जम्मू कश्मीर से बस्ती आने के बाद पुराने दोस्तों की तलाश में गली मुहल्ले में भटकने के बाद उन मंदिरों का हाल देखने निकला जंहा कई मूवी स्कूल से भागकर देखने का अपराध किया। आज की तारीख में हर हाथ में स्मार्ट फोन आने के बाद गूगल पर मूवी टाइप करने पर सैकड़ों विकल्प हाजिर रहते हैं। मैं यादों की उस गली में आपको लेकर चल रहा हूँ जब मूवी देखने की बात तो दूर सड़क किनारे फिल्मी पोस्टर देखते हुए कोई देख लेता अगर वह घर जाकर मजाकिया अंदाज में शिकायत कर देता तब भी डांट पड़नी तय रहती। कूल मूवी, वेगास मूवी, पोर्न मूवी सहित किस्म किस्म की मूवी हर हाथ में मौजूद है। अस्सी के दशक में बस्ती शहर में पहले तीन सिनेमा हॉल थे। त्रिपाठी चित्र मंदिर, करतार टॉकीज, सुंदर टॉकीज बाद में तीन और खुले बादशाह चित्र मंदिर,श्री टॉकीज और पंकज चित्र मंदिर। यह सब अपने लिए मनोरंजन के सबसे बड़े मंदिर रहे। देश के कई राज्यों में ऐसे मंदिरों में नैन सुख लेने का अनुभव है। अभी बात फिल्मों के नशे की करने को हाजिर हूं। अस्सी के दशक की बात है बस्ती के गर्वमेंट इंटर कॉलेज में पढ़ाई के दौरान फिल्मों का दीवाना बनने की तरफ यार दोस्तों की बातों को सुनकर कदम बढ़ने लगा था। फिल्मों का शौक उस समय पूरे देश के युवा पीढ़ी पर छाने लगा था। आज तो विज्ञान ने इतनी तरक्की कर ली है कि आप घर बैठ कर आसानी से फिल्मों को देख लेते है। लेकिन कभी ऐसा भी समय था जब फिल्म के दीवानों को फिल्म देखने के लिए काफी समय का इंतजार करना पड़ता था। टिकट के लिए मारामारी से लेकर ब्लैक में टिकट खरीदने से लेकर ऐसी ढेरों यादें जब दिमाग में रील बनकर चलती है तो एक खुशनुमा फिल्म बनती है, जिसका द एंड अंतिम सांस के साथ ही होगा। फिल्मों का शौक चढ़ने से पहले वह जमाना याद आता है जब वीसीआर व टीवी का जमाना आया था। जिस शादी विवाह में वीडियो आने की बात पता चलती है वहां पहुंचने की कई दिन पहले से ही तैयारी होने लगती थी। मैं अपनों बच्चों व पत्नी से माफी मांगने के साथ उस याद को शेयर करना चाहता हूं जब अम्मा-पापा के साथ फिल्म देखने हम-भाई बहन देखने गए। सन 1975-76 का समय रहा होगा, करतार टॉकीज में जय संतोषी फिल्म लगी थी। उस समय जय संतोषी माता का बहुत क्रेज था। हर शुक्रवार को व्रत रहने के साथ घर-परिवार के किसी सदस्य को खटटा खाने की मनाही रहती थी। इस फिल्म को देखने जब हम सब गए तो छोटी बहन मां के गोद,छोटे भाई पिता के गोद में थे, मैं भी छह साल का रहा होगा। इस फिल्म का क्रेज यह था बस्ती शहर में बैलगाड़ी पर सवार होकर महिलाओं का झुंड आता था रात में टॉकीज के सामने बाटी-चोखा खाने के बाद पहला शो देखने के बाद गांव लौटता था। लगभग एक साल तक यह फिल्म सिनेमाहाल से उतरी नहीं। विजय शर्मा के निर्देशन में 25 लाख रुपये से बनी इस फिल्म ने उस समय पांच करोड़ रुपये से ज्यादा की कमाई की थी। इस फिल्म में एक विवाहित महिला, महिमा दर्दनाक अनुभव के माध्यम से गुजरती है, तब वह अपनी इच्छा को पूरा करने के लिए देवी संतोषी को खुश करने हेतु उपवास करने का फैसला करती है। मां संतोषी इसकी जिस तरह से फिल्म में मदद करती थी, सिनेमाहाल के परदे पर पैसे चढ़ाने की आवाज आने के साथ संतोषी मइया की जय से हाल गूंज उठता था। जय मां संतोषी के बाद 1982 में पशु संग्राम भी एक फिल्म देखने का परिवार के साथ जाने का सौभाग्य मिला। टैक्सी फ्री इस फिल्म में शेर की लड़ाई का सीन देखने के बारे में सुनकर अम्मा-पापा से जिद करके हम सब इसको देखने के लिए गए। फिल्म देखने को जो शौक लग वह आगे जाकर स्कूल बंक करके देखने की आदत में बदल गया,जिसका भुगतान पिटाई के रूप में मिलती थी। इस शौक को बढ़ाने को काम गर्वमेंट इंटर कॉलेज में सीनियर मित्र प्रदीप पाण्डेय ने, जो बस्ती में सिनेमाहॉल के नाम को लेकर एक गाना गढ़ दिए थे। जिसके बोल थे त्रिपाठी है नजदीक सुंदर है बहुत दूर, आओ भाग चले कहीं बहुत दूर। स्कूल से भागकर फिल्म देखने की आदत के कारण पिताजी की कई खड़ांऊ मेरे पीठ पर टूट गई लेकिन मेरी आदत नहीं छूटी। बस्ती से लखनऊ यूनिवर्सिटी पहुंचने के बाद आजाद पंक्षी बन गया। हॉस्टल के दोस्तों का साथ मिला तो फिल्मों के शौक में कई नए अध्याय जुड़े, अपनी गुस्ताखियों की गठरी में स्कूल से भागकर फिल्म देखने की आदत के चक्कर में कितनी मुसीबत का सामना करना पड़ा जल्द फुर्सत में सुनाएंगे। अगर आपके पास भी ऐसी यादें हैं शेयर करना मत भूले
बहुत अच्छे संस्मरण👌
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