कश्मीर में सब युसूफ भाई जैसे हैं ऐसा नहीं है । पिछले 50 साल से जहर की खेती ने भी अपने फूल उगाए हैं । विचारधारा ऐसी जैसे हम भारतवासी से कश्मीर अलहदा है। वैचारिक जहर के फूल ज्यादा खतरनाक है।नाम सुहैल। बड़े जोश खरोश से मिला। बात बात में सफाई देना कि कश्मीर के लोग ऐसे नहीं है। हम सब यहां मिल जुल कर रहते हैं। कश्मीर के लोग बहुत प्यार मोहब्बत से रहते हैं। बार-बार कहना अखरता रहा।
कश्मीर गए पर्यटकों को यह अपना चारा और निवाला समझते हैं। हर उस जगह गाड़ी रुकेगी जहां से इन का कमीशन पहले से तय है। पूछताछ में पता लगा कि ग्राहक भले ही खरीदारी ना करें अगर दुकान के सामने गाड़ी खड़ी करता है तो भी इनको पैसे मिल जाते हैं।
बहरहाल यह पर्यटकों के लिए कोई नई बात नहीं है। हिंदुस्तान भर में ऐसा ही चलता है। लेकिन आपत्ती इनकी बची कुची विचारधारा पर है। सीआरपीएफ की तैनाती इन्हें नाखुश करती है। कश्मीर के बारे में जब बात करेंगे मुगल गार्डन, निशाद बाग की ही बात करेंगे। मुगल को उससे जरूर जोड़ लेंगे। आप राजा हरिसिंह की बात करिए, तो यह चुप हो जाते हैं। आप कश्यप ऋषि की बात करिए तो यह चुप हो जाते हैं। यहां के ऐतिहासिक मंदिरों की बात करिए तो उसे कुछ जानकारी ही नहीं।
मुगल कौन थे, यह नहीं जानते किंतु उन्हें अपना पूर्वज बताते फक्र महसूस करते हैं। मैंने कुछ स्कॉलर की बातें की जिन्होंने सार्वजनिक मंच पर यह कह रखा है कि मुगल आक्रमणकारियों की अवैध संतान है, ऐसा कुछ शोध करने वाले कहते हैं सोहेल चुप हो जाते हैं।
अति वादियों ने इनके दिमाग में यह डाल रखा है कि जिस तरह स्विट्जरलैंड की इकॉनमी चलती है । उसी तरह कश्मीर की अर्थव्यवस्था चलेगी। हाल में हुए जी-20 सम्मेलन की बात हुई तो सोहेल साहब कहने लगे प्रमुख कंट्री के लोग तो आए ही नहीं! स्पष्ट है नकारात्मकता ही इनके लिए अभी भी प्रमुख है।
सुहेल आम कश्मीरी नहीं है, जैसे युसूफ भाई और अन्य लोग। उम्र 28 साल है। यह मानते हैं कि 2 साल से पर्यटक बहुत आ रहे हैं। रोजी रोटी भी पर्यटन है। लगता है दिमाग शुद्ध होने में, भारतीय होने में कुछ साल और लगेंगे। रस्सी जली है किंतु कुछ जगह ऐंठन अभी भी बरकरार है। वह कश्मीर के नेताओं को खुलेआम चोर कहते हैं कि उन्होंने हमें लूटा । लेकिन बरगलाया यह नहीं स्वीकारते । शायद यह उस विचारधारा में पोषित हुए जहां इन्हें काले रंग को ही सफेद रंग बताया गया । वैचारिक स्तर पर अभी भी काम होना यहां बाकी है। संभवत तब सोहेल जैसे लोगों के विचार स्पष्ट और परिवर्तित हो सकेंगे। मैं अपनी वॉल पर 1989 का वाक्या लिखा है। जिसमें मैंने बताया था कि किस तरह दुकानदार समान ना खरीदने को जानकर महिलाओं के साथ छेड़छाड़ करते थे । आज भी उन घटनाओं को याद करके बेबसी और आक्रोश पनप जाता है । जब पुलिस से शिकायत की जाती थी तो पुलिस कहती थी माहौल खराब है चले जाइए । उसी के बाद नरसंहार हुआ था । लेकिन इस बार माहौल बदला है। अपवाद को छोड़कर सब कुछ सामान्य है । ( प्रयागराज के वरिष्ट पत्रकार वीरेंद्र पाठक की कलम से)
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