धरती का स्वर्ग कश्मीर की बात बचपन में स्कूली किताबों में पढ़ी थी, अमर उजाजा जम्मू-कश्मीर में नौकरी करने के दौरान बहुत कुछ नजदीक से जानने को मिला। श्रीनगर में डल झील जो तीन दिशाओं से पीर पंजाल की पहाड़ियों और जबरवन के पहाड़ों से घिरी है उसमें चलने वाले शिकारों पर सैलानियों की चहल-पहल के साथ झील में बने हाउस बोट (स्थिर नौकाओं) की फोटो भी किताबों में देखी थी। डल झील के आसपास चिनार के पुराने-नए दरख्तों, तमाम तरह के फूल, पौधों और पेड़ों की खूबसूरती के बीच हाउसबोट का अलग ही नजारा रहता था। देश-दुनिया के कोने-कोने से आने वाले पर्यटकों को लुभाने वाली 18 वर्ग किलोमीटर क्षेत्रफल में फैली डल झील में तैरते शिकारे के साथ हाउसबोट को लेकर उत्सुकता हुई। बहुत जगहों पर पढ़ा यह मुगलों की देन हैं। इतिहास के किताबों में बताया गया है सत्रहवीं सदी में मुगल शासकों ने फारसी वास्तुकला में यहां कई तरह के सीढ़ीदार उद्यानों (टेरेस गार्डन) का निर्माण करवाया था। इन उद्यानों के संयोजन को ही मुगल गार्डन कहा जाता है। श्रीनगर में मुगल गार्डन में निशात बाग, शालीमार बाग और चश्मे शाही बाग शामिल हैं। शालीमार बाग सबसे बड़ा और सबसे पुराना है तो चश्मे शाही सबसे छोटा। डल झील के पूर्वी छोर पर स्थित निशात बाग को 1633 में मुगल बादशाह जहांगीर की पत्नी मेहरुन्निसा (नूरजहां) के भाई और शाहजहां की पत्नी मुमताज महल के पिता आसिफ खान ने डिजाइन और निर्मित करवाया था। यहां 12 सीढ़ीदार बाग हैं जिसमें तमाम तरह के खूबसूरत फूल और पेड़ लगे हैं। निशात बाग का अर्थ होता है खुशियों का बगीचा। इसमें कई फव्वारों के साथ एक शानदार केंद्रीय वॉटर चैनल है, जो चिनार के पुराने, ऊंचे पेड़ों से घिरा है। इससे वहां बनी नहर के जरिए झरने का पानी नीचे डल झील तक जाता है। यहां से डल झील का खूबसूरत नजारा स्वर्गिक आनंद का एहसास कराता है। इस सीढ़ीदार गार्डन के एक तरफ डल झील और दूसरी तरफ हिमालय-पीर पंजाल की चोटियां दिखाई पड़ती हैं। शालीमार बाग का निर्माण 1619 में मुगल बादशाह जहांगीर ने अपनी पत्नी नूरजहां के लिए करवाया था। इसे फैज बक्श और फराह बख्श जैसे कई अन्य नामों से भी जाना जाता है। यह जगह दुनिया भर के पर्यटकों के बीच काफी लोकप्रिय है। इस बाग में चार स्तर पर उद्यान बने हैं। सबसे ऊपरी स्तर पर उद्यान निचले स्तर से दिखाई नहीं देता है। इसे हरम की महिलाओं के लिए बनाया गया था। शालीमार गार्डन ग्रीष्म एवं पतझड़ में आकर्षक होता है जब पत्तों का रंग बदलता है एवं अनेकों फूल खिल जाते हैं। कश्मीर की इस खूबसूरती ने बालीवुड को भी खूब रिझाया। कश्मीर की वादियां, डल झील और साथ लगे मुगल गार्डन फिल्म में दर्जनों हिंदी एवं अन्य भारतीय भाषाओं की फिल्मों की हुई है। डल झील का मुख्य आकर्षण है यहां के शिकारे और हाउसबोट। डल झील में चलती, फिरती-तैरती दुकानें (फ्लोटिंग मार्केट), फ्लोटिंग गार्डन भी शिकारों पर ही लगी होती हैं।
