बस्ती रहे हो या बनारस जब भी कश्मीरी पंडितों के जोर-जुल्म की घटना को सुनता तो खून खौल उठता था। खून खौलता था खुद हिंदू होकर भी असहाय होने पर, केंद्र सरकार की कश्मीरी पंडितों के मौत पर मौन को देखकर,जनता के लिए जान देने की बात करने वाले नेताओं को वोट के लिए गूंगे बनते देखकर। अमर उजाला जम्मू कश्मीर में काम करने के दौरान बाड़ी ब्राम्हण में बड़ी संख्या में ऐसे कश्मीरी पंडितों से मुलाकात हुई, जिनके दिल,दिमाग व देह में कश्मीर से पंडितों के पलायन के दर्दनाक दास्तां के जख्म दिखते हैं। नब्बे के दशक में जिस कश्मीर में दस लाख से ज्यादा हिंदुओं की आबादी थी 20 वीं सदी में जब आपका यह रोमिंग जर्नलिस्ट पहुंचा तो मुठठीभर ही बचे थे। राज नेताओं को भूलने की बीमारी होती है लेकिन मुझे कश्मीर में हिंदुओं के नरसंहार की खबरों को पढ़कर जिस तरह बैचेनी होती थी,जम्मू-कश्मीर जाने के दौरान जो महसूस हुआ उससे उस समय की सरकार व नेताओं के प्रति मन में नफरत भर गयी। दस लाख हिंदुओं से बामुश्किल दस हजार ही बचे होंगे वह भी किस तरह जी रहे हैं,बयां करना मुश्किल है।
जम्मू-कश्मीर से बस्ती आने के बाद उन वहां के सिनेमाहॉलों का खंडहर में तब्दील होते देखकर दिल में बहते दुख के बीच सुंदर टॉकीज के खंडहर परिसर के पास बाइक खड़ी करके सोच के समंदर के किनारे बैठ गए। अचानक फोन की घंटी बजी,नाम लिखा था पंडित रामनिवास पंगोत्रा। जय माता दी कहकर प्रणाम कहने के साथ बातचीत शुरू हुई बोले कश्मीर से हिंदुओं के बारे में पलायन पर जिस खबर पर काम कर रहे हैं उसको लेकर चर्चा हुई तो बड़गाम के जिले के राजदान के रिश्तेदार हैं, उनसे बात कर लीजिए फोन दे रहा हूं। जयमाता दी के साथ बोले हमारे ताऊ तेजकृष्ण राजदान बड़गाम जिले में रहते थे। जब कश्मीर में हिंदुओं के साथ बर्बरता बढ़ी तो पंजाब आ गए। 1990 में टीवी पर कश्मीरी विस्थापितों के बसाने की खबर सुनकर वह पंजाब से बड़ागाम जिले में पैतृक गांव को रवाना हुए। फरवरी का महीना था साहब बड़गाम में उनकी एक मुस्लिम मित्र से मुलाकात हुई। उन्होंने तेज कृष्ण को अपने साथ श्रीनगर चलने के लिए राजी किया और दोनों बडगाम से श्रीनगर के लिए मेटाडोर में सवार हो गए। जब मेटाडोर कदल गांव पहुंचा, तो अचानक उसके मुस्लिम दोस्त ने एक रिवॉल्वर निकाली और उनके सीने में कई गोलियां उतार दी। उनके शव को घसीट कर स्थानीय मस्जिद में ले जाया गया और उनके शव को वहां प्रदर्शन के लिए रखा गया। देर रात को किसी तरह पुलिस के हस्तक्षेप से उसके शव को सुरक्षित निकाला जा सका। साहब उनको निर्ममता से मार डाला गया। इसी तरह सैकड़ों नहीं हजारों कश्मीरी पंडितों को मार डाला गया। कई कश्मीरी पंडितों के शरीर के टुकड़े-टुकड़े कर दिए। आंख फोड़ने से लेकर खाल उतारने तक की घटनाएं हुई लेकिन केंद्र सरकार खामोश तमाशा देखती रही। कश्मीरी पंडितों की अमानवीय हत्या को लेकर दुनियाभर में मानवाधिकार का ढोल पीटने वाले राष्ट्रीय व अंतरराष्ट्रीय संगठन खामोश रहें। पाकिस्तान समर्थित आतंकवादियों के साथ स्थानीय मुस्लिमों ने जिस तरह हिंदुओं का नरसंहार किया,उसको सोचकर दिल कांप जाता है। आप जब खबर बनाइएगा बताइगा साहब हम पंगोत्रा जी से अखबार मंगवा लेंगे। कश्मीरी पंडितों के नरसंहार के भुक्तभोगी की बात सुनकर दिल रोने लगा था। वह बोले 21 मार्च 1997 को संग्रामपरा में 7 कश्मीरी पंडितों को अंधेरे में ले जाया गया और गोली मार दी गई। 