#यादों_की_बारादरी_1
गली के मोड़ पर सूना सा कोई दरवाजा
दोपहर पुरजवान थी। सूरज आसमान में अपनी आधी यात्रा तय कर चुका था लेकिन उसका ताप अपने चरम पर था। ऐसे में जब विंध्याचल के रास्ते हम मिर्जापुर में दाखिल हुए, तो बंद खिड़कियों और दरवाजों ने हमारी ओर ऊंघते हुए देखा। उनींदी तंग सड़क भी बेजार-सी लग रही थी। इक्का-दुक्का दुकानें खुली थीं पर शहर वैसे ही ऊंघ रहा था जैसे हमारे बचपन में ऊंघता था।
अचानक मेरी स्मृति की सीलनभरी गलियों में कुछ कौंधा। मैंने ड्राइवर से पूछा कि आगे कोई तिराहा आने वाला है क्या? उत्तर मिला, ‘हां।’ मेरा प्रत्युत्तर था कि अब गाड़ी बाएं मोड़ लेना और साथ ही पास बैठी पत्नी से कहा कि देखो अभी ‘मेरा स्कूल’ आने वाला है। कुछ पल में गाड़ी बाएं मुड़ी और बाएं हाथ पर था- जे.सी. बाल मंदिर। याददाश्त अपनी पूरी चमक के साथ लौट चली थी। अपने मिर्जापुर के साथी से पूछा कि यहां तो बड़ा गेट हुआ करता था, छोटा कब से हो गया? उन्होंने बताया कि कुछ सालों से चारदीवारी को आगे करके ये छोटा गेट लगाया है, बड़ा यथावत है।
मन में सवाल उठा, वह बड़ा क्या जो छोटे से गेट के पीछे छुप जाए?
अंदर जाने का समय न था पर मैं बता सकता था कि मेरी कक्षा कहां थी। वह मंच मुझे जस का तस याद था, जहां पहली पार मुझे कोरस में शामिल किया गया था। जोरदार लाइट से चकाचौंध मेरे सहपाठी नीचे बैठे अपने माता-पिता को तलाश रहे थे। इसी उधेड़बुन में उनके मुंह से गाने के ‘अंड-बंड’ बोल निकल रहे थे। पिता ने मुझे चेता रखा था कि मंच से लोगों की आंखों में देखने का प्रयास मत करना, किसी को ढूंढ़ना मत, सिर्फ सामने देखकर गाना चालू रखना। छ: साल के उस अबोध को मालूम न था कि यह सीख समूची जिंदगी काम आने वाली है।
हम सब कोरस का हिस्सा ही तो हैं।
उल्लसित मन से पुन: गाड़ी में सवार होता हूं। चालक से पूछा कि नाक की सीध मे चलें तो नारघाट पहुंच जाएंगे न? वह सिर हिला देता है। इस नारघाट में एक लायब्रेरी हुआ करती थी। पिता कक्षा दो के उस छोटे से बच्चे को वहां भेजा करते ताकि हम पुस्तकें पढ़ने का सलीका समझ सकें। पुस्तकालय सिर्फ पढ़ने की नहीं, बल्कि आसपास के लोगों का सम्मान करने की नसीहत भी देते हैं। वहीं यह सीख मिलती है कि यदि खुद किसी खलल से दूर रहना चाहते हो, तो दूसरों के काम में व्यवधान मत डालो।
लायब्रेरी बंद पड़ी थी। बाहर से उसकी हालत भी कोई बहुत अच्छी नहीं थी। स्वर्गीय हरिवंश राय बच्चन की पैरोडी बनाऊं तो कह सकता हूं, ‘अब न रहे वह पढ़ने वाले वाले, अब न रही पुस्तकशाला।’
सामने गंगा का चौड़ा पाट है। गंगा घर की छत से भी दिखती थी। इसी शहर में मैंने जाना कि यह सदानीरा हमारी मां है।
भारत सरकार ने जवाहरलाल नेहरू के मरने के बाद उनकी आत्मकथा पोस्टर के रूप में छपवाकर रियाया में बंटवाने का फैसला किया था। मुझे मालूम नहीं वो कितने लोगों तक पहुंची और उसका क्या असर पड़ा पर हमारे यहां उसकी तमाम प्रतिलिपियां मौजूद थीं। पिता उन्हें बार-बार पढ़ने पर जोर देते। वे कहते कि जोर-जोर से पढ़ो ताकि उच्चारण शुद्ध हो सके। वसीयत में वाक्य था- ‘बारिश में समुद्र को भी बहा ले जाने वाली गंगा।’
मैंने उस शक्ति को एक बार अपनी छत से अपलक महसूस किया था।
वे मॉनसून के दिन थे। ऐसा लगता था, जैसे आसमान में छेद हो गए हैं। हर समय बूंदें टपकती रहतीं। अक्सर ‘रेनी डे’ हो जाया करता। ऐसे ही अकस्मात आ पड़ी छुट्टी के किसी दिन थोड़ी देर के लिए सूरज निकला। मैं उत्सुकतावश छत पर चढ़ गया। देखता हूं, कोई विशालकाय जीव तेजधारा में बहा चला जा रहा है। बाहर निकलने की चाहत में ऊपर आने की कोशिश करता है। किनारा पकड़ने के लिए जोर लगाता है पर अगली धार उसे फिर आगे धकिया देती है। मुझे मालूम नहीं, वह काला घोड़ा था या भैंसा या कोई और जानवर पर यकीनन वह बहुत बलिष्ठ था। मेरी दृष्टि के विस्तार तक उसकी जद्दोजहद कायम थी। अब तक सोचता हूं, उसका क्या हुआ होगा?
