हम सन १९९६ में भारत से कनाडा पहुँच गये और तब से १९९६ - ९९ यानि तीन वर्ष अमेरिका में बिताकर फिर यहाँ कनाडा में बस गये। जब हम अमेरिका पहुँचे, बच्चों को स्कूल में दाखला दिलवाया तो दो-तिन दिन बाद दोनों बच्चे यानि मेरा बेटा अभिनव व बेटी अंकिता आपस में अंग्रेजी में बात कर रहे थे, मैंने उसी समय उनको टोका और कहा कि घर के बाहर अंग्रेजी बोलो, स्पैनिश बोलो, फ़्रैंच बोलो, कुछ भी बोलो लेकिन घर के अंदर सिर्फ़ हिंदी या पंजाबी बोलो। उस बात का नतीजा यह रहा कि आज मेरी बेटी एयर कनाडा में फ़्लाइट अटैंडेंट है और उसको यह जाब सिर्फ़ इसलिये मिली कि वह हिंदी बोलती है, हिंदी में लिख लेती है और हिंदी समझती है।
इसी बात को और भी गौरवशाली तरीके से बताऊँ तो मेरा पोता अरव घई, जो कि कनाडा में ही पैदा हुआ, पला और अब छठी कक्षा में है, अपने विद्यालय का एक मात्र छात्र है जो हिंदी बोलता है और समझता है। अभी पिछले सप्ताह उनकी कक्षा को ’३ ईडियट्स’ पिक्चर दिखाई गई जिसमें एक दो दृष्यों में टैक्निकल एक्स्प्लेनेशन्स हैं। मुझे गर्व है कि वहाँ मेरे पोते अरव को बुलाया गया और उसने उन दृष्यों को हिंदी में समझ कर विद्यार्थियों को अंग्रेजी में रूपांतरण करके समझाया जिसके लिये उसे बहुत शाबाशी मिली।
और अब आखिर में मेरी बात। मैं जयपुर, भारत में लगभग १५ तक अंग्रेजी बोलचाल की कक्षाएं चलाता रहा और कनाडा में मैंने नार्थ अमेरिका का पहला हिंदी-अंग्रेजी पाक्षिक समाचार- पत्र ’नमस्ते कनाडा’ का प्रकाशन किया। उसी से ही मेरी पहचान बनी और यूनिवर्सिटी आफ़ टोरंटो, कनाडा में हिंदी अध्यापन का अवसर मिला।
वो लोग जो हिंदी भाषी होते हुए भी हिंदी को उचित सम्मान नहीं देते उनके लिये मेरे मन में कोई विशेष सम्मान नहीं है।
भारत में हिंदी रोजगार दिलाने की भाषा नहीं बन पाई क्योंकि वहाँ अंग्रेजी का साम्राज्य है, यहाँ तक कि लगभग ८०% साक्षात्कार अंग्रेजी में होते हैं। मैं तो उन हिम्मतवालों को तलाश रहा हूँ जो अपनी नौकरी का साक्षात्कार यह कहकर छोड़ कर आयें कि पहले हिंदी में प्रश्न करना करना सीखिये बाद में मेरा साक्षात्कार लीजिये। अगर ऐसा न हुआ तो एक दिन ऐसा आयेगा कि हिंदी अध्यापन के लिये साक्षात्कार अंग्रेजी भाषा में होंगे।
( लेखक सरन घई, संस्थापक-अध्यक्ष, विश्व हिंदी संस्थान, कनाडा)
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