मेरे बाबूजी को दो चीजों से बहुत प्यार था, एक तो किताब, दूसरी फिल्में। गजब के सिनेमाबाज थे। जब फिल्म देखते थे तो उसमें खो जाते थे। ढलती उम्र में ज्यादातर फिल्में टीवी पर ही देखते थे। मेरे यहां गाजियाबाद में एक दिन वे टीवी पर फिल्म 'संगम' देख रहे थे। क्लाइमेक्स के आस-पास जब गोपाल (राजेंद्र कुमार) के खुद को गोली मारने का सीन आया, बाबूजी गुस्से में चीख पड़े- 'कमीना है ये। ये क्या किया इसने...?' मैंने पूछा क्या हुआ बाबूजी। बोले- 'ये दोस्त था, लेकिन बहुत कायर था। उसे परिस्थितियों का सामना करना चाहिए था।'
एक दिन फिल्म 'चोरी-चोरी-चुपके-चुपके' देख रहे थे। फिल्म के आखिर में प्रीति जिंटा की गोद भराई का सीन था। उसके बाद वो रानी मुखर्जी से कहती है कि वो अपना बच्चा उसे नहीं देगी। जैसे ही ये सीन आया, बाबूजी बोल पड़े- 'इसके भीतर की औरत जाग गई है।' उसके बाद वाकई कहानी नया मोड़ लेती है।
बाबूजी का अक्सर गोरखपुर और बस्ती आना-जाना था। गोरखपुर में उनके घनिष्ठ मित्र थे गंगाशरण चाचा। उनके साथ टॉकीज में फिल्में देखते थे। कभी मां के साथ जाते तो अम्मा-बाबूजी, चाचा-चाची सब साथ में सिनेमा देखते थे। बाबूजी हमारे मौसा-मौसियों ही नहीं अपनी बहुओं के साथ भी सिनेमाघर में फिल्में देखते थे।
1980 के दशक की बात है। शायद 1983 की। हमारे एक भाई साहब गोरखपुर यूनिवर्सिटी में पढ़ रहे थे। गांव आए, बाबूजी से बहस करने लगे। बाबूजी से उन्होंने डायलॉग मारा- 'आपके लिए अपने बेटों से ज्यादा अपना फर्ज प्यारा है। आपने किया ही क्या है.. ' कुछ ऐसा ही कह रहे थे। बाबूजी एक पल ठहरे, फिर पूछा-शक्ति फिल्म देखकर आए हो ना..? भाई साहब को कोई जवाब नहीं सूझा, फिर वहां से खिसक लिए।
उम्र ढलने के साथ बाबूजी की याद्दाश्त और सुनने की शक्ति दोनों कमजोर पड़ गई थी, लेकिन सिनेमा का चाव कम नहीं हुआ था। अब उन्हें फिल्म दिखानी पड़ती थी। श्रीमती जी रिमोट हाथ में लेकर उन्हें फिल्म समझाते हुए दिखाती थीं। कई बार सीन रिवाइंड करके दोबारा दिखाती थीं। एक बार फिल्म आ रही थी-'जुदाई'। जिसमें अनिल कपूर की दो-दो बीवियां हैं। बाबूजी भूल जाते थे कि कौन नई वाली है और कौन पुरानी वाली। पूछते थे- 'दुलहिन ई नवकी होय कि पुरनकी..?' (दुलहिन ये नई वाली है कि पुरानी वाली..?)
