लगभग 5 वर्ष से मेरी बड़ी बिटिया अमेरिका में रहती है। इस अवधि में उसने 3 साल की एमडी की पढ़ाई भी पूरी कर ली। जीवन के इतने साल उसने अमेरिका में बिताए हैं । बावजूद इसके कभी कोलंबस द्वारा खोजे गए इस नूतन देश के प्रति मेरे मन- मस्तिष्क में कोई विशेष आकर्षण नहीं था। भले ही अमेरिका विश्व की महाशक्ति और सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था क्यों ना हो, पर अपने को इससे क्या मतलब!
हालांकि ऐसा नहीं था कि बिटिया ने कभी इसके लिए प्रेरित या आमंत्रित नहीं किया । लेकिन मैंने प्रेरणा ग्रहण करने में कई साल लगा दिए । मेरे लिए अमेरिका की यात्रा इतनी आसान भी नहीं थी । इसकी वजह भी मेरे हिसाब से दमदार थी।
चूंकि हवाई जहाज की यात्रा न तो मैंने पहले कभी की थी और न ही इसको लेकर मन में कोई रोमांच ही था। जबकि मैंने भी अन्य बच्चों की तरह आसमान में उड़ते हुए जहाज खूब देखे थे।
महज सोचने भर से ही जी घबराने लगता था कि इतने समय तक हवा में रहना होगा। यहां बात 1 घंटे या 20 घंटे यात्रा की नहीं थी । अपितु जहाज के भीतर जाना ही नहीं है , हिमालय जैसी अडिग यह दृढ़ता बाधक बन रही थी। वैसे यात्रा करने में कोई हिचकिचाहट कभी नहीं होती , लेकिन यहां मामला जहाज और विदेश का था।
जमीन पर यात्रा करनी होती, तो मैं कभी पीछे रहने वाला नहीं था ।जबकि इसके उलट पत्नी की चित्तवृत्ति अलग तरह की थी । वह तो बेटी- दामाद की बुलावे पर जाने को तैयार रहती थी ।
पासपोर्ट तो हमने 2016 में ही बनवा लिया था , किंतु यह सोचकर तो नहीं बनवाया था कि जहाज से यात्रा भी करनी है और विदेश जाना है । मेरे पास उदाहरण भी कम नहीं थे ।
कई लोग पासपोर्ट जरूर बनवा लेते हैं , लेकिन वह कहीं आते-जाते नहीं। इस बीच कालचक्र अपनी यात्रा करता रहा।
मेरी इस मनोवृत्ति में बदलाव कैसे हुआ , यहां इस प्रसंग की चर्चा करना पाठकों को शायद रुचिकर लग सकता है ।
मेरे एक बहुत करीबी हैं वसुमित्र उपाध्याय जी । बैंक के बड़े अफसर रहे हैं। दिल्ली के द्वारिका क्षेत्र में रहते हैं । उनकी पत्नी और मेरी पत्नी बचपन की सहेलियां रही हैं ।
हम दोनों के पास दो बेटियां हैं । कभी वाराणसी में हम दोनों की ससुराल आमने-सामने हुआ करती थी। समानता के और भी आधार हैं। मसलन दोनों की एक बेटी और दामाद अमेरिका में रहते हैं । दोनों की ही दूसरी बेटी दिल्ली में रहती है। कुल मिलाकर संबंध पुराना है ।
दिल्ली आना और द्वारका के सेक्टर 23 में न जाना लगभग असंभव जैसा ही था । उपाध्याय जी कई बार अमेरिका जा चुके हैं और मुझे भी अपनी अमेरिका यात्रा के बारे में बताते और जाने के लिए प्रोत्साहित करते रहते थे ।
अब कैलेंडर में 2019 का साल चल रहा था । अमेरिका जाने को लेकर आंतरिक मंथन तो जारी ही था। इसी साल वह दिन भी आया ,जब हम सुबह - सुबह वसुमित्र जी की कार से वीजा के लिए दिल्ली स्थित अमेरिकी दूतावास पहुंचे ।
अमेरिकी दूतावास के बाहर इतनी लंबी लाइन लगी थी जिसे देखकर यह समझ में आया कि भारतीयों में अमेरिका जाने को लेकर कितना आकर्षण है ।