ड्राइवर कार को पहले ही ‘बैक’ कर चुका था। उससे कहता हूं कि तिराहे से बाएं ले लेना। पत्नी को बोलता हूं कि बाएं मुड़ते ही बाएं हाथ पर ‘प्रभात टॉकीज’ आएगा। जिंदगी की पहली फिल्म यहीं देखी थी- किंगकांग। मैं और मेरी छोटी बहन उस मार-धाड़ को देखकर डर गए थे। वह रोने लगी थी और मैं उससे कहने लगा था- ‘बिया आंख बंद कर लो।’ मैं उसे बचपन में बिया कहता था। वह आंख बंद कर लेती पर जोर-जोर से आती ढिशुम्-ढिशुम् की ध्वनि का क्या करते! मध्यांतर होने पर जैसे ही लाइट जली, मैंने उसका हाथ पकड़ा और बाहर की ओर निकल लिया। घर दूर न था, सहमे हुए हम भाई-बहन लगभग दौड़ते हुए वहां पहुंचे। पापा खुद मुख्तारी का पाठ पढ़ाने के लिए हमें वहां बैठा गए थे। शो छूटने के बाद उन्हें आना था पर हम ही पहुंच गए।
प्रभात टॉकीज का नाम अब बदल गया है। बदल तो बहुत कुछ गया है।
कुछ ही कदम दूर पहली गली के मुहाने पर ‘घर’ था। दरका हुआ, चटका हुआ, बेहाल, बेजान और ताला बंद। सिर्फ उस भवन का ही यह हाल नहीं था। सामने ही सेठ लोगों की हवेली थी। उसमें पेड़ उग आए थे। दूसरी तरफ एक पीला मकान हुआ करता था। उसका पीलापन अब समूची जर्जरता के साथ उस वीरानगी को बढ़ा था। उसमें कोई सिंह साहब रहते थे। वे शायद होम गार्ड्स में कमांडेंट थे। उनकी बेटी हम लोगों से बड़ी थी। हम लोग उन्हें दीदी कहते थे।
उनके बाद दूसरे सेठ साहब का घर था। बड़े-बड़े शब्दों में लिखा हुआ था- ‘मतवाला’। यह वही ‘मतवाला’ अखबार था, जिसका आजादी की लड़ाई में बड़ा योगदान था। पांडेय बेचैन शर्मा ‘उग्र’ और सूर्यकांत त्रिपाठी ‘निराला’ जैसे महान लोग इसके संपादक हुआ करते थे। वीरानी वहां भी पसरी थी।
क्या अब वहां कोई रहता नहीं?
उसी घर में मेरी सबसे अच्छी मित्र रहती थी। मुझे आज तक उसके नन्हें हाथ पैर, फ्रॉक के रंग और साधना कट बाल याद आते हैं। वह अक्सर कहती कि तुम एक गली से जाओ, मैं दूसरी गली से आती हूं। दोनों दौड़ेंगे नहीं पर देखते हैं जल्दी कौन पहुंचता है। मैं जितना तेज चल सकता था, चलता था पर वह जीत जाती थी। क्या वह बीच में दौड़ पड़ती थी?
