दुनियाभर में शिवमंदिर में शिवलिंग पर ही जलाभिषेक होता है लेकिन आपको जानकर ताज्जुब होगा कि उत्तर प्रदेश में एक ऐसा मंदिर है जहां शिवलिंग नहीं शिवप्रतिमा पर होता है जलाभिषेक। इस शिव मंदिर के गर्भगृह में है शिव-पार्वती की प्रणय मुद्रा में मूर्ति है। यह प्राचीन मूर्ति 11वीं शताब्दी में खेतों की जुताई के दौरान मिली थी। कहा जाता है दक्ष प्रजापति के यज्ञ में पार्वती द्वारा शरीर त्यागने के पश्चात यहां शिव ने किया था गुप्त निवास। शिवमंदिर में मौजूद यह मूर्ति अजंता एलोरा की प्रतिमाओं की याद दिलाती हैं मूर्तिंयां। इस मंदिर में प्रणय मुद्रा में हैं शिव-पार्वती, सावन में मूर्ति पर चढ़ाया जाता है पानी। यह मंदिर सोनभद्र जिले में हैं।
सोनभद्र जिले में स्थित शिवद्वार एक ऐसा ही पवित्र स्थल है, जहां खेतों से सिर्फ अनाज ही नहीं पुरातन काल की मूर्तियां भी धरती के गर्भ से प्रकट होती हैं। 11वीं शताब्दी में इसी तरह एक खेत की जुताई करते समय शिव पार्वती की एक ऐसी प्रतिमा प्रकट हुई, जो कलाकारी की अद्भुत उदाहरण है। इस अनोखी प्रतिमा में जहां शिव पार्वती प्रणय मुद्रा में हैं वहीं इसी प्रतिमा में शिवगणों सहित अन्य देवी देवताओं की छोटी—छोटी मुद्राओं को भी उकेरा गया है। उत्तर प्रदेश के सोनभद्र जिले के मुख्यालय रॉबर्ट्सगंज के पश्चिम में 40 किलोमीटर तथा मीरजापुर से करीब 52 किलोमीटर स्थित घोरावल से 10 किमी दूरी पर उमा माहेश्वर मंदिर शिवद्वार धाम स्थित है। यह विशाल मंदिर भगवान शिव और उनकी पत्नी पार्वती को समर्पित है। इस मंदिर के गर्भगृह में देवी पार्वती की 11 वीं सदी की काले पत्थर की मूर्ति स्थापित की गयी है जो अपने आप में ही अद्भुत नजर आती है। तीन फुट ऊंची मूर्ति सृजन मुद्रा में निर्मित की गयी है। एक रचनात्मक मुद्रा है। यह विशाल प्रतिमा उस काल के शिल्प कौशल के बेहतरीन नमूने और शानदार कला का प्रदर्शन करता है। यह मंदिर, क्षेत्र के सबसे प्रतिष्ठित मंदिरों में से एक है। इस क्षेत्र के निवासी इस मंदिर को धार्मिक महत्व के कारण दूसरी काशी के रूप में मानते है। कई सदियां बीत जाने के बाद ऐसे पौराणिक स्थलों का कोई लिखित साक्ष्य तो नहीं मिलता, किन्तु पीढ़ियों से चली आ रही किंव दन्तियों को ही सत्य मान लिया जाता है।
शिवद्वार मंदिर में भगवान शंकर और पार्वती की एक दुर्लभ मूर्ति स्थापित है। इसकी खासियत ये है कि इसमें शिव-पार्वती प्रणय मुद्रा में दिखाई पड़ रहे हैं। ये प्रतिमा काले रंग के पत्थर से बनी है। कहा जाता है कि ये दुनिया में भगवान शंकर की अकेली ऐसी मूर्ति है। यहां शिवलिंग पर जल नहीं, बल्कि मूर्ति पर चढ़ाया जाता है। सोनभद्र जिले को सोनभूमि के नाम से भी जाना जाता है। यहां के निवासी मानते हैं कि यहां की चट्टानों में भगवान शंकर के आसन की छवि दिखाई देती है। मान्यता है कि अहंकार के कारण दक्ष प्रजापति ने देवाधिदेव शिव को अनुष्ठान में नहीं बुलाया था। पति के अपमान से दुखी सती ने पिता के अहंकार का नाश करने के लिए अपनी देह का त्याग कर दिया। इससे क्रोधित होकर शिव ने अपनी जटा से वीरभद्र की उत्पत्ति की और उसे दक्ष का वध करने का आदेश दिया। वीरभद्र ने दक्ष का वध कर दिया तो वहीं, शिव के गणों ने दक्ष के यज्ञ का विध्वंस कर दिया। बाद में देवताओं के समझाने पर