सुरेन्द्र प्रताप सिंह(एसपी सिंह)
जन्म:4 दिसम्बर,1948
मृत्यु:27 जून,1997
एसपी
सिंह हिंदी पत्रकारिता के उन नायकों में से एक थे जिन्होंने सुषप्तावस्था
में पड़ी हिंदी पत्रकारिता को नया तेवर,कलेवर और फ्लेवर दिया।वे उसे दरबारी
संस्कृति से निकाल कर जन और सरोकार की पत्रकारिता बनाने के बड़े अभियान का
जरूरी हिस्सा भी बने और सफल भी रहे।
वे अक्षरों के ऐसे सेनापति थे
जो खोजी पत्रकारिता को केंद्र में लाये और उन्होंने पहले 'रविवार' फिर 'आज
तक' के जरिये तमाम ऐसे पत्रकार खड़े कर दिए जिन्होंने बाद में अपने हिस्से
का आकाश भी छुआ।वे उदयन शर्मा हों,अरुण रंजन हों,सुरेंद्र किशोर,राजेश
बादल,नवेन्दु-श्रीकांत,स्वामी त्रिवेदी,राजीव शुक्ल,संजय पुगलिया,मिलिंद
खांडेकर,अलका सक्सेना,पुण्यप्रसुन बाजपेयी या कोई और हो।एसपी की छाया,उनकी
नजर सब पर थी।उनके निखार का कारण भी वे ही बने।
यह एसपी की ही खोजी
आँख थी कि एक जमाने में केवल 20 मिनिट तक आनेवाला बुलेटिन 'आज तक' इतिहास
की ऐसी पटकथा लिख गया जो अभी तक दर्शकों को स्तब्ध करती है।वे प्रिंट और
इलेक्ट्रॉनिक पत्रकारिता के सिरमौर बन गए थे,बने रहेंगे। यह उनका
ही करिश्मा था कि मुझ जैसे तमाम पत्रकार जिन्हें उन्होंने चुना रणभूमि से
वापस नहीं लौटे।वे खबर के प्राण को पहचानते थे। उपहार सिनेमा हादसा और उसकी
तबाह करती लपटों का जो कवरेज उन्होंने दिलवाया और पूरा एपिसोड उसे समर्पित
कर दिया -वह इतिहास एसपी सिंह ही लिख सकते थे।उन्होंने लिखा भी।
हादसे के वक्त सिनेमा घर में चल रही फिल्म 'बॉर्डर' और जलती चिताओं के
नेपथ्य से बजता उसी फिल्म का गीत 'संदेशे आते हैं...'आज तक कपकपी ला देता
है। ऐसा कहाँ होता है कि अपने रचे को ही देखकर खुद सर्जक रोने लगे।एसपी उसे देख खुद देर तक रोते रहे थे। उनकी आँखों से ढलके वे आँसू उसी रात हम सभी की आंखों में आ बसे थे। उसी रात वे सभी को 'अलविदा' कह गए थे।
वह विदाई का ऐसा गीलापन था जो अब तक महसूस होता है। एक दिन में नहीं बनते एसपी सिंह । पीढ़ियाँ लगती हैं उन्हें बनाने और बने रहने में ।
पुण्यतिथि पर शत शत नमन हिंदी पत्रकारिता के हर दौर में जगमग रहते कालखंड। आपको हर दौर की हिंदी पत्रकारिता में, हर वक्त स्मृति में रहना ही है क्योंकि एसपी सिंह सिर्फ एक ही थे। रहेंगे।
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