हाउसबोट को लेकर उत्सुकता का समाधान अध्ययन में मिला,इसकी खोज किसी मुगल ने नहीं बल्कि श्रीनगर में 9 मई 1907 को पैदा हुए स्वामी लक्ष्मणजु की देन है। बचपन से ही उन्होंने अपना पूरा जीवन कश्मीर शैववाद का अध्ययन और अभ्यास करने में बिताया। इनके पिता पं. नारायणदास रैना (जिन्हें नव नारायण के नाम से भी जाना जाता है) कश्मीर में हाउस बोट शुरू करने वाले पहले व्यक्ति थे। तीन साल की उम्र में लक्ष्मण ने पूजा के लिए मिट्टी से शिव-लिंग बनाने का काम किया। सबेरे पांच बजे वे ध्यान के लिए बैठ जाते। उसके असामान्य व्यवहार ने उसके माता-पिता को चिंतित कर दिया, लेकिन स्वामी राम ने कहा कि लड़का अपने पिछले जन्म में एक महान योगी था और उसका योग इस जन्म में पूरा होगा। लक्ष्मणजु का बचपन स्वामी राम की आध्यात्मिक देखरेख में बीता, जिन्होंने उन्हें गायत्री मंत्र का जाप करना सिखाया और कश्मीर शैववाद के सिद्धांतों से अवगत कराया। स्वामी राम के मरने से पहले उन्होंने सात वर्षीय लक्ष्मण को अपने प्रमुख शिष्य स्वामी मेहताब काक को सौंपा, जिन्होंने लड़के को शिव शास्त्र की मौखिक परंपरा सिखाई। स्कूल में लड़का गहरे मग्न हो जाता था। 13 साल की उम्र में उनके माता-पिता ने उनकी शादी तय करने की सोची, लेकिन लक्ष्मण ने मना कर दिया। जब वह प्री-मैट्रिक में थे तो उनके पिता बीमार पड़ गए, इसलिए उन्हें अपने भाइयों के साथ व्यवसाय की देखभाल करने के लिए कहा गया ताकि उन्हें स्कूल छोड़ना पड़े। उन्होंने अपना अधिकांश समय मेहताब काक के साथ अध्ययन और योगाभ्यास के लिए समर्पित किया। वह 2 बजे से भोर तक ध्यान का अभ्यास करते थे। 20 वर्ष की आयु में उन्होंने आत्म-साक्षात्कार का अनुभव किया। इसके बाद, वह काम पर भी समाधि में चले जाते थे और व्यापार में रुचि खो देते थे, जिसके लिए उनके पिता ने उन्हें फटकार लगाई थी। उसने घर छोड़ दिया। उनके भाइयों को निम्नलिखित नोट के साथ एक कागज का टुकड़ा मिला; "मेरे प्यारे भाइयों, मैं सर्वोच्च की तलाश में जा रहा हूं, कृपया मेरे माता-पिता की देखभाल करें"। बाद में पता चला कि वह कश्मीर के हंडावारा में साधमाल्युन (साधुगंगा) के प्रसिद्ध आश्रम में योग का अभ्यास कर रहे हैं। उनके पिता उन्हें शहर आने और कारखाने के परिसर में एक नए बने घर में रहने के लिए राजी करने में सफल रहे। यहाँ उन्होंने कश्मीर शैव साहित्य का अध्ययन जारी रखा। उनके पिता ने अपने बेटे को घर पर पढ़ाने के लिए सबसे ज्ञानी पंडित महेश्वर राजदान को लगाया। उन्होंने संस्कृत व्याकरण और भारतीय दर्शन के विद्यालयों का भी अध्ययन किया। 1934-35 के दौरान ब्रह्मचारी लक्ष्मणजू ने निशात उद्यान के आसपास के क्षेत्र में ईशबर गाँव के ऊपर की तलहटी में एक एकांत स्थान चुना, जहाँ उनके आदर्श शिक्षक अभिनवगुप्त, जो कश्मीर शैववाद के सबसे प्रमुख लेखकों में से एक थे, नौ शताब्दियों पहले रहते थे। चयनित स्थल पर उनके माता-पिता द्वारा एक बंगले का निर्माण किया गया था। जब वे लगभग 30 वर्ष के थे, तब उन्होंने संतों से मिलने के लिए भारत के कुछ स्थानों का दौरा किया। उन्होंने कुछ समय बंबई समुद्र तट पर और कुछ समय सेवाग्राम में महात्मा गांधी के साथ बिताया, फिर पांडिचेरी में श्री अरबिंदो के साथ, जहां अरबिंदो की मां ने उनमें रुचि दिखाई। वहां से उन्होंने रमण महर्षि से मिलने के लिए तिरुवनमलाई जाने का रास्ता ढूंढा। वहाँ उन्होंने कुछ सप्ताह बिताए, और बाद में टिप्पणी की; "मुझे लगा कि वे सुनहरे दिन वास्तव में दिव्य थे"। स्वामी लक्ष्मणजु ने श्रीनगर स्थित ईश्वर आश्रम ट्रस्ट की स्थापना की, जो कश्मीर शैववाद और त्रिक दर्शन पर उनकी शिक्षाओं को आज भी जारी रखा है।
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