शिव ने दक्ष के कटे सिर की जगह बकरे का सिर लगा दिया। दक्ष के अहंकार को चूर-चूर करने के बाद भगवान शंकर पार्वती के सती होने के चलते बड़े ही दुखी मन से वहां से चले गए। कहते हैं इसके बाद शिव ने सोनभूमि का रुख किया। यहां शिव ने अगोरी क्षेत्र में कदम रखा। जहां शिव ने इस इलाके में सबसे पहले चरण रखे, उसे आज शिवद्वार के नाम से जाना जाता है। यहां अगोरी क्षेत्र में उन्होंने अज्ञातवास का फैसला लिया। शिव के गुप्त स्थान पर अज्ञातवास करने के चलते इस क्षेत्र को 'गुप्तकाशी' के नाम से भी जाना जाता है।
किवदंती के अनुसार खेत में हरवाहे हल चला रहे थे, अचानक एक हल के नीचे का लौह भाग जमीन में किसी पत्थर से फंसकर रूक गया। हल जहां पर रूका था वहां से अचानक रक्त, दूध और जल की धारा प्रवाहित होने लगी। हरवाहा भाग कर गांव में गया और लोगों को जनकारी दी। गावं वाले जब उस स्थान की मिट्टी को हटाये तो वहां पर काले पत्थरो से निर्मित भगवान शिव और पार्वती की मूर्ति पड़ी थी। लोगों ने मूर्ति को हटाने का प्रयास किया किन्तु कोई भी मूर्ति को टस से मस नहीं कर पाया। लिहाजा लोग मायूस होकर लौट आये। रात को एक किसान को स्वप्न आया, जिसमें शिव जी ने कहा पास के श्मशान भूमि में उनका मंदिर बनाकर प्रतिमा को स्थापित किया जाये। उसके बाद उस किसान ने सुबह स्वप्न की बात सभी को बतायी और स्वप्न में बतायी गयी जमीन पर जहां एक घना बगीचा भी था, वहीं एक पेड़ के नीचे लोगों ने प्रतिमा लाकर स्थापित कर पूजा पाठ शुरू कर दी। इसके पश्चात 1942 में मंदिर का निर्माण हुआ। एक बार इस स्थल पर हिमालय से जगतगुरू शंकराचार्य स्वामी विष्णु देवानन्द सरस्वती जी महराज आये और बताया कि शिव पार्वती की यह प्रतिमा पूजनीय नहीं बल्कि अवलोकनीय है। तत्पश्चात उन्होंने मंदिर का जीर्णोद्धार किया और 23 अप्रैल 1985 को शिवलिंग की स्थापना की। लोगों का कहना है कि मंदिर में श्रद्धापूर्वक पूजन करने पर भक्तों की मनोकामना पूर्ण होती है। जिन लोगों की मनोकामना पूर्ण हुई है उनलोगों ने यहां पर कुछ अन्य मंदिर व हवनकुण्ड भी बनाये हैं।
*शिवद्वार को क्यों कहा गया गुप्त काशी*
शिव द्वार धाम को गुप्त काशी के नाम से भी जाना जाता है। हालांकि कुछ लोगों का यह भी कहना है कि पिछले कुछ वर्षों से इसे गुप्त काशी का नाम दिया गया है। यह बात इससे भी प्रमाणित होती है कि जब मंदिर का जीर्णोद्धार स्वामी शंकराचार्य जी ने किया था उस दौरान मंदिर में एक शिलापट्ट भी लगाया गया था, लेकिन उस शिलापट्ट में कहीं भी गुप्त काशी का जिक्र नहीं है। फिर भी गुप्त काशी के संदर्भ में एक किंवदन्ती प्रचलित है। यहाँ के निवासी मानते हैं कि यहाँ की चट्टानों में भगवान शंकर के आसन की छवि दिखाई देती है।
मान्यता है कि अहंकार के कारण दक्ष प्रजापति ने अपने यज्ञ में देवाधिदेव शिव को अनुष्ठान में नहीं बुलाया और पति के अपमान से दुखी सती ने पिता के अहंकार का नाश करने के लिए अपनी देह का त्याग कर दिया। इससे क्रुद्ध होकर शिव ने अपनी जटा से वीरभद्र की उत्पत्ति की और उसे दक्ष का वध करने का आदेश दिया। वीरभद्र ने दक्ष का वध किया तो शिव के गणों ने दक्ष के यज्ञ का विध्वंश कर दिया। बाद में देवताओं के समझाने पर शिव ने दक्ष के कटे सर की जगह बकरे का सर लगा दिया।