जबकि अन्य देशों के दूतावास भी आसपास हैं , पर वहां बाहर कोई हलचल नहीं दिखी। दूतावास के भवन में केवल वीजा के अभ्यर्थियों को ही प्रवेश मिल रहा था। जहां पर उनका इंटरव्यू लिया जाता है। लंबी लाइन में खड़े होने से मुझे इतना तो समझ में आ गया कि अमेरिकी वीजा मिलना आसान नहीं है ।
अनुमान लगाया कि 10 में से दो - चार को ही सफलता मिल पाती है अर्थात लाइन में खड़े अधिकतर लोगों को अमेरिकी दूतावास लौटा देता है। वीजा को लेकर कई लोग तनाव में दिखे। जबकि मुझे यह बिल्कुल नहीं था ।
वीजा नहीं मिला तो अपने आप ही अमेरिकी यात्रा का चांस खत्म हो जाएगा । यह कोई नौकरी के लिए इंटरव्यू तो हो नहीं रहा है फिर काहे का टेंशन ।
मेरे आगे खड़ी महिला का एकमात्र बेटा अमेरिका में ही रहता है, जब उसका वीजा आवेदन खारिज हो गया। तब भी अपने राम पर कोई फर्क नहीं पड़ा । जब वीजा ही नहीं मिलेगा , तब अमेरिकी यात्रा का प्रश्न ही खत्म हो जाएगा । यानी जान बची तो लाखों पाए वाला मुहावरा यथार्थ होता ।
पर मुझे घनघोर आश्चर्य तब हुआ, जब अमेरिकी दूतावास के कर्मचारियों ने कुछ मिनट के प्रश्नोत्तर के बाद हमें पास कर दिया ।
इस प्रकार हमारे पूरे परिवार को अमेरिका जाने का आधिकारिक अवसर मिल गया । दूतावास के बाहर निकलने पर वसुमित्र जी हमारा इंतजार करते दिखे । उन्होंने हमें मुस्कुराते देखा तो वीजा मिल जाने की बधाई दी।
लेकिन अभी भी इस यात्रा के लिए न उत्साह था और न ही तैयारी की कोई बात थी । समय ने 3 साल का फासला और तय कर लिया। 2022 में पत्नी ने यह कहना आरंभ कर दिया कि वह नाती के लिए अमेरिका जरूर जाएगी । भले ही मैं जाऊं या नहीं । हमारे बीच का विवाद कुछ उसी तरह से होता था जैसे सत्ता पक्ष और प्रतिपक्ष के बीच में लोकतांत्रिक व्यवस्था के मध्य देखा सुना- जाता है।
अब मेरे पास आखिरी दांव ही बचा रह गया था। चूंकि मैंने कभी हवाई यात्रा नहीं की है , इसलिए पहले स्थानीय स्तर पर यात्रा का अनुभव जुुटाया जाए । मेरे लिए यह बिल्कुल वैसा ही था जैसे कोई पहलवान अंतरराष्ट्रीय स्पर्धा में भाग लेने के पूर्व स्थानीय और राष्ट्रीय स्तर के पहलवानों से दांंव आजमाता है । अपने इसी चिंतन के तहत विगत महाराष्ट्र यात्रा के दौरान मुंबई से हवाई यात्रा का चयन किया गया । मुंबई से वाराणसी की यात्रा महज 2 घंटे की थी । लेकिन इसने मेरे मन की झिझक को कुछ हद तक दूर करने में सहायता की।
वस्तुतः यही वह आधार भूमि थी, जिस पर आगे चलकर अमेरिकी यात्रा का सपना साकार हुआ। और नन्हे जादूगर रिवांंश से मिलने अमेरिका पहुंच गए।
अमेरिका जाने के लिए हमारा टिकट 18 सितंबर का था । लेकिन हमें वस्तुतः 17 की रात 2:00 बजे यूनाइटेड एयरलाइंस की फ्लाइट से दिल्ली से रवाना होना था । पड़ोसी देश नेपाल के अलावा विदेश यात्रा का यह दूसरी बार मौका मिल रहा था।
यह विदेश यात्रा भी कई महीनों के लिए थी, अतः ठीक ढंग से इसकी तैयारी भी करनी जरूरी थी। ठंड को देखते हुए सामान में गर्म कपड़े भी आवश्यक थे। कुछ सामान बिटिया के लिए भी ले जाना था । विदेश जाने वाले यात्रियों को प्रति व्यक्ति 22. 5 किलो तक का सामान ले जाने की अनुमति होती है । इसी प्रकार हाथ में रखने वाले बैग में 8 किलो तक सामान रखा जा सकता है। इस मानक के अनुसार ही हमने सामानों की पैकिंग की।
