अक्सर मैं अपने आसपास देखता हूं कि लोग जब सेवानिवृत्त हो जाते हैं तो घरवालों की निगाह में भी अब फालतू के आदमी हो जाते हैं। आसपास के भी सब लोग अब यही समझने लगते हैं कि अब यह किसी काम के नहीं रहे। बहू बेटों की निगाह में भी बच्चों को स्कूल छोड़ने जाओ, लेने जाओ और जितनी आलतू फालतू के काम है वह सेवानिवृत्त बंदे के पल्ले बांध दिए जाते हैं । फिर एक शब्द यूज होता है कि दिन भर तो कुछ करते नहीं है, खाली बैठे रहते हैं । बस चारपाई तोड़ते हैं। इस प्रकार के बंदे के अंतर्मन में भी कहीं पर हीनभाव आ जाता है। यही हीन भाव कुछ समय बाद चेहरे पर तनाव के रूप में उभरकर भी आ जाता है। बुढ़ापा भी दिखाई देने लगता है।
मेरे पापा जब सन् 1970 में रिटायर हुए तो मैंने उनसे प्रार्थना किया था कि पापा आप जीवन भर अति व्यस्त रहे हैं । आपने रेलवे की वर्किंग पर कई पुस्तकें भी लिखी हैं। आप अत्याधिक कार्य कुशल रहे हैं । अतः रिटायरमेंट के बाद भी अपने आप को किसी ना किसी काम में लगाए रखिएगा। उन्होंने कहा था कि जीवन भर तो मैं मेहनत करता रहा । क्या रिटायरमेंट के बाद मुझे आराम भी नहीं करने दोगे। मैंने कहा था कि पापा आराम करो लेकिन यह आराम महंगा पड़ जाएगा। वही हुआ भी रिटायरमेंट के 6 महीने के अंदर ही वह भगवान को प्यारे हो गए।
जीवन में कुछ तो हम अपने अनुभव से सीखते हैं और कुछ दूसरों के अनुभव से भी सीखते हैं। मैंने तो जीवन में प्रण कर लिया था उसी समय, जब हमें पढ़ाया गया था कि अपने जीवन के अंत तक मनुष्य अपने आप को व्यस्त रखें। सेवानिवृत्त होने से पहले ही बेटी के स्कूल के सहपाठियों को घर में फ्री पढ़ाना शुरू कर दिया था। जिसके कारण उनके हाई स्कूल में अच्छे नंबर आए। उसके स्कूल में भी जीरो पीरियड बना कर दो पीरियड फ्री मैंने फ्री में पढ़ाये। इसी का परिणाम था कि वह सब बच्चे अच्छे अंको से पास हो गए। मुझे सबसे बड़ी खुशी इस बात की थी कि जब बच्चे घर में आते तो लगता कि एक रौनक आ गई है। बच्चे आपस में हंसते खेलते। फिर यूंही बेटी इंटर में गई तो इंटर में भी 2 पीरियड फ्री में पढ़ाये। फिर डिग्री में भी पढ़ाई कराई। सबसे अच्छा लगता कि सुबह शाम बच्चों का घर में आना-जाना बना रहता जिससे इकलौती बेटी को यह महसूस नहीं हुआ कि वह अकेली है। हमें इस बात का एहसास होता कि हमारे एक बच्चा नहीं यह सारे बच्चे हमारे अपने हैं। इनका जीवन बनाना भी हमारा ही दायित्व है क्योंकि हमें वर्तमान परिस्थितियों में पता है कि माता-पिता को अपने बच्चों के लिए कितना समय मिलता है। बच्चों को भी जितना अपनापन दे सकते थे दिया गया और यही कारण है कि कुछ बच्चे आज भी बरसों बाद तक हमारे साथ जुड़े हुए हैं। हमारे और उनके बीच में कोई आर्थिक संबंध नहीं है। संबंध है तो एक प्रेम का संबंध है। श्री गुरु गोविंद सिंह जी महाराज ने भी कहा था "जिन प्रेम कियो तिन ही प्रभु पायो"।
इसके अतिरिक्त कविताएं लिखना, कवि गोष्ठियों में जाकर के कविताएं पढ़ना, तालियां बटोरना, कहानियां लिखना , उन्हें पुस्तक के रूप में छपवाना। नाना प्रकार की मनोवृति के सज्जनों और देवियों से आए दिन रूबरू होना या ऑनलाइन वार्ता करना। फेसबुक पर पोस्ट डालना। फिर सभी भाई बहनों के आये कमेंट पर यथायोग्य सराहना करना। यह बात जरूरी है कि मनुष्य को हरदम व्यस्त रहना चाहिए। सेवानिवृत्ति के बाद इन सब बातों में समय तो बहुत अच्छा कट जाता है। जो सबसे बड़ी उपलब्धि है कि तनाव बिल्कुल पास नहीं आता। " ग़म न रहे ग़म अगर हम न रहें हम। आयु जरूर बढ़ती है पर चेहरे पर तनाव के लक्षण नहीं आते। कसम से अपने लिए भी समय नहीं मिलता कि हम कुछ सोच पाए कि आगे क्या होगा। वर्तमान में जी रहा हूं। भविष्य की कभी सोची नहीं। भूतकाल की ओर कभी लौट के देखा नहीं।
मेरी बेटी कई बार मुझसे एक प्रश्न करती है। वे सदा पूछती है कि पापा मैंने आपको कभी खाली बैठे नहीं देखा । क्या आपका मन आराम करने को नहीं करता। अगर काम नहीं होता तो आप अपने लिए काम ढूंढ लेते हो। कुछ साल पहले भी मैंने अपने यहां अपने यहां के सब्जी वाले से कहा कि अगर कुछ बच्चे जो पढ़ना चाहते हैं और साधन नहीं हैं तो मेरे यहां आकर के फ्री पढ़ सकते हैं। उस बेचारे की मेहनत से मेरा वक्त बढ़िया से कटने लगा। बच्चे आने लगे। किसी भी प्रकार की सोच कभी पास आई ही नहीं, सोचने का भी वक्त नहीं है।
यह तो सत्य है की जीवन एक लंबे धागे के समान है जिसकी एक सिरे पर जीवन और दूसरे सिरे पर मृत्यु लिखी हुई है। मृत्यु निश्चित है। जिस दिन आनी है आ जाए। कोई चिंता नहीं है। मैं देखता हूं कि कुछ लोग तो रोज रोज मरते हैं । नाना प्रकार की चिंताओं से ग्रस्त रहते हैं। कल क्या होगा अगर यह हो गया तो, अगर ऐसा हो गया तो। कहते हैं लोग कि हम धार्मिक हैं। वह कहते भी हैं कि ईश्वर है। तब कभी महसूस क्यों नहीं किया कि ईश्वर तो कण-कण में व्याप्त है। वह किसी धर्म जाति के बंधन में नहीं है। वे किसी चारदीवारी में कैद नहीं है। जब कण कण में ईश्वर है तो जो व्यक्ति विशेष जो आपसे मिलने आते हैं या जिन से हम रोज मिलते हैं क्या उनमें ईश्वर नहीं है। हम उनसे जो व्यवहार करते हैं क्या वह सही में अगर ईश्वर सामने आ जाए तो क्या हम करेंगे। मरते दम तक मस्त रहने का मूलमंत्र है कि वर्तमान में जियो। सेवानिवृत्त हो जाओ पर हो नहीं।
{ लेखक लखनऊ के बाल कृष्ण गुप्ता "सागर" }
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