दक्ष के अहंकार का मर्दन करने के पश्चात भगवान शंकर पार्वती के सती होने के चलते बड़े ही खिन्न मन से वहां से चले गए। कहते हैं शिव ने सोनभूमि सोनभद्र का रुख किया। यहाँ शिव ने सोनभूमि के अगोरी क्षेत्र में कदम रखा। जहाँ शिव ने इस इलाके में सबसे पहले चरण रखे, उसे आज शिवद्वार के नाम से जाना जाता है। कहा जाता है कि दक्ष के यज्ञ से वापस लौटने पर वहां के घटना से शिव इतने खिन्न हुए कि यहाँ अगोरी क्षेत्र में उन्होंने अज्ञातवास का निर्णय ले लिया। शिव के गुप्त स्थान पर अज्ञातवास करने के चलते इस क्षेत्र को ‘गुप्तकाशी’ के नाम से जाना जाता है।
*यहां शिवलिंग नहीं शिवप्रतिमा पर होता है जलाभिषेक*
हर वर्ष महाशिवरात्रि और बसंतपंचमी पर विशाल मेला लगाता है किन्तु श्रावण माह पूरे महीने मेला नगा रहता है। सावन के महीने में पूरे देश में भगवान शंकर के लिंग पर जल चढ़ाने की प्रथा है, लेकिन शिवद्वार में ही मूर्ति पर जल चढाने की प्रथा है। बताते हैं यहाँ कि काले पत्थर से बनी शिव-पार्वती की मूर्ति अलौकिक है। देश में शायद ही कहीं और शिव की ऐसी प्रतिमा देखने को मिले और शायद ही कहीं यिाव प्रतिमा पर जलाभिषेक होता हो। सावन के महीने में यहाँ कांवड़िए मीरजापुर में गंगा नदी से और विजयगढ़ किले में स्थित तालाब से जल लाकर मूर्ति पर चढाते हैं। यहाँ मंदिर परिसर में श्रद्धालु अपनी मनौतियाँ पूरी होने पर कथा के साथ-साथ मुंडन, शादी जैसे आयोजनों के लिए भी आते हैं।
मूर्तियों में दिखती है अजंता एलोरा की झलक
बताते हैं कि यहां आसपास के जितने भी गांव है सबके घर और दरवाजे पर मूर्तिंया पड़ी दिखायी दे जायेंगी। अधिकतर मूर्तियां खण्डित हैं, जो खुदायी में या फिर खेतों में हल चलाते समय मिली है। 2018 में ही गांव के एक धोबी परिवार को भगवान विष्णु और मां लक्ष्मी की क्षीर सागर में श्यन करने वाली मुद्रा में मूर्तियां मिली। उक्त व्यक्ति अपने जमीन पर मंदिर बना रहा है, जिसमें उन मूर्तियों को स्थापित करेगा। मंदिर के आसपास भी कई खंडित मूर्तियां रखी गयी हैं। इन्हें देख कर लगता है कि यह सभी या तो सोढरीगढ़ दुर्ग में मिलीं थीं या आस पास के खेतों से खुदाई के दौरान मिली जिन्हें लोग मंदिर के पास छोड़ गए। यहाँ पहाड़ों में मिलने वाली मूर्तियों को देखकर ऐसा लगता है कि प्राचीन काल से यह इलाका शिव साधना का एक प्रमुख केन्द्र रहा है। सोढ़रीगढ़ दुर्ग अब पूरी तरह तहस नहस हो चुका है। कुछ अवशेष ही बचे हैं। कहा जाता है कि इस दुर्ग को आल्हा उदल ने बनवाया था। बताया जाता है कि इस दुर्ग से मैहर तक एक सुरंग बनायी गयी थी जो अब नहीं रही। दुर्ग के आसपास खेतों में मिलने वाली मूर्तियों को देखकर यही कहा जा सकता है कि यह क्षेत्र शिल्प कला का केन्द्र रहा होगा। आश्चर्य करने वाली एक बात और है कि यहां मिलने वाली सभी मूर्तियां अपनी प्राकृतिक अवस्था में निर्मित हैं। किसी मूर्ति पर कलाकार ने वस्त्र नहीं बनाये हैं। हालांकि यहां जो भी मूर्तियां मिली हैं वे देवी देवताओं की हैं किन्तु उसकी कला अजंता एलोरा में स्थापित मूर्तियां से मेल खाता है। इस क्षेत्र को देखने के बाद यह महसूस होता है कि यहां कभी मंदिरों की विशाल श्रृंखला रही होगी, जो मुगल आक्रमण के दौरान तहस नहस कर दी गयी
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