25 जनवरी 1998 को वंधामा में 23 कश्मीरी पंडितों का नरसंहार करने के साथ स्थानीय मंदिर को क्षतिग्रस्त कर दिया गया। 23 मार्च 2003 को नाडीमार्ग में 24 कश्मीरी पंडितों का नरसंहार किया गया था। साहब यही नहीं रामबन के गढ़त गूल गांव में तीन कश्मीरी पंडितों को आतंकवादियों ने मार डाला। बस में यात्रा कर रहे यात्रियों में से 5 कश्मीरी पंडितों की पहचान करके उन्हें अलग किया । उसी बस में मुस्लिम और हिंदू डोगरा भी यात्रा कर रहे थे, लेकिन आतंकवादियों ने उन्हें छुआ तक नहीं। 5 कश्मीरी पंडितों को बस से उतरने का आदेश दिया गया। खतरे को भांपते हुए, 2 कश्मीरी पंडित अपहर्ताओं के चंगुल से छूटकर भाग निकले क्योंकि एक खड्ड में कूद गया और दूसरा पहाड़ी की ओर भाग गया। बाकी तीन कश्मीरी पंडितों को गोलियों से भून दिया। बस में एक और कश्मीरी पंडित था जो मौत से बच निकला, क्योंकि उसने अपनी असली पहचान नहीं बताई थी। कश्मीरी पंडित की बजाय, उसने खुद को एक मुसलमान के रूप में पेश किया था और इस तरह बच गया था। कश्मीरी पंडितों की हत्या के पीछे एक चेतावनी भरा संदेश स्पष्ट था- "क्या तुम वापस घाटी में लौटने की हिम्मत करोगे"
कश्मीरी पंडितों की नरसंहार की घटना होने पर केंद्र सरकार का पुर्नवास का जुमला तैयार रहता था। जेहाद के नाम पर जिस तरह कश्मीरी पंडितों को खत्म किया वह पीड़ा सिर्फ कश्मीर की नहीं हिंदू समाज की है। हिंदू समाज को इसके लिए आगे आना होगा। ..कश्मीरी पंडितों के नरसंहार की घटनाएं सुनकर ओह ओह हे राम कह रहा था। मिश्रा जी आप सुन रहे हैं कश्मीर में हिदुओं के साथ जो जुल्म हुआ उसमें मासूम बच्चों को भी नहीं बख्शा। दो साल के बच्चे तक को गोली मार दी। केंद्र सरकार ने हर बार कश्मीर घाटी में पंडितों के पुनर्वास का प्रस्ताव दिया, पुराने व नए कट्टर आतंकवादी संगठन कश्मीरी पंडितों को गंभीर परिणाम भुगतने की चेतावनी देते रहें कि अगर उन्होंने कश्मीर वापस लौटने का विकल्प चुना… वहां की बहुसंख्यक मुस्लिम आबादी मूक दर्शक बनी रही, जब जिहादियों द्वारा कश्मीरी पंडितों का शिकार किया गया गया तो वे भी चुप रहे जब कश्मीरी अपना चूल्हा और घर छोड़ रहे थे, मुसलमानों को भी बंदूक का डर था, वह बंदूक जो जिहादियों के पास थी, पहले उन बंदूकों ने कश्मीरी पंडितों को मार डाला, फिर सरकार में उच्च पदों पर बैठे मुसलमानों को भी निशाना बनाया। कश्मीर में जेहादियों की बंदूकों ने भी कहीं कश्मीरी पंडितों को भून डाला तो कहीं मुसलमानों की अंतरात्मा को मार डाला ... आप कश्मीरी पंडितों की पीड़ा को केंद्र सरकार तक पहुंचाएंगे न मिश्रा। मोबाइल फोन पर उस समय रोमिंग चार्ज लगता था, प्रीपेड मोबाइल में जितना बैलेंस था वह खत्म होने के कगार पर पहुंच गया था लेकिन पंगोत्राजी से कहा कि आप निश्चिंत रहिए कश्मीर के दिन बदलेंगे,जो कश्मीर में हिंदुओं के नरसंहार पर खामोश है उनका पतन होगा,हम आपकी खबर हर हिंदुस्तानी तक पहुंचाने का काम करेंगे। आप हिम्मत मत हारिए हम आपके साथ हैं।
क्रमश:
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