इस सवाल का जवाब अब शायद ही मिले। वक्त ने हम सबको जलावतन कर दिया है।
यहां मैं जान बूझकर लोगों के नाम नहीं बता रहा। पता नहीं कौन, कहां, किस हाल में हो, वे सारे के सारे मेरे बचपन की ऐसी मशालें है, जो कभी बुझती नहीं। बुझे मन से ‘अपने घर’ के बंद पड़े दरवाजों को देखता हूं। कौन था उसका मालिक? कौन है उसका मालिक? ये समूचा मोहल्ला इतना वीरान क्यों? क्या सब लोग बाहर जाकर बस गए? किसी से पूछता नहीं हूं, बस लौट पड़ता हूं।
मैं बचपन की बुलंद इमारत पर किसी खंडहर का साया नहीं डालना चाहता।
लौटते वक्त मुझे याद आया। इसी घर में एक बार श्रीमती ललिता शास्त्री तशरीफ लाई थीं। उनके पति कुछ दिन पहले तक भारत के प्रधानमंत्री हुआ करते थे। ताशकंद में लाल बहादुर शास्त्री की मृत्यु के बाद उन्होंने निर्णय किया था कि वे मिर्जापुर में समाजसेवा करेंगी। इसी सिलसिले में वे पता नहीं कैसे और क्यों हमारे घर आई थीं। एक बेहद साधारण सूती साड़ी पहने हुए उन महिला को देखकर आभास नहीं होता था कि इनका पति देश का यशस्वी प्रधानमंत्री था। पिता ने कह रखा था कि दादी जी कहकर इनके पैर छूने होंगे। उन्होंने एक-दो मिनट हम दोनों भाई बहनों से कुछ पूछा था। क्या, याद नहीं पर उनकी ममत्व भरी भंगिमाएं आज भी मर्म को छूती प्रतीत होती हैं।
कुछ पीछे छूट जाने के मलाल के साथ लौटने के लिए कदम बढ़ाता हूं। पता नहीं पुलक और खुशी के गहन क्षणों के पीछे हमेशा उदासी क्यों छिपी रहती है!
गली के मोड़ पर सूना सा कोई दरवाजा
दोपहर पुरजवान थी। सूरज आसमान में अपनी आधी यात्रा तय कर चुका था लेकिन उसका ताप अपने चरम पर था। ऐसे में जब विंध्याचल के रास्ते हम मिर्जापुर में दाखिल हुए, तो बंद खिड़कियों और दरवाजों ने हमारी ओर ऊंघते हुए देखा। उनींदी तंग सड़क भी बेजार-सी लग रही थी। इक्का-दुक्का दुकानें खुली थीं पर शहर वैसे ही ऊंघ रहा था जैसे हमारे बचपन में ऊंघता था।
अचानक मेरी स्मृति की सीलनभरी गलियों में कुछ कौंधा। मैंने ड्राइवर से पूछा कि आगे कोई तिराहा आने वाला है क्या? उत्तर मिला, ‘हां।’ मेरा प्रत्युत्तर था कि अब गाड़ी बाएं मोड़ लेना और साथ ही पास बैठी पत्नी से कहा कि देखो अभी ‘मेरा स्कूल’ आने वाला है। कुछ पल में गाड़ी बाएं मुड़ी और बाएं हाथ पर था- जे.सी. बाल मंदिर। याददाश्त अपनी पूरी चमक के साथ लौट चली थी। अपने मिर्जापुर के साथी से पूछा कि यहां तो बड़ा गेट हुआ करता था, छोटा कब से हो गया? उन्होंने बताया कि कुछ सालों से चारदीवारी को आगे करके ये छोटा गेट लगाया है, बड़ा यथावत है।
मन में सवाल उठा, वह बड़ा क्या जो छोटे से गेट के पीछे छुप जाए?
अंदर जाने का समय न था पर मैं बता सकता था कि मेरी कक्षा कहां थी। वह मंच मुझे जस का तस याद था, जहां पहली पार मुझे कोरस में शामिल किया गया था। जोरदार लाइट से चकाचौंध मेरे सहपाठी नीचे बैठे अपने माता-पिता को तलाश रहे थे। इसी उधेड़बुन में उनके मुंह से गाने के ‘अंड-बंड’ बोल निकल रहे थे। पिता ने मुझे चेता रखा था कि मंच से लोगों की आंखों में देखने का प्रयास मत करना, किसी को ढूंढ़ना मत, सिर्फ सामने देखकर गाना चालू रखना। छ: साल के उस अबोध को मालूम न था कि यह सीख समूची जिंदगी काम आने वाली है।
हम सब कोरस का हिस्सा ही तो हैं।
उल्लसित मन से पुन: गाड़ी में सवार होता हूं। चालक से पूछा कि नाक की सीध मे चलें तो नारघाट पहुंच जाएंगे न? वह सिर हिला देता है। इस नारघाट में एक लायब्रेरी हुआ करती थी। पिता कक्षा दो के उस छोटे से बच्चे को वहां भेजा करते ताकि हम पुस्तकें पढ़ने का सलीका समझ सकें। पुस्तकालय सिर्फ पढ़ने की नहीं, बल्कि आसपास के लोगों का सम्मान करने की नसीहत भी देते हैं। वहीं यह सीख मिलती है कि यदि खुद किसी खलल से दूर रहना चाहते हो, तो दूसरों के काम में व्यवधान मत डालो।
लायब्रेरी बंद पड़ी थी। बाहर से उसकी हालत भी कोई बहुत अच्छी नहीं थी। स्वर्गीय हरिवंश राय बच्चन की पैरोडी बनाऊं तो कह सकता हूं, ‘अब न रहे वह पढ़ने वाले वाले, अब न रही पुस्तकशाला।’
सामने गंगा का चौड़ा पाट है। गंगा घर की छत से भी दिखती थी। इसी शहर में मैंने जाना कि यह सदानीरा हमारी मां है।
भारत सरकार ने जवाहरलाल नेहरू के मरने के बाद उनकी आत्मकथा पोस्टर के रूप में छपवाकर रियाया में बंटवाने का फैसला किया था। मुझे मालूम नहीं वो कितने लोगों तक पहुंची और उसका क्या असर पड़ा पर हमारे यहां उसकी तमाम प्रतिलिपियां मौजूद थीं। पिता उन्हें बार-बार पढ़ने पर जोर देते। वे कहते कि जोर-जोर से पढ़ो ताकि उच्चारण शुद्ध हो सके। वसीयत में वाक्य था- ‘बारिश में समुद्र को भी बहा ले जाने वाली गंगा।’
मैंने उस शक्ति को एक बार अपनी छत से अपलक महसूस किया था।
वे मॉनसून के दिन थे। ऐसा लगता था, जैसे आसमान में छेद हो गए हैं। हर समय बूंदें टपकती रहतीं। अक्सर ‘रेनी डे’ हो जाया करता। ऐसे ही अकस्मात आ पड़ी छुट्टी के किसी दिन थोड़ी देर के लिए सूरज निकला। मैं उत्सुकतावश छत पर चढ़ गया। देखता हूं, कोई विशालकाय जीव तेजधारा में बहा चला जा रहा है। बाहर निकलने की चाहत में ऊपर आने की कोशिश करता है। किनारा पकड़ने के लिए जोर लगाता है पर अगली धार उसे फिर आगे धकिया देती है। मुझे मालूम नहीं, वह काला घोड़ा था या भैंसा या कोई और जानवर पर यकीनन वह बहुत बलिष्ठ था। मेरी दृष्टि के विस्तार तक उसकी जद्दोजहद कायम थी। अब तक सोचता हूं, उसका क्या हुआ होगा?
ड्राइवर कार को पहले ही ‘बैक’ कर चुका था। उससे कहता हूं कि तिराहे से बाएं ले लेना। पत्नी को बोलता हूं कि बाएं मुड़ते ही बाएं हाथ पर ‘प्रभात टॉकीज’ आएगा। जिंदगी की पहली फिल्म यहीं देखी थी- किंगकांग। मैं और मेरी छोटी बहन उस मार-धाड़ को देखकर डर गए थे। वह रोने लगी थी और मैं उससे कहने लगा था- ‘बिया आंख बंद कर लो।’ मैं उसे बचपन में बिया कहता था। वह आंख बंद कर लेती पर जोर-जोर से आती ढिशुम्-ढिशुम् की ध्वनि का क्या करते! मध्यांतर होने पर जैसे ही लाइट जली, मैंने उसका हाथ पकड़ा और बाहर की ओर निकल लिया। घर दूर न था, सहमे हुए हम भाई-बहन लगभग दौड़ते हुए वहां पहुंचे। पापा खुद मुख्तारी का पाठ पढ़ाने के लिए हमें वहां बैठा गए थे। शो छूटने के बाद उन्हें आना था पर हम ही पहुंच गए।
प्रभात टॉकीज का नाम अब बदल गया है। बदल तो बहुत कुछ गया है।
कुछ ही कदम दूर पहली गली के मुहाने पर ‘घर’ था। दरका हुआ, चटका हुआ, बेहाल, बेजान और ताला बंद। सिर्फ उस भवन का ही यह हाल नहीं था। सामने ही सेठ लोगों की हवेली थी। उसमें पेड़ उग आए थे। दूसरी तरफ एक पीला मकान हुआ करता था। उसका पीलापन अब समूची जर्जरता के साथ उस वीरानगी को बढ़ा था। उसमें कोई सिंह साहब रहते थे। वे शायद होम गार्ड्स में कमांडेंट थे। उनकी बेटी हम लोगों से बड़ी थी। हम लोग उन्हें दीदी कहते थे।
उनके बाद दूसरे सेठ साहब का घर था। बड़े-बड़े शब्दों में लिखा हुआ था- ‘मतवाला’। यह वही ‘मतवाला’ अखबार था, जिसका आजादी की लड़ाई में बड़ा योगदान था। पांडेय बेचैन शर्मा ‘उग्र’ और सूर्यकांत त्रिपाठी ‘निराला’ जैसे महान लोग इसके संपादक हुआ करते थे। वीरानी वहां भी पसरी थी।
क्या अब वहां कोई रहता नहीं?
उसी घर में मेरी सबसे अच्छी मित्र रहती थी। मुझे आज तक उसके नन्हें हाथ पैर, फ्रॉक के रंग और साधना कट बाल याद आते हैं। वह अक्सर कहती कि तुम एक गली से जाओ, मैं दूसरी गली से आती हूं। दोनों दौड़ेंगे नहीं पर देखते हैं जल्दी कौन पहुंचता है। मैं जितना तेज चल सकता था, चलता था पर वह जीत जाती थी। क्या वह बीच में दौड़ पड़ती थी?
इस सवाल का जवाब अब शायद ही मिले। वक्त ने हम सबको जलावतन कर दिया है।
यहां मैं जान बूझकर लोगों के नाम नहीं बता रहा। पता नहीं कौन, कहां, किस हाल में हो, वे सारे के सारे मेरे बचपन की ऐसी मशालें है, जो कभी बुझती नहीं। बुझे मन से ‘अपने घर’ के बंद पड़े दरवाजों को देखता हूं। कौन था उसका मालिक? कौन है उसका मालिक? ये समूचा मोहल्ला इतना वीरान क्यों? क्या सब लोग बाहर जाकर बस गए? किसी से पूछता नहीं हूं, बस लौट पड़ता हूं।
मैं बचपन की बुलंद इमारत पर किसी खंडहर का साया नहीं डालना चाहता।
लौटते वक्त मुझे याद आया। इसी घर में एक बार श्रीमती ललिता शास्त्री तशरीफ लाई थीं। उनके पति कुछ दिन पहले तक भारत के प्रधानमंत्री हुआ करते थे। ताशकंद में लाल बहादुर शास्त्री की मृत्यु के बाद उन्होंने निर्णय किया था कि वे मिर्जापुर में समाजसेवा करेंगी। इसी सिलसिले में वे पता नहीं कैसे और क्यों हमारे घर आई थीं। एक बेहद साधारण सूती साड़ी पहने हुए उन महिला को देखकर आभास नहीं होता था कि इनका पति देश का यशस्वी प्रधानमंत्री था। पिता ने कह रखा था कि दादी जी कहकर इनके पैर छूने होंगे। उन्होंने एक-दो मिनट हम दोनों भाई बहनों से कुछ पूछा था। क्या, याद नहीं पर उनकी ममत्व भरी भंगिमाएं आज भी मर्म को छूती प्रतीत होती हैं।
कुछ पीछे छूट जाने के मलाल के साथ लौटने के लिए कदम बढ़ाता हूं। पता नहीं पुलक और खुशी के गहन क्षणों के पीछे हमेशा उदासी क्यों छिपी रहती है!
(हिंदुस्तान के प्रधान संपादक शशिशेखर की यादें,उनके फेसबुक वॉल से साभार)
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