निश्चिंत होने के लिए उनका वजन भी कर लिया, जिससे एयरपोर्ट पर कोई झंझट ना हो । सामानों की लिस्ट भी बना ली थी ताकि कोई जरूरी चीज छूटने ना पाए। यह भी ध्यान दिया कि कोई आपत्तिजनक वस्तु बैग में न जाने पाए।
दिल्ली में हम पति-पत्नी दो दिन छोटी बिटिया रत्नप्रभा के साथ भी बिताना चाहते थे , क्योंकि दिल्ली विश्वविद्यालय में पढ़ने वाली रत्नप्रभा कई महीनों से बनारस नहीं आई थी। इसलिए हमारी यात्रा बनारस से 14 सितंबर को शिवगंगा एक्सप्रेस से आरंभ हुई ।
सामान अधिक था । छोटे भाई हेरंंब गाड़ी से बनारस स्टेशन तक छोड़ने आए । इससे जहां समय की बचत हुई , वहां पर्याप्त सुविधा भी हो गई। रात में सोते - जागते अगले दिन सुबह 8:30 बजे हम नई दिल्ली स्टेशन पहुंच गए ।
यहां से हमें द्वारिका सेक्टर 21 जाना था , जो अधिक दूर नहीं था । लेकिन दूसरी मेट्रो में बैठने से दूरी और समय दोनों बढ़ गया । उधर वसुमित्र उपाध्याय जी हमारी राह देख रहे थे। यह वही उपाध्याय जी हैं , जो वीजा इंटरव्यू के लिए कुछ बरस पहले हमारे साथ अमेरिकी दूतावास भी जा चुके थे ।
खैर देर से ही सही हम उनके घर पहुंच गए । दोपहर का भोजन वहीं पर हुआ।
इसके बाद दिल्ली विश्वविद्यालय कैंपस में स्थित ला फैकेल्टी में बिटिया से मिलने पहुंचे। कुछ खरीदारी करनी थी। इसलिए बिटिया के साथ कमला नगर मार्केट से कुछ सामान खरीदा। यहां से उसके कमरे पर भी गए । जहां उसकी सहपाठी ने बढ़िया चाय पिलाकर हमारा स्वागत किया । रात में रत्नप्रभा के साथ पुनः उपाध्याय जी के यहां हम पहुंच गए थे।
अगली सुबह यात्रा से जुड़े कुछ दस्तावेजों के फोटो स्टेट भी कराए। दिन में बरसात होती रही । शाम को कार से दिल्ली का भ्रमण करने निकले । संसद भवन , राष्ट्रपति भवन इंडिया गेट , आकाशवाणी भवन आदि को चलती हुई कार से देखा । रुकने की जरूरत नहीं थी क्योंकि यह सब चीजें पहले भी हम देख चुके थे ।
लौटते वक्त द्वारिका में ही गोलगप्पा और जलेबी खाना रुचिकर लगा । घर पर खाना खाने के बाद देर रात तक बातें करते रहे ।
अगले दिन 17 तारीख थी । आज की रात ही हमें अमेरिका के लिए प्रस्थान करना था। इसलिए दिन भर घर में ही आराम करते रहे । उपाध्याय जी ने अपनी अमेरिका यात्रा के कई संस्मरण भी सुनाए। शायद यह सब हमारे उत्साहवर्धन के लिए था ।
एयरपोर्ट यहां से नजदीक ही था। इसलिए दिन भर जहाजों का आना-जाना खिड़कियों से देखता रहा। रात के 8:00 बजे हम इंदिरा गांधी अंतरराष्ट्रीय एयरपोर्ट जाने के लिए निकले। द्वारिका मेट्रो स्टेशन पर हमें छोड़ने के लिए उपाध्याय जी उनकी पत्नी , मेेरी बिटिया रत्नप्रभा आई थी।
विदाई का यह क्षण भावुुक करने वाला था । एक तरफ उपाध्याय परिवार का बार-बार वही आतिथ्य सत्कार , तो दूसरी तरफ रत्नप्रभा को छोड़कर विदेश जाना । हालांकि दिल्ली जाते वक्त बिटिया हमें छोड़कर जाती थी । यद्यपि इस बार हम उस को छोड़कर विदेश जा रहे थे , यह पहली बार हो रहा था ।
