दिसंबर 1999 की बात है। मैं लखनऊ के राष्ट्रीय स्वरूप दैनिक का ब्यूरो चीफ था। उन्हीं दिनों वरिष्ठ पत्रकार और बड़े भाई उपेंद्र मिश्र जी ने कहा कि अमर उजाला ग्रुप में बड़े पैमाने पर भर्तियां चल रही हैं। रामेश्वर पांडेय से बात कर लीजिए। तब मोबाइल फोन बहुत प्रचलन में नहीं थे। लैंड लाइन पर बात हुई। बोले- कल ही आ जाइए, क्योंकि मैं जालंधर जाने वाला हूं।
रात में ही लखनऊ से नौचंदी एक्सप्रेस पकड़कर मैं अगले ही दिन मेरठ पहुंच गया। पहली मुलाकात थी रामेश्वर पांडेय जी से जो प्रिंट मीडिया में काका के नाम से मशहूर थे। गोरा रंग, काले-सफेद बाल और काली-सफेद दाढ़ी। बोले- बहुत मौके से फोन कर लिया, मैं कल ही जालंधर जाने वाला हूं। उन्होंने पीटीआई का एक पन्ना दिया, बोले ट्रांसलेशन कर लीजिए। मैंने कॉपी लिखी, श्रीकांत अस्थाना जी ने कॉपी जांची और अगले एक घंटे के भीतर अमर उजाला में मेरी नौकरी पक्की हो गई। मजेदार बातें हुईं इंटरव्यू के दौरान। काका बोले- कहां काम करना चाहते हैं। मैंने कहा-सर लखनऊ में। बोले- यार लखनऊ तो मुझे भी चलना ही है। वहां का एडिशन लॉंच होगा तो साथ चलेंगे। अब बताओ दूसरी च्वाइस। मैंने कहा- तब जम्मू से लेकर जालंधर तक कहीं भी कर दीजिए, फर्क नहीं पड़ता। काका बोले- जालंधर कर दूं। मैंने कहा कर दीजिए, वहां पहले से ही कई मित्र हैं। दो मिनट बाद बोले- अच्छा छोड़ो चंडीगढ़ कर देता हूं। मैंने कहा और अच्छा है वहां भी हमारे तीन-चार अच्छे मित्र हैं। काका बोले-अच्छा छोड़ो मेरठ ही कर देता हूं, हेड ऑफिस है, मैं तो आता-जाता रहूंगा। साल भर के भीतर लखनऊ एडिशन लॉंच करेंगे तो साथ चलेंगे। इस तरह से अमर उजाला मेरठ में मेरी नौकरी लगी। 5000 रुपये तनख्वाह पर 14 जनवरी 2000 को ज्वाइन किया था। जब काका मेरठ आते तो उनसे बात होती। लखनऊ चलने पर बातचीत होती, लेकिन तब लखनऊ एडिशन की बात ठंडे बस्ते में चली गई थी। इसके बाद मैें मेरठ में ही दैनिक जागरण में चला गया। काका के भीतर लखनऊ जाने इच्छा हिलोर मारती थी, दैनिक जागरण में स्टेट एडिटर का ऑफर मिला तो काका लखनऊ पहुंच गए। काका से अक्सर मुलाकात या बात हो जाया करती थी।
एक बार तो वे लखनऊ रेलवे स्टेशन पर मिल गए। खूब बातें हुईं। मैंने कहा कि कम से कम आपने 1000 लोगों को तो नौकरी दी ही होगी। काका बोले- विकास मैंने गिना तो नहीं, लेकिन हां काफी लोग जुड़े। मैंने कहा कि आपके साथ लोगों की दुआएं भी खूब हैं। काका बोले- नहीं उससे ज्यादा गालियां मिली हैं मुझे। मेरे रखे हुए लोग मेरे खिलाफ चले गए कई बार। किसी को लगा कि उसे कम पैसा दिया और दूसरे को ज्यादा दिलवाया। इसको लेकर मैं कई अपनों के निशाने पर भी रहा। करीब तीन साल पहले लखनऊ में काका से आखिरी बार भेंट हुई थी। उन्होंने घर बुलाया था। मित्र उन्मुक्त मिश्र के साथ गया था। तब वे एक वेबसाइट के संपादक थे और नए अखबार की भी प्लानिंग में जुटे थे। उसी जोश और जुनून के साथ। काका में एक सादगी थी, उनके व्यवहार में नरमी थी। पढ़े लिखे व्यक्ति थे। हर वर्ग में लोकप्रिय। अपने विरोधियों के प्रति भी वे कठोर नहीं थे। उदारवादियों के 'काका' थे तो वामपंथियों के 'कामरेड'। फोन पर अक्सर बात हो जाती थी। काका हर बार वादा करते कि दिल्ली आऊंगा तो तुम्हारे घर आऊंगा, लेकिन वादा अधूरा छोड़ गए काका। मुझ जैसे सैकड़ों पत्रकारों को उन्होंने अमर उजाला जैसे प्रतिष्ठित अखबार में काम करने का मौका देकर करियर को एक नई दिशा दी। पत्रकारिता में काका जैसे किरदार बहुत ही कम हैं। ईश्वर काका की आत्मा को शांति दें, उन्हें अपनी शरण में लें, परिवार को दुखों के इस भार को वहन करने की क्षमता भी दें। (देश के प्रमुख टीवी चैनल न्यूज नेशन के वरिष्ठ पत्रकार विकास मिश्र की कलम से)
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