ गलती हो गई थी। गुरुदेव की निगाहें अभी मेरे पर ही केंद्रित थीं। फिर बोले बनियों के बेटों को गुणा और जमा करने में तो कभी गलती नहीं करनी चाहिए। लगन से मेहनत करो और यदि किसी प्रश्न को हल करने में कठिनाई आए तो जब चाहो मेरे यहां आ सकते हो।
6 डंडे खाने के बाद मैं सोच रहा था कि मुझे तो 6 पड़े हैं क्योंकि 6 नंबर कम आए हैं। सोचने लगा क्या जिसके 20 नंबर कम आए होंगे उसको 20 डंडे पड़ेंगे। उसके बाद गुरुदेव ने दूसरे बच्चे को बुलाया। उसके 7 डंडे पड़े। तीसरे को भी 7 डंडे पड़े। चौथे बच्चे को आठ डंडे पड़े। इसके बाद बाकी बच्चों को बिना कुछ कहे कापियां बांट दी गई थी। यह तो समझ में आ गया था कि मैं गणित में 94 नंबर लेकर प्रथम आया था। हम चारों बच्चे क्लास में प्रथम चार स्थान प्राप्त किए थे।
मैं सोचने लगा कि गुरुदेव ठीक ही तो कहते हैं। स्कूल से पढ़कर ना जाने कितने विद्यार्थी उच्च पदों पर कार्य कर रहे होंगे पर आज तक किसी ने भी गुरु ऋण चुकता नहीं किया है। मैं सोचने लगा कि मैं जब उच्च पद पर पहुंचूंगा तो गुरुदेव जी के यहां गाय अवश्य बांधने आऊंगा। बालक मन था इससे अधिक उस समय कुछ ना सोच सका।
हम चारों बच्चों ने आपस में इकट्ठे पढ़ने का प्लान बनाया। मन लगाकर पढ़ने लगे। यही लगन थी कि हम शत प्रतिशत नंबर ही प्राप्त करेंगे। हम चारों में आपस में कोई स्पर्धा नहीं थी। यथा समय नव मासिक परीक्षा हुई। परीक्षा के बाद गुरुजी उत्तर पुस्तिकाएं बांटने कक्षा में आए तो उन्होंने पुनः डंडा उठाया। चारों को इकट्ठा पुकारा। हम चारों आगे बढ़े। यूंहि हम गुरुदेव के पास पहुंचे तो उठाया हुआ झंडा उन्होंने मेज पर रख दिया और बारी-बारी से हम चारों को सीने से लगा लिया। गुरुदेव भावुक हो उठे। बच्चों जो डंडे मैंने तुम्हें लगाए थे उनकी चोट मेरे को भी लगी थी। आज मैं बहुत प्रसन्न हूं आप चारों ने मेरी बात मान कर मेरे मन की इच्छा पूरी कर दी। तुम चारों के शत-प्रतिशत अंक आए हैं। मेरी नसीहत को जीवन भर याद रखना। हम सभी गुरुदेव के आगे नतमस्तक हो गए।
समय बीता चला गया हम लोगों ने हाई स्कूल किया इंटर किया कॉलेज के दिनों में हम गणित में सदा प्रथम स्थान पर ही रहे। कॉलेज के दिनों में ही हमें पता चला कि गुरुदेव का अचानक देहांत हो गया था। हमारी इच्छा मन की मन में दबी रह गई। लेकिन फिर प्राण किया के जीवन भर अपने आस-पड़ोस गली मोहल्ले के बच्चों को गणित में निशुल्क पढ़ा कर गुरुदेव के प्रति श्रद्धांजलि अर्पित करूंगा। आज भी जहां भी कहीं मुझे कोई बच्चा पढ़ाई में कमजोर लगता है तो उसे पढ़ाने में जरा भी संकोच नहीं होता। आज भी गुरुदेव को जब याद करता हूं तो रुलाई सी आ जाती है। गुरुदेव कितने महान थे और उनका हृदय कितना विशाल था। कितनी विशाल थी उनकी विचारधारा भी। उनको याद करके उनका ध्यान करके नतमस्तक हो जाता हूं।
(बाल कृष्ण गुप्ता 'सागर' की कलम से)
दुनियाभर के घुमक्कड़ पत्रकारों का एक मंच है,आप विश्व की तमाम घटनाओं को कवरेज करने वाले खबरनवीसों के अनुभव को पढ़ सकेंगे
https://www.roamingjournalist.com/