भारी मन से विदा लेकर हम मेट्रो स्टेशन में घुस गए । अगले 10 मिनट में हम एयरपोर्ट मेट्रो स्टेशन भी पहुंच गए । एयरपोर्ट जाने का रास्ता पूछना चाहते थे । लेकिन यहां तो स्टेशन के अंदर से ही एयरपोर्ट की तरफ रास्ता जाता था । गलियारों से होते हुए हम अंतरराष्ट्रीय एयरपोर्ट तक पहुंच गए।
उड़ान में अभी कई घंटे बाकी थे। एयरपोर्ट पर बाहर रहने का कोई औचित्य नहीं था । सोचा अंदर चलकर एयरपोर्ट ही तब तक घूमते हैं।
गेेट से घुसने से पहले हमारा टिकट और पासपोर्ट चेक किया गया। अब हमारे पास बोर्डिंग पास मिल गया था। अगला चरण अपने सामान को जमा कराने का था। यहां लाइन में लगकर सामान का वजन कराया और टोकन लेकर आगे बढ़ जाए ।
इसी क्रम में तलाशी की प्रक्रिया भी चली, जिसमें पर्स, मोबाइल, जूता, बेल्ट तक उतार कर रखना पड़ा । यहां पर हैंड बैग में रखा ब्लेड सुरक्षाकर्मियों ने निकलवा दिया और कूड़ेदान में फेंक दिया। मुझे लगा कि कोई और सामान फेंकना न पड़ जाए । पर संयोग से ऐसा हुआ नहीं। अगले चरण में इमीग्रेशन काउंटर पर पहुंच गए । यहां टिकट, पासपोर्ट चेक करने के बाद मुुहर लगा दी गई। यानी अब हम भारत से बाहर जाने के लिए स्वतंत्र हैं ।
इतना सब करने के बाद भी काफी समय शेष था । हमें हाल में बैठने के लिए कहा गया । यहां उपाध्याय जी के घर से लाया गया खाना खत्म किया । एक- दो लोगों से फोन पर बातचीत भी की ।
एयरपोर्ट पर ढेर सारी दुकानें हैं पर सामान सस्ते नहीं हैं। कुछ समय वहां घूमकर बिताया। उड़ान से करीब डेढ़ घंटे पूर्व विमान यात्रियों के लिए रनवे पर आ गया था। 30 - 40 मिनट में सभी यात्रियों को उनकी सीटों तक पहुंचा दिया गया। गेेट पर एयर होस्टेस ने हमारा स्वागत किया ।
पत्नी की सीट ठीक खिड़की से सटी हुई और उसके बगल में मेरी थी । यद्यपि खिड़की का कोई फायदा नहीं था , क्योंकि रात में ही सफर का अधिकतर हिस्सा तय होना था । जहाज उड़ने से पूर्व बताया गया कि हमारे पायलट , सह पायलट और एयर होस्टेस कौन हैं। कितने घंटे की यात्रा है। खाना और नाश्ता कितनी बार मिलेगा। साधानियां भी बताई गईं। जैैसे ऑक्सीजन की समस्या होने पर क्या करना चाहिए।
साथ ही जहाज के उड़ने के लिए तैयार होने की जानकारी देते हुए सीट बेल्ट बांधने और मोबाइल को एरोप्लेन मोड में रखने के लिए कहा गया।
इसके कुछ मिनटों बाद विमान रनवे पर दौड़ता नजर आया । अगले 5- 10 मिनट बाद जहाज पर्याप्त ऊंचाई पर पहुंच चुका था । अब कई महीनों बाद अपने प्यारे देश के दर्शन होंगे।
आधे घंटे बाद यात्रियों को भोजन परोसना शुरू हो गया। जहाज में 90 प्रतिशत भारतीय थे , लेकिन मेरे जैसे शाकाहारी शायद कम ही थे।
शाकाहारी यात्रियों के लिए सीमित व्यंजन होते हैं, जबकि नॉनवेज में अधिक प्रकार मिल जाते हैं । मुझे संदेह था कि शाकाहारी के नाम पर भी तालमेल हो सकता है । इसलिए मैंने सौ फ़ीसदी प्योर वेज पर बल दिया। जो भोजन सामने आया उसमें एक पराठा, चावल , उड़द की दाल, सलाद , चटनी (पैकेट) शामिल था। पानी की बोतल अलग से मिली थी। खाने के बाद लाइट बुझा दी गई। साढे. 16 घंटे की लगातार उड़ान मेरे लिए किसी तपस्या से कम नहीं था। समय काटने के लिए कई तरह के उपाय जरूरी थे।
