पूत कपूत तो क्यों धन संचय
जब मैं चारों ओर दृष्टिपात करता हूं तो घर घर की कहानी है सामने ऐसे नाचने लगती है जैसे कोई नर कंकाल नाच रहा हो। महापुरुषों ने तो साफ साफ कह दिया - पूत सपूत तो क्यों धन संचय, पूत कपूत तो क्यों धन संचय। लेकिन अभी की कहानी तो पूरी तरह से उलटी है। मेरे विभाग में शर्मा जी बहुत ही सज्जन व्यक्ति थे। छोटी पोस्ट पर थे। हर मां बाप चाहता है कि आज के कम्पीटीटिव युग में अपनी संतान को बड़ी पोस्ट के काबिल बनाया जाये। उनका नाम रोशन होगा। शर्मा जी टाइप टू क्वाटर में रहते थे। चकाचौंध की दुनिया से बहुत दूर। किसी प्रकार की कोई बुरी लत नहीं लगी थी। बच्चे को बढ़ा बनाने के लिए माता पिता अपने अरमानों की आहुति दे ही देते हैं। बच्चों को अच्छे से अच्छा कपड़ा पहनाना और खुद घिसे कपड़े सालों साल पहनना। कर्ज लेकर उसे उच्च शिक्षा दिलाने का प्रबंध किया गया। बच्चा बहुत बड़ा साहब हो गया। घर छोटा लगने लगा। माता पिता सब- स्टैंडर्ड लगने लगे। विवाह भी करना है। छोटे घर में बड़े घर की बहू कैसे लायेंगे।
आखिर निर्णय ले ही लिया। अपने आफिस से लोन लेकर राजाजीपुरम के एक ब्लाक में मकान ले लिया। विवाह तक तो माता पिता के साथ रहना एक मजबूरी थी। विवाह होते ही अपनी निगाह में माता पिता तो बहुत ही पिछड़ी प्रजाति के जीव दिखाई देने लगे। अतः निर्णय लिया गया कि शादी के बाद धर्मपत्नी को नये मकान में ही गृहप्रवेश करवाया जा सके। लाट साहब ने एक बार कदम उठाया तो फिर लौट कर अपने घर में न आये। माता पिता से पूरी तरह से मुंह मोड़ लिया। पत्नी को क्या दिखायेंगे देहाती माता पिता। उजड़ और मैंनरलैस जीव। बेटा भी हो गया। दादा दादी पोते का मुंह देखने के लिए तरस गये। दो साल का पोता हो चुका था मोह ममता का सागर सुनामी ला रहा था। मूल से सूद प्यारा होता है। अरमान पल रहे थे कि अपना सब कुछ न्यौछावर कर पोते को पुत्र से भी बड़ा बना कर रखूंगा। पोते को मिलने पैदल ही चल कर आरडीएसओ से राजाजीपुरम पहुंचे। घर की घंटी बजाई। बेटा बाहर निकला और फटकारते हुए बोला- फटे पुराने कपड़े पहन आप आये हो शर्म नहीं आती। जूते भी फटे हुए हैं। आखिर मैं इतना बड़ा अधिकारी हूं। मेरी भी कोई इज्जत है। आस-पड़ोस के लोग पूछेंगे यह फटीचर आदमी कौन था।
शर्मा जी की आंखों से अश्रु धारा बह निकली। सोच रहे थे कि तुम्हारी पढ़ाई के लिए लिये गये कर्ज की किश्त भरते भरते यह हाल हो गया है लेकिन कुछ कहने का मन नहीं था। वह घर के बाहर से लौट पड़े। यह एक इत्तेफाक ही था कि मैं स्कूटर से जा रहा था। बात समझते देर न लगी। प्रेम पूर्वक उन्हें अपने साथ ले गया। हमने इकठ्ठे चाय नाश्ता किया। उन्होंने अपना दिल हल्का किया। परन्तु इतने आहत थे कि बोले अब मैं मरते दम तक नहीं आऊंगा। मैं लिखकर जाऊंगा कि मेरी लाश को यह हाथ भी न लगायें मुखाग्नि की बात तो दूर है। उन्होंने वैसा ही किया। मना कर दिया था कि मेरे मरने पर कोई इसे सूचना तक न दे। मैं अनुभव कर रहा था उनके हृदय में उठता हुआ तूफान परन्तु विवश था। कुछ न कह सकता था न कुछ कर सकता था। हुआ वहीं जो आहत होने के बाद उनका निर्णय था। सब कुछ हो जाने के बाद शायद ही उसे पता चला होगा कि उसके पिता आहत होने के बाद अधिक समय जीवित न रहे।
आज के माता-पिता को चाहिए कि अपने अरमानों की आहुति देकर बच्चों को बड़ा बनाने की सोच में परिवर्तन लायें। इस तरह घुट घुट कर अपमान के घूंट पीकर जीवन जीना छोड़ दें। सपूत होगा तो खुद बड़ा बनने की कोशिश करेगा। सपूत होगा तो माता-पिता को सम्मानित करेगा। आज माता-पिता को अपने जीवन के बारे में भी ध्यान रखना होगा। अपने मुंह का निवाला बच्चों के मुंह में डालने का समय समाप्त हो चुका है।
(लखनऊ के रहने वाले पेशे से सिविल इंजीनियर बाल कृष्ण गुप्ता 'सागर' के संस्मरण)
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