रोमिंग जर्नलिस्ट
की रिपोर्ट 38
जम्मू से दिल्ली बिग बॉस शशिशेखर से मीटिंग के लिए आने पर अचानक ट्रांसफर का फरमान सुनने के बाद 48 घंटे से ज्यादा की ट्रेन की यात्रा के बाद शरीर में थकावट जो महसूस हो रही थी जन्मभूमि बस्ती पहुंचकर फुर्र हो चुकी थी। स्नान-ध्यान के बाद किराए के घरों
में अपनेपन की तलाश में घंटों बिताने के बाद दोस्तों से मिलने निकल चुका था। कंपनीबाग
चौराहे पर तीन दशक पुराने दोस्तों को देखने के बाद ठहरने के साथ चाय की चुस्की लेने
के दौरान पत्रकारिता का ककहरा जिस प्रदीप पाण्डेय से सीखा था,उनकी घंटी दो बार फोन
पर बज चुकी थी। जम्मू-कश्मीर से जन्मभूमि आने के वाद वह हसीन लम्हे जेहन में घूम रहे
थे,जो कभी इन सड़कों से लेकर गलियों तक में बीते थे।
किराए के घर से
पिता जी की मेहनत व तपस्या से बने मकान में शिफ्ट होने के बाद वह लम्हे याद आ रहे थे,
जब अखबार पढ़ने की आदत लगी। घर पर रोजाना अखबार नहीं आता,हर संडे को अखबार लाने के
लिए पिता जी पैसे देते थे। घर से एक किमी की दूरी कदमों से नापकर पक्के पर पुराने मित्र
पुष्कर मिश्र के भाई की दुकान पर जाकर एक अखबार लाया करते थे। पिता जी को नवभारत टाइम्स
पसंद था, वह नवभारत टाइम्स लाने को कहते थे लेकिन कार्टून के चक्कर में मैं या छोटे
भाई रमेश जो भी अखबार लाने जाता था आज अखबार लेते आता था। राजकीय इंटर कालेज बस्ती
में इंटर की पढ़ाई करने के साथ देश-दुनिया में होने वाली घटनाओं के प्रति दिलचस्पी
बढ़ने लगी। बीएससी में
आते-आते पढ़ाई की दिशा के साथ अखबार भी बदल गए। घर पर वही अखबार आते थे, जो कंप्टीशन में मदद करते। नवभारत टाइम्स, जनसत्ता और रविवार का राष्ट्रीय सहारा, क्योंकि सहारा में 'हस्तक्षेप' नाम से सम-सामायिक
विषयों पर बेहद ज्ञानवर्धक परिशिष्ट निकलता था।
तीन दशक पहले बस्ती
कैसी थी, अब कैसी हो गयी है? बदलाव की बह रही बयार का तापमान नापने के लिए नब्बे के
दशक की शुरुआत का वह लम्हा याद आ गया। जब केंद्र में वीपी सिंह की सरकार ने मंडल कमीशन
की रिपोर्ट लागू करने का फैसला लेकर देश की राजनीति में भूचाल लाने का काम किया। मंडल
कमीशन की रिपोर्ट आने के बाद बचपन में खेलने-कूदने वाले दोस्तों के बीच में नजरिए की
दीवार खड़ी हो गयी। आरक्षण आंदोलन की आग में राजीव गोस्वामी के आत्मदाह की खबर के बाद
बस्ती में भी आंदोलन भड़क गया। देश में मिस्टर क्लीन के नाम से चर्चित हुए प्रधानमंत्री
राजीव गांधी को पहली बार जीआईसी बस्ती के मैदान में काला झंडा दिखाकर पुलिस की लाठी
से पूरे शरीर की ओवरहालिंग करा चुके दीनदयाल त्रिपाठी की अगुवाई में यह आंदोलन कभी
नुक्कड़ सभा तो कभी काली पटटी बांधकर तो कभी रेलवे क्रांसिंग की चाभी छीनकर भाग जाने
के रूप में दिखाई देने लगा था। मंडल कमीशन से मेरे पुराने दोस्तों का कुछ तो भला नहीं
हुआ लेकिन इसके नाम पर राजनीति करने वालों की दुकान चल पड़ी। आरक्षण आंदोलन के साथ
बस्ती में ही जब था तब रामजन्मभूमि आंदोलन के श्रीगणेश से लेकिर पड़ोसी जिले अयोध्या
में विवादित ढांचा ढहने का गवाह रहा। कभी जाति व कभी धर्म के नाम पर छिड़े आंदोलन का
साक्षी जिस शहर में रहा तीन दशक बाद जब लौटा तो दोस्तों के बीच जाति-धर्म की दीवार
पाया। दिल इस दीवार को तोड़कर पुराने दोस्तों
से मिलने के लिए व्याकुल होता रहता लेकिन समय के साथ इस दीवार की मजबूती बढ़ ही गयी।
सोशल मीडिया आने के बाद तो यह दीवार और भी बुलंद हो गयी। सोशल मीडिया के कारण जाति-मजहब
के चलते जो दूरी बढ़ी वह बहुत खल रही थी। देश में कम्प्यूटर क्रांति के बाद आए सोशल
मीडिया से हम सब कितने अनसोशल हो गए हैं,यह टीस दिल में उठने लगी थी। इसी टीस के कचहरी
पानी टंकी के पास मौजूद भारतीय बस्ती के संपादक व पुराने मित्र प्रदीप चंद्र पाण्डेय
के पास पहुंच गया। संपादक प्रदीप पाण्डेय खुद थे लेकिन वह हर रिपोर्टर को ही संपादक
कहकर बुलाते थे। मुझे भी देखते ही वही तकियाकलाम दुहाराते हुए कहा आओ संपादक। दुआ-बंदगी
के साथ मिश्रीलाल के चाय की दुकान पर पहुंच गए दोनों चाय पीने। चाय की चुस्की संग चर्चा
चली बस्ती में बदलाव को लेकर, अपनी चिंता जाहिर की। उससे सहमति जताते हुए कहा कि सोशल
मीडिया ने आदमी को अनसोशल कर दिया। दोस्त अब इस शहर ही नहीं देश के किसी भी शहर में
जाओगे तो लोग दोस्त दिल देखकर कम जाति-धर्म देखकर ज्यादा बना रहे हैं। पुराने दोस्तों
के बात-व्यवहार से लेकर बदलाव को लेकर काफी देर तक चर्चा होती रही। जवाब निकला दोस्ती
फिर दिल से होगी, कुछ समय बाद लोगों को अहसास होगा अपने तो अपने ही होते हैं,उनका कोई
जाति-धर्म नहीं होता है। पुराने दोस्तों से लेकर शहर में आए बदलाव के बीच अचानक जेब
में पड़े फोन की फिर घंटी बज उठी। जम्मू-कश्मीर से पंडित पंगोत्रा जी का ही फोन था,
कुछ देर बात फोन करने की बात कहकर फोन आफ करके जेब में रख लिया।
क्रमश:
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