सीट के सामने लगे पॉकेट में कई पत्रिकाएं थीं। लेकिन उनको उलटने- पलटने की इच्छा नहीं हुई । विमान में सुरक्षा के उपायों पर भी एक पुस्तिका थी, किंतु उस पर भी मैंने गौर नहीं किया ।
अब तक मेरे बगल का युवा सहयात्री सोने लगा था। पत्नी भी कभी सोती तो कभी सामने स्क्रीन पर पिक्चर देखने लगती ।
मैंने सबसे पहले स्क्रीन पर विमान की स्थिति देखी । जहाज पाकिस्तान के ऊपर उड़ता नजर आया ।
मैंने इयरफोन निकाला और मोबाइल पर सुंदरकांड सुनने लगा। क्योंकि उड़ते जहाज में मुझे नींद नहीं आ रही थी। इस तरह 1 घंटे से ज्यादा निकल गया । अंधेरे में पढ़ने की कोई खास गुंजाइश नहीं थी । सुनना अथवा देखना ही संभव था।
एक बार फिर स्क्रीन की तरफ ध्यान लगाया । सर्च करने पर हिंदी फिल्म थप्पड़ दिखाई पड़ी। मुझे लगा यह अलग तरह की सकती है। इसलिए देखने लगा ।
फिल्म पसंद आई। स्त्री-पुरुष के बीच होने वाले सामाजिक भेदभाव को चुस्त पटकथा के जरिए बड़ी खूबसूरती से फिल्माया गया था । इस तरह यात्रा के तीन घंटे और निकल गए ।
अंतरराष्ट्रीय विमान में टॉयलेट कई सारे होते हैं । पहली हवाई यात्रा में तो मैंने टॉयलेट का इस्तेमाल नहीं किया था। लेकिन इस बार तो मजबूरी ही थी । वहां जाने से पूर्व मन में यह भी ख्याल आया कि मुझे दरवाजा खोलना और बंद करना ही नहीं आया तो मेरा अनाड़ीपन जाहिर हो जाएगा। पहली बार तो कोई परेशानी नहीं हुई परंतु एक बार सच में गेेट खोलने में अड़चन महसूस हुई।
तब एक विदेशी ने अपनी सीट से उठकर मेरी मदद की। सीट पर लगातार बैठे रहना भी कम परेशानी वाला नहीं था । पैर जैसे सुन्न होने लगते । तब हम उठकर सीटों के बीच गलियारे में टहलने लग जाते । मुझे तो ट्रेन में टहलना इससे अधिक सुविधाजनक लगता है।
चूंकि ज्यादातर लोग सो रहे थे इसलिए बात करने का भी कोई अवसर नहीं था । जहाज में पीछे की तरफ किचिन होता है । वहां भी कुछ वक्त गुजारने की सोची।
खाने का सामान कहां रखा जाता है और उनको कैसे निकाल कर दिया जाता है । कोई सामान मैंने मांंगना चाहा , तो एयर होस्टेस ने कहा आगे मेज पर तमाम चीजें रखी हुई हैं। जो वहां ना हो वह मांग सकते हैं।
मेज पर कई तरह की नमकीन, कोल्ड ड्रिंक, बिस्किट , पानी की बोतल , आदि रखी हुई थी। अंतरराष्ट्रीय उड़ान में खाने - पीने की चीजों का अलग से कोई पैसा नहीं लगता है। क्योंकि यह सब टिकट में ही जुड़ा रहता है।
पीने पर याद आया कि कई लोग जहाज की लंबी यात्रा में ड्रिंक करना पसंद करते हैं । शायद उम्दा ब्रांड की शराब ऐसी यात्राओं का मजा बढ़ा देती हो और थकान भी कम कर देती होगी ।
यात्रा के कई घंटे बीत चुके थे फिर भी कई बाकी थे । सामने स्क्रीन पर सर्च किया तो जहाज यूरोप के आसमान पर नजर आया । मार्ग के नक्शे के अनुसार पास में कभी लंदन तो तभी रोम नजर आ रहा था । एक बार फिर ईयर फोन का सहारा लिया और हनुमान चालीसा सुनने लगा । यह मेरे लिए पावर सेंटर जैसा अनुुभव था। इसी क्रम में गायत्री मंत्र सुनकर मन की तरंगों को ऊर्जावान बनाने का प्रयत्न किया ।
पूरी यात्रा के दौरान दो बार नाश्ता परोसा गया । जिनमें चाय , कॉफी, कोल्ड ड्रिंक, नमकीन के पैकेट , जूस, चॉकलेट , बिस्किट आदि थे। अमेरिकी जहाज में पारले बिस्किट देख कर अच्छा लगा। क्योंकि हमारे यहां कुछ लोग इस ब्रांड को पसंद नहीं करते हैं । लंबी हवाई यात्रा के अभ्यस्त समय का सदुपयोग सोने में ज्यादा करते हैं। यह सुझाव मुझे भी दिया गया था कि यात्रा के पहले सोने की जरूरत नहीं है ।
तथापि मैंने शायद ही 2 घंटे से ज्यादा की नींद ली हो । स्क्रीन पर जहाज की लोकेशन फिर चेक किया तो वह लंबे समय से समुद्र पर उड़ता दिखाई पड़ा । संभवत कई घंटे लगते हैं। अब समझ में आया कि अमेरिका को सात समुंदर पार देेश क्यों कहा जाता है ।
काफी समय से आंखें खिड़की के बाहर सिर्फ अंधकार ही देख रही थीं। जब पत्नी ने जहाज के नीचे बादलों के टुकड़े दिखाए तो मुझे एहसास हुआ कि शायद अब सुबह होने वाली है।
कुछ वक्त और व्यतीत हो गया। आसमान पर मेरी नजर टिकी हुई थी। धीरे-धीरे आकाश पर लाली भी दिखने लगी , जिसे देखने के लिए काफी समय से मेरी आंखें उत्सुक थीं।
आसमान पूरी तरह साफ नजर आने लगा था। अब मुझे शिकागो पहुंचने की जल्दी हो गई । प्रतीक्षा का अंत हुआ और काफी समय से शांत चल रहे जहाज के वातावरण में शिकागो कुछ ही देर में पहुंचने की घोषणा की गई ।
इसी के साथ बेल्ट पुन: बांध लेने की हिदायत भी दी। जहाज भी धीरे-धीरे जमीन की तरह उतरने लगा। अब तक पानी, पहाड़ ,जंगल , मकान आदि दिखने लगे थे । आखिर वह समय भी आया जब रनवे पर दौड़ने के बाद जहाज रुक गया।
अब हम अमेरिका में हैं , यह सोचकर ही शरीर में स्फूर्ति आ गई । शिकागो के समयानुसार सुबह के 7:30 बज रहे थे । दरवाजे से बाहर निकलते समय सभी क्रू मेंबर हमें विदा करने के लिए गेेट पर थे ।
माइक से यह भी सुनाई पड़ा कि यूनाइटेड से सफर करने के लिए बहुत-बहुत धन्यवाद । साथ ही एक बार फिर यूनाइटेड से यात्रा लिए आग्रह भी किया गया । अन्य यात्रियों का अनुसरण करते हुए हम बाहर निकल आए । यहां भी कई औपचारिकताएं पूरी करनी थीं। एक फार्म भरना पड़ा , जिसमें यह जानकारी देनी थी कि हम अमेरिका में कब तक रहेंगे, वापसी कब होगी, किस तरह का सामान लाए हैं , डालर के रूप में कितनी मुद्रा हमारे पास है। हमें जाना कहां है और किसके यहां रुकना है । उससे हमारा क्या संबंध है आदि।
पासपोर्ट पर यहां भी मुहर लगाई गई। अर्थात निर्धारित अवधि तक अमेरिका में रहने के लिए अधिकृत हो गए । कस्टम की औपचारिकताएं लाइन में लगकर पूरा किया । एयरपोर्ट पर बिटिया ऋतंभरा और दामाद देवेश जी ने हमारा गर्मजोशी से स्वागत किया नन्हे रिवांश के साथ।
रोचेस्टर की उड़ान लगभग 6 घंटे बाद थी । यह समय हमें एयरपोर्ट पर बिताना था । लेकिन हम एयरपोर्ट के बाहर निकाल आए और आसपास के इलाके में घूमते रहे । फोटोग्राफी की। वीडियो बनाया और शिकागो की सर्द हवाओं का अनुभव किया।
रोचेस्टर की अगली उड़ान 1:15 घंटे से कुछ ज्यादा की थी । रोचेस्टर शिकागो की तरह अधिक चहल-पहल वाला नहीं था । कुछ समय बाद सामान लेकर आराम से एयरपोर्ट से बाहर आ गए । लेकिन घर तक पहुंचने में 20 मिनट और खर्च हो गए।
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