मुंबई शायद देश का इकलौता ऐसा शहर है, जहां न केवल लोग अपने सपने पूरे करने आते हैं, बल्कि यहां आने के बाद लोग सपने देखना भी शुरू कर देते हैं। ...और सपनों को पूरा करने के लिए लोग यहां रहना-बसना चाहते हैं। सही मायने में 'सपनों का शहर' है यह नगरी। ...शायद इसीलिए इसे 'मायानगरी' कहते हैं। हालांकि इस शहर के मायानगरी बनने की प्रक्रिया में एक बड़ी भूमिका बालीवुड की भी रही है, लेकिन यह भी इस वजह से ही संभव हो सका, क्योंकि इस शहर का मिज़ाज 'सपनों का शहर' वाला था।
अभी हाल में एक लेखकीय उद्देश्य से मुंबई जाना तय होने के बाद मेरे जेहन में कुछ लेखकों, खास तौर पर 'बेस्टसेलर' लिखने वाले गुलशन नंदा के उपन्यासों में (तब के) बम्बई शहर के जो विवरण पढ़ने को मिले थे, सब मानस-पटल पर लुकाछिपी खेलने लगे थे। चाहे मरीन ड्राइव हो, गेटवे ऑफ इंडिया हो, ताज होटल हो, गेलार्ड होटल हो, चाहे जुहू-चौपाटी हो, विले पार्ले इलाका हो, सांताक्रुज हो अथवा चर्चगेट जैसे रमणीय स्थान हों, सब एक-एक कर सजीव होने लगे थे। यह मेरी पहली मुंबई यात्रा थी। बहरहाल, बीती 22 मई की रात जब मुंबई जाने के लिए ट्रेन पर सवार हुआ, तो इन छवियों की चहल-पहल काफी बढ़ चुकी थी।
मेरे मनो-मस्तिष्क में मुंबई के बारे में इन तमाम अच्छी छवियों के होने के बावजूद यह धारणा भी उतनी ही पुख्ता थी कि मुंबई एक 'कंजस्टेड' शहर है। वहां खूब भीड़-भाड़ रहती है, वहां सड़कों पर लोगों के भागमभाग की स्थिति रहती है। वहां ज्यादातर लोग छोटे-छोटे दड़बे जैसे कमरों में रहने के लिए मजबूर हैं। यही नहीं, इन कमरों में रहने वाले लोग सोने के लिए रेलवे के स्लीपर कोच की तरह दीवार के सहारे ऊपर-नीचे कई पटरे टांगे रहते हैं।
बावजूद इसके, जब मुंबई में छोटा-सा प्रवास करने का अवसर मिला तो न केवल इस तरह की नकारात्मक छवियां काफी धूमिल पड़ चुकी थीं, बल्कि इस दौरान मुंबई के बारे में ऐसे तमाम रहस्योद्घाटन हुए, जो मेरे लिए चौंकाने वाले थे। मसलन मुंबई में भीड़-भाड़ और भागमभाग वाले नजारे तो दिखे लेकिन सिर्फ 'लोकल ट्रेनों' में। आफिस जाने और आफिस से लौटने वाले टाइम पर इन ट्रेनों में ज़बरदस्त भीड़ होती है। यहां रहने वाले लोग तो इस भीड़ के साथ यात्रा करने के अभ्यस्त होते हैं, लेकिन नवागंतुकों के लिए यह भीड़ परेशान करने वाली होती है। ऐसे मौके पर लोग नहीं, भीड़ का रेला लहराते हुए इन ट्रेनों में सवार होता है। यही नजारा आखिरी स्टेशन पर उतरते वक्त भी दिखाई देता है।
बहरहाल, मुंबई के चार दिन के प्रवास में मैंने न कोई दिन आरज़ू में काटे, न कोई दिन इंतजार में...। बस... या तो काम करता रहा या खूबसूरत नज़ारों को नज़रों और कैमरे में कैद करता रहा। इस अल्पकालिक प्रवास के दौरान शहर के पाश इलाकों में आयोजित दो फिल्मी पार्टियों में भी शामिल हुआ। इनमें एक कार्यक्रम जुहू क्षेत्र स्थित पीवीआर माल में आयोजित किया गया था, जबकि दूसरे का आयोजन विले पार्ले स्थित सहारा होटल में किया गया था। यही नहीं, इस दौरान मुंबई के तीन प्रमुख मंदिरों में जाकर हाजिरी भी लगाई।
(डॉक्टर अरविंद पाण्डेय हिंदुस्तान अखबार के वरिष्ठ पत्रकार हैं,उनकी मुंबई यात्रा का पढ़िए वृतांत)
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