बाबूजी फिल्म के दृश्यों की जीवन के संदर्भों में व्याख्या भी खूब करते थे। जीवन मूल्य समझाते थे। फिल्म 'शीशमहल' की चर्चा मैं पहले भी फेसबुक पर कर चुका हूं। राजेश खन्ना की फिल्म 'अवतार' का एक अलग सबक उन्होंने बताया। कहते थे कि 'अवतार' की शिक्षा ये है कि अपने बच्चों के अलावा कुछ और बच्चों को भी अपने बच्चों की तरह देखिए, पालन कीजिए, देख-रेख कीजिए। फिल्म में जब अवतार किशन के सभी बच्चे उनसे किनारा कर लेते हैं तो घर में बेटे की तरह पल रहा नौकर 'सेवक' ही उनके काम आता है।
बाबूजी जब फिल्म देखते थे तो उसमें चल रहे भाव उनके चेहरे पर भी आते थे। सोफे पर कभी बैठकर तो कभी लेटकर फिल्म देखते थे। भावुक दृश्य आते ही थोड़ा हिलने लगते थे, कई बार आंसू भी बहने लगते थे। बात-बात पर उनकी आंखें भर जाती थीं।
बाबूजी का फिल्म प्रेम जैसे रक्त संबंध से मेरे भी भीतर आया है। मैं भी फिल्मों का जबरदस्त रसिया हूं। हाईस्कूल से फिल्में देखने का जो चस्का लगा, आज तक नहीं छूटा है। गोरखपुर, बनारस, इलाहाबाद, लखनऊ, मेरठ में शायद ही कोई सिनेमाघर हो, जिसमें मैंने फिल्में न देखी हों।
मैं भी बाबूजी की तरह फिल्में डूबकर देखता हूं। भावुक सीन आते ही बरबस आंसू आने लगते हैं। कई फिल्मों के तो सीन तय हैं। घर में जब भी ऐसी फिल्म चलती है, सीन करीब आता है, बेटे समन्वय अपनी माताजी से मुस्कुराकर कहते हैं-'मम्मी... पापा को देखना, बस आंसू निकलने ही वाले हैं।' होता भी यही है, आंसू छलक ही पड़ते हैं। ये ज्यादातर तब होता है, जब कोई खुशी का पल होता है, मूल्यों पर आधारित कोई अच्छी बात होती है।
कल रात फिल्म 'परिचय' देख रहा था। राय साहब (प्राण) बाहर से आते हैं, घर में पड़े उनके बदमाश पोते-पोतियां सुधरे हुए मिलते हैं। एक बच्चे को गोद में उठाते हैं, आंख उनकी गीली हो, उससे पहले मेरी आंखें नम हो गईं। आगे फिल्म में जैसे-जैसे राय साहब पिघले, वैसे-वैसे मेरे आंसू भी पिघले।
आज भी जब कभी फिल्म अवतार, कभी खुशी कभी गम, आनंद, पीकू, लगे रहो मुन्ना भाई, मुन्ना भाई एमबीबीएस, शमिताभ, इंग्लिश-विंगलिश, त्रिशूल, शक्ति, पीके, कल हो ना हो, मैं हूं ना, दिल है तुम्हारा, जैसी तमाम फिल्में देखता हूं तो कुछ दृश्यों पर बरबस आंसू निकल ही जाते हैं। अवतार फिल्म में जब सेवक अपना खून बेचकर अवतार के लिए मैकेनिक का पूरा सामान लाता है, तब अवतार की पत्नी राधा कहती है-'सेवक तूने मेरी कोख से जन्म क्यों नहीं लिया रे..?' ये सीन जितनी बार देखता हूं, उतनी बार आंखें छलकती हैं। जब ऐसा होता है तो घर में हंसी का विषय भी बनता हूं।
मैं हर तरह की फिल्में देखता हूं। फिल्में चुनने में विरोधाभास भी है। जैसे मेरी पसंदीदा टॉप-5 फिल्मों में से एक है-'रेनकोट', लेकिन ये फिल्म मैं अब पूरी नहीं देख पाता, इसे देखते हुए मन में भयानक कचोट उठती है। जबकि गोविंदा की हीरो नंबर-1, अंखियों से गोली मारे, अजय देवगन की गोलमाल सीरीज की मसाला कॉमेडी फिल्मों से लेकर ऋषिकेश मुखर्जी की सभी फिल्में जब भी आती हैं, पूरी देखता हूं।
मेरे कुछ मित्र हैं, जिनसे फिल्मों पर बातचीत होती है, स्वस्थ बहस भी होती है। फिल्में कई बार निजी समस्याओं को सुलझाने में मदद भी करती हैं। अक्सर फिल्मों में उच्च आदर्श दिखाए जाते हैं, जिन्हें वास्तविक जीवन में अपनाना बहुत मुश्किल होता है, लेकिन ये असंभव नहीं होता, मैं उसे आजमाता हूं, कुछ हद तक कामयाब भी होता हूं।
मेरे टाटा स्काई के कनेक्शन में रिकॉर्डिंग की सुविधा है। जब भी कोई ठीक-ठाक फिल्म दिखती है रिकॉर्डिंग पर लगा देता हूं। लॉकडाउन में ये फिल्में बहुत काम आ रही हैं। जब भी मौका मिलता है, फिल्में देखता हूं। फिल्म में जब भी कोई भावुक सीन आता है, आदर्शवादी सीन आता है, उस वक्त बाबूजी याद आते हैं। ऐसे हर सीन पर ख्याल आता है कि बाबूजी होते और देखते तो इस सीन पर हिलने लगते, इस सीन पर उनके आंसू निकल जाते। ये फिल्म खत्म होने के बाद उसके आदर्शों को लेकर पूरे परिवार को कोई न कोई अच्छी बात सिखाते
( टीवी चैनल न्यूज नेशन के वरिष्ठ पत्रकार विकास मिश्र की कलम से )
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