भारतीय लोकतंत्र के इतिहास में काला अध्याय के रूप में दर्ज आपातकाल की बुरी यादें लाखों के जेहन में होगी, कुछ बुरी यादें लेकर दुनियां को छोड़कर चले गए होंगे, मैं जिंदा हूं। जिस समय देश में आपातकाल लगने के बाद नसबंदी का दौर शुरू हुआ टीवी चैनल था नहीं, रेडियो पर वहीं खबरें प्रसारित होती थी जो सरकारी तंत्र चाहता था। नसबंदी के दौरान लापरवाही के कारण तमाम महिलाओं की मौत की कही-सुनी बातों के बीच अम्मा-पापा को चर्चा करते हुए सुनकर छह साल का यह मासूम बड़ा होने लगा था। जिस दिन मां नसंदी के लिए आपरेशन थियेटर के अंदर गई तो छोटी बहन व छोटे भाई के साथ हम समय जिला अस्पताल में सर्जरी वार्ड के बाहर बरामदे में बैठे थे। जिला अस्पताल में हमारे बड़े पापा पंडित गंगाधर मिश्रा वार्ड मास्टर थे उनकी देखरेख में नसबंदी के बाद माता जी बाहर स्ट्रेचर पर निकली। बड़े पापा ने प्राइवेट वार्ड बुक कर दिया था। एक प्राइवेट वार्ड में माताजी के साथ हम लोग शिफ्ट हुए। बड़े पापा को जिला अस्पताल में सरकारी क्वार्टर मिला था। वहीं मौसी भी रहती थी। मौसी के साथ राजू भइया के साथ शांति दीदी,शीला दीदी व सुनीता दीदी हम लोगों के ऊपर पड़े इस दुख की धड़ी में सबसे बड़े मददगार बनकर खड़े थे। बगल के प्राइवेट वार्ड में भी नसबंदी करायी कोई महिला भर्ती थे। उनके भी छोटे बच्चे हम लोगों की तरह थे जो दिनभर अपने माताजी के बेड के चारों तरफ घूमते हुए इंदिरागांधी हाय-हाय का रट लगाते रहते थे। इन बच्चों को ऐसा करते देखकर हम लोग भी अपनी मां के बेड के चारों तरफ घूमकर इंदिरा गांधी हाय-हाय का रट लगाते हुए घूमने लगे। इंदिरा गांधी हाय-हाय का नारा लगाते हुए सुनकर आपरेशन थियेटर से प्राइवेट वार्ड में शिफ्ट हुई मां की अचानक आंख खुली इतनी तेजी डांट पड़ी कि वह आज भी भूलती नहीं है। पूछा किसने यह तुम लोगों को सिखाया बताया बगल के कमरे में भर्ती चाची के बच्चे भी यही कर रहे हैं। किसी बच्चे को देखकर तुम लोग भी ऐसा करोगे क्या?अब अगर यह सुनाई दिया तो डाटूंगी नहीं तुम लोग को पीटूंगी। मां की बात यह डांट सुनकर हम लोग इंदिरा गांधी हाय-हाय का नारा भूल गए।
समय के साथ बढ़ने के साथ पढ़ाई-लिखाई के बाद जब पत्रकारिता के पेशे में आया तो आपातकाल के बारे में जो उधार का ज्ञान मिला उसे लगा अम्मा हम लोगों को भले ही डांटकर चुप करा दिया लेकिन इंदिरागांधी की सिफारिश पर राष्ट्रपति 25 जून 1975 की आधी रात को आपातकाल की जो घोषणा की थी वह गलत थी। तत्कालीन राष्ट्रपति फखरुद्दीन अली अहमद ने तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी के कहने पर भारतीय संविधान की धारा 352 के अधीन यह आपातकाल की घोषणा की थी। स्वतंत्र भारत के इतिहास में यह सबसे विवादास्पद और अलोकतांत्रिक समय था। आपातकाल में चुनाव स्थगित हो गए थे और सभी नागरिक अधिकारों को समाप्त कर दिया गया था। इसकी जड़ में 1971 में हुए लोकसभा चुनाव का था, जिसमें इंदिरागांधी अपने मुख्य प्रतिद्वंद्वी राजनारायण को पराजित किया था। लेकिन चुनाव परिणाम आने के चार साल बाद राज नारायण ने हाईकोर्ट में चुनाव परिणाम को चुनौती दी। 12 जून, 1975 को इलाहाबाद उच्च न्यायालय के न्यायाधीश जगमोहन लाल सिन्हा ने इंदिरा गांधी का चुनाव निरस्त कर उन पर छह साल तक चुनाव न लड़ने का प्रतिबंध लगा दिया और उनके मुकाबले हारे और श्रीमती गांधी के चिरप्रतिद्वंद्वी राजनारायण सिंह को चुनाव में विजयी घोषित कर दिया था। राजनारायण सिंह की दलील थी कि इन्दिरा गांधी ने चुनाव में सरकारी मशीनरी का दुरुपयोग किया, तय सीमा से अधिक पैसा खर्च किया और मतदाताओं को प्रभावित करने के लिए गलत तरीकों का इस्तेमाल किया। अदालत ने इन आरोपों को सही ठहराया था। इसके बावजूद श्रीमती गांधी ने इस्तीफा देने से इनकार कर दिया। तब कांग्रेस पार्टी ने भी बयान जारी कर कहा था कि इन्दिरा गांधी का नेतृत्व पार्टी के लिए अपरिहार्य है।
आपातकाल भले 21 मार्च
1977 को खत्म हो गया लेकिन उस दौरान क्या क्या हुआ? तमाम पीड़ितों से मिलने के बाद
जो महसूस हुआ उससे लगा कि आज की पीढ़ी आपातकाल के बारे में सुनती जरूर है, लेकिन उस
दौर में क्या घटित हुआ, इसका देश और तब की राजनीति पर क्या असर हुआ, इसके बारे में
बहुत कम ही लोगों को पता है। भाजपा के वरिष्ठ नेता लालकृष्ण आडवाणी ने एक बार फिर तानाशाही
की वापसी की आशंका जताकर इस विषय पर तीखी बहस छेड़ दी थी। आडवाणी की आशंका को पूरी
तरह खारिज भी नहीं किया जा सकता क्योंकि 1975 में जब आपातकाल की घोषणा की गई थी तब
सत्ता और संगठन के सारे सूत्र श्रीमती इंदिरा गांधी के हाथ में ही थे। पत्रकारिता के पेशे में आने के बाद देश के कई हिस्सों में आपातकाल के पीड़ितों
से मिलने के बाद क्या महसूस हुआ उनके अनुभवों को आपके साथ जल्द बाटेंगे। क्रमश:
दुनियाभर के घुमक्कड़ पत्रकारों का एक मंच है,आप विश्व की तमाम घटनाओं को कवरेज करने वाले खबरनवीसों के अनुभव को पढ़